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जैसे ही मैंने दरवाजा खोला 
भारत माँ व्यथित खड़ी थी 
बेगैरत जुलूस निकल रहे थे 
संस्कृति जमीन में गडी थी 
झूठ के महल दमक रहे थे 
सच्चाई झोंपड़ी में पड़ी थी 
अमीरी के झरने बह रहे थे 
गरीबी तुच्छ पंक में सड़ी थी 
भ्रष्टाचारी अट्टाहस कर रहे थे 
नेक नयन में अश्रु की झड़ी थी 
वृक्ष और पर्वत कट रहे थे 
पर्यावरण में खूब हड़बड़ी थी 
तपिश से हिम नद पिघल रहे थे 
सुनामी तबाही पे अड़ी थी 
देखकर स्नायु तंत्रिकाओं ने द्वन्द किया 

क्षण भर को गरल अखंड पिया 
और मैंने दरवाजा बंद किया |

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Comment by Saurabh Pandey on May 30, 2012 at 11:10pm

वाह .. सच्चाइयों से आँखें मूँदने का क्या ही सटीक वर्णन हुआ है.

आदरणीया राजेश कुमारी जी,  बधाई


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 30, 2012 at 9:39pm

thanks a lot albela ji .

Comment by Albela Khatri on May 30, 2012 at 9:36pm


आपकी लेखनी  में अगर  आग है  राजेश कुमारी जी..........तो हम भी बारूद लिए बैठे हैं  समर्थन और  प्रोत्साहन का ..........आप से आशाएं हैं.........शुभकामनायें !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 30, 2012 at 9:32pm

अरुणेन्द्र मिश्र जी यही तो इस कविता के माध्यम से मैं कहना चाह रही थी हार्दिक आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 30, 2012 at 9:30pm

वंदना जी हार्दिक आभार की मेरी कविता में छुपे हुए कटाक्ष को आपने सराहा 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 30, 2012 at 9:29pm

अलबेला खत्री जी सबसे पहले तो हार्दिक   आभार कहना चाहूंगी कविता को सराहने के लिए ,दूसरी बात बहुत ख़ुशी हुई की जो मैं कविता के द्वारा कहना चाहती थी मेरी लेखनी समझाने में सफल हुई ,देश में क्या हो रहा है यह देखते हुए भी अधिकतर लोग अपना दरवाजा ही बंद कर देते हैं लेकिन अब वक़्त है मस्तिष्क का दरवाजा खोल कर रखना और परिस्थितियों को सुधारना कविता के मर्म को समझने के लिए बहुत आभार 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 30, 2012 at 9:22pm

प्रदीप कुशवाह जी मुझे ख़ुशी है की आप मेरी कविता के मर्म तक पहुचे 

Comment by arunendra mishra on May 30, 2012 at 6:02pm

आदरणीय राजेश कुमारी जी ....

अत्यंत सुन्दर रचना ....अब तो  विद्रोह का द्वार खोलने की बात होनी चाहिए...

Comment by Albela Khatri on May 30, 2012 at 4:31pm

सम्मान्य राजेश कुमारी जी,
सबसे पहले तो इस अनुपम कविता के लिए बधाई स्वीकारिये  और  फिर मेरा निवेदन  है कि   दरवाज़ा बन्द न करें प्लीज़ ..........यही तो वो समय है जब आपको अपनी  संचित शक्ति का उपयोग करके  उन  हालात को बदलना है जिनसे वितृष्णा होती है  और  दरवाज़ा  बन्द करने को मन करता है
सादर

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 30, 2012 at 3:11pm

आदरणीय राजेश कुमारी  जी, सादर 

गरल पी के बंद किये जो दरवाजे 
अंतस मन में आ रही थीं आवाजें
चैन न  आया सब कुछ सी कर  
क्यों जिन्दा रहे गरल पी कर 
बेहतर था हम भी कुछ कर जाते 
ये जिन्दगी क्या बेहतर हम मर जाते 
बधाई 

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