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==========दोहे=========== 

मैं है सूचक दंभ का, मैं ही एक असाधु
इस मैं को जो हम करे, हो जाए वो साधु

परहित गंगा कर्म की, सुधिजन जाने मर्म
लोभ मोह है गंदगी, निंदा नीच निधर्म

देवी माता गौ धरा, नारी के उपमान
हाथ जोड़ इनका करें, सब आदर सम्मान

अज्ञानी बेशर्म जस, कट कट बढती बेल
ज्ञानी काटे बेल को, कभी न हो फिर मेल

उल्लू डोले रात भर, अंधियारा ही भाय
मूरख काली कोठरी, बैठ उजाला खाय

मँहगाई सुरसा भयी, दिन दिन दुगनी होय
विचरे हाहाकार कर, हनुमत दिखे न कोय

मूरख है ब्रह्मास्त्र सा, पल पल मारे धीर
क्रोध करे धीरज तजे, हारे इससे वीर

गुरुजन सावन माह से, शंक जेठ का ताप
ज्ञान वृष्टि करके गुरु, हरे सकल संताप

नाते सब ही मानते, फिर भी जाते भूल
सुन्दर सृष्टि का यहाँ, केवल नारी मूल

कलयुग की माया बड़ी, रखना खुद से आस
अपने भी छोड़ें नहीं, करना खूब प्रयास

संदीप पटेल "दीप"

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 16, 2013 at 10:14am

बहुत सुन्दर भाव कथ्य सान्द्र, उत्तम दोहे लिखे हैं प्रिय संदीप जी, 

इस दोहावली के लिए हार्दिक बधाई.

Comment by Ashok Kumar Raktale on January 16, 2013 at 8:54am

आदरणीय संदीप जी सादर, बहुत सुन्दर दोहे. और अंतिम दोहे के व्यंग ने तो मन मोह लिया है. हार्दिक बधाई स्वीकारें.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 16, 2013 at 8:37am

बेहद प्रभाव शाली दोहे बने हैं एक से बढ़कर एक जहां सौरभ जी ने इशारा किया है उसे ठीक कर लें बस फिर क्या कहने हार्दिक बधाई 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 16, 2013 at 12:12am

भाव और कथ्य के लिहाज से किस दोहे को सराहूँ और किसे रहने दूँ ! बहुत ही सुगढ़ प्रयास हुआ है, संदीपभाईजी. मेरी हार्दिक बधाइयाँ.

कुछ दोहे तो झूम-झूम जाने को विवश करते हैं. जैसे -

अज्ञानी बेशर्म जस, कट कट बढती बेल
ज्ञानी काटे बेल को, कभी न हो फिर मेल

उल्लू डोले रात भर, अंधियारा ही भाय
मूरख काली कोठरी, बैठ उजाला खाय 

तो नीति परक दोहे अपने आप में बानगी हैं -

मैं है सूचक दंभ का, मैं ही एक असाधु
इस मैं को जो हम करे, हो जाए वो साधु

परहित गंगा कर्म की, सुधिजन जाने मर्म
लोभ मोह है गंदगी, निंदा नीच निधर्म

देवी माता गौ धरा, नारी के उपमान
हाथ जोड़ इनका करें, सब आदर सम्मान

परन्तु, अंतिम तीनों दोहे शिल्प की दृष्टि से कमजोर हैं. लगता है, आपने इनके होने में ज़ल्दबाज़ी की है.  गुरुजन सावन माह  वाला दोहा तो हर तरह से समय मांग रहा है. इसका दूसरा विषम चरण तो किसी तरह से शिल्प की कसौटी पर ख़ारिज़ होगा.

लेकिन कुल मिला कर आपका प्रयास बधाई का हकदार है.

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