बहरे हज़ज़ मुसम्मन मक्बुज.....
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन  मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन 
1212      1212       1212      1212
सरे निगाह शाम से ये क्या नया ठहर गया 
ये कौन सीं हैं मंजिलें ये क्या गज़ब है आरजू 
जिसे सँभाल कर रखा वही समा बिखर गया
अभी है वक़्त बेवफा अभी हवा भी तेज है 
अभी यहीं जो साथ था वो हमनवा किधर गया
ये वादियाँ ये बस्तियाँ ये महफ़िलें ये रहगुजर 
हज़ार गम गले पड़े जहाँ जहाँ जिधर गया
समेट कर ये हौंसले मक़ाम को निकल पड़ो 
जो थक गया बहक गया वो लौट अपने घर गया
  
खुदा की नेंमतें मिलीं तो ज़िन्दगी सँवार 'ब्रज'
अगर न उसके दर गया जहाँ से दर बदर गया 
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
बृजेश कुमार 'ब्रज'
 
Comment
आपका हार्दिक अभिनंदन एवं आभार आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण' जी
रचना पटल पे आपका हार्दिक अभिनंदन एवं आभार आदरणिया सुचिसंदीप अग्रवालl जी
आदरणीय Samar kabeer साहब आपकी द्वारा की गई हौसलफजाई से अत्यधिक संबल मिलता है....आपका हार्दिक अभिनंदन एवं आभार...ये मेरी इस मापनी पे पहली सफल कोशिश है....
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