नाद- लय की ये नदी, फिर सूखती क्यों है?
 निःशब्द बहती चेतना, फिर डूबती क्यों है?
 
 है अधूरी जिंदगी ,सारे सवालों के जवाब 
 वो पहाड़े याद कर, फिर भूलती क्यों है ?
 
 जब पवन जल अग्नि, आकाश धरती से 
 है जन्म लेती मूरतें, फिर टूटती क्यों है ?
 
 जान कर भी जो कभी, लौट कर आया नहीं
 ये बावरी तृष्णा उसे, फिर ढूँढती क्यों है ?
 
 खूब रोता दिल अकेले, में समझने के लिये 
 समझे जिसे थे जिंदगी ,फिर रूठती क्यों है ?
 
 है समंदर आसमाँ में, और जमीं बेचैन है 
 चीख़ वो बेआवाज़ सी, फिर गूँजती क्यों है ?
 
 -ललित मोहन पन्त 
 4. 07.2013
 00.27
Comment
सुन्दर प्रयास .. सफलता की सीढ़ी ..
इस सुंदर अभिव्यक्ति के लिए आपको हार्दिक बधाई!
सादर!
सर्वप्रथम मैं सभी सुधी मित्रों का आभारी हूँ जो आपने मुझ जैसे नवांकुर की इस रचना को अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया के योग्य समझा
… प्रशंसा और प्रोत्साहन की इस सुखद अनुभूति के लिये भी मैं अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ ….वेदिका जी ! नाद का शाब्दिक अर्थ तो ध्वनि होता है पर अनाहत/अनहद नाद ही ब्रह्म है जो इस मृदा को चेतना देता है और हमें उस अनंत यात्रा का यात्री बनाता है ऐसी आध्यात्मिक अध्येताओं की धारणा है जो मुझ जैसे अकिंचन की आस्था के सूत्र का एक सिरा … न यह कोई विधा है न ही कोई शीर्षक
…… अपनी स्थूलबुद्धि से जो समझा हूँ उसे आप को संप्रेषित करनेमें सफल न हो पाया हूँ तो क्षमा करेंगी …
ललित जी .. बढ़िया ग़ज़ल कही है .. मुबारकबादबाद
नाद- लय की ये नदी, फिर सूखती क्यों है?
निःशब्द बहती चेतना, फिर डूबती क्यों है?....वाह
है समंदर आसमाँ में, और जमीं बेचैन है 
चीख़ वो बेआवाज़ सी, फिर गूँजती क्यों है ?....बहुत ही सुंदर प्रस्तुति . .आत्मा -शरीर, जीवन -मरण से जुड़े तमाम प्रश्न सभी संवेदनशील मनुष्य के मन में चलते ही रहते हैं ... आप ने उसे बड़ी रोचकता  से बाँधा हैं और खूबसूरती से प्रस्तुत किया है  ..बहुत -२ बधाई
एक दर्दभरी रचना है.ललीत जी प्रकृति हमें अपनी सीमा परिद्दि से समय समय पर अवगत कराती रहती है......पर हम हैं कि सुनकर अनसुनी कर देते हैं.
बहुत सुन्दर रचना के माध्यम से अनुत्तरित प्रश्न किये है आपने | इनके उत्तर में बस यही कहा जा सकता है -
जितनी चाबी भरी राम ने, उतना चले खिलौना
अच्छी रचना के लिए बधाई श्री ललित मोहन पन्त जी
जनाब ललित मोहन जी शायद ही कोई तारीफ हो
 जो आपकी कविता के साथ इन्साफ कर पाए .....
 और शायद ही कोई समझ हो जो आपकी समझ
 से ताल मेल बिठा पाए ..........
 बहुत ही उम्दा और गहरा लिखा ....एक कवि कि ये दिली
 तमन्ना रहती है की कोई उस भाव में डूब कर उस कविता
 को पढ़े जिस भाव में उसने लिखी है ..........
 पर ये गहराई हर किसी को नही मिलती .......
वाह-वाह आनंद आ गया, हर एक पंक्ति पर हमारी तरफ से आपकी जय हो का उदघोष कर रहा हूं । आपकी जय हो
अति सुन्दर-
 बधाई आदरणीय-
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