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प्यासा था मैं कुछ बूंदों का ...

प्यासा था मैं कुछ बूंदों का, कब सागर भर पीना चाहा,

बस चाहा था दो पल जीना, कब जीवन भर जीना चाहा,

जग को होगा स्वीकार नहीं, ये अपना मिलन मैं शंकित था,

रिश्तों सा कुछ माँगेगा ये प्रमाण हमसे मैं परिचित था,

पर था मुझको विश्वास कभी छोड़ेगा ये जड़ता अपनी,

लेकिन निकला ये क्रूर बहुत दिखला दी निष्ठुरता अपनी,

तुम क्यों विकल्प हो गयी मेरा तुमको ही क्यों चुनना चाहा,

भावुक मन का मैं बोझ उठा कब तक बोलो चलता रहता,

जो गरल बन गया जीवन रस कब तक बोलो पीता रहता,

मेरे मिथ्या कह देने से माना कुछ देर संभल जाते,

कुछ स्वप्न सजाते तुम झूठें, माना कुछ देर बहल जाते,

क्यों झूठे भ्रम पाले तुमने, मैंने सच को छलना चाहा,

इतने अंकुश प्रतिबन्ध भला मेरे ही जीवन पर क्यों थे,

अपने ही नीलगगन में उड़ने पर इतने बंधन क्यों थे,

क्यों छीन लिए मेरे परिचय मुझसे मेरे अधिकार सभी,

इक- इक सांसों से छीन लिए जीवन संभव आधार सभी,

मेरे ही संचय को जग ने हर पल मुझसे ठगना चाहा,

प्यासा था मैं कुछ बूंदों का, कब सागर भर पीना चाहा,

बस चाहा था दो पल जीना, कब जीवन भर जीना चाहा ।

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Comment by वेदिका on July 6, 2013 at 6:02am

इक- इक सांसों से छीन लिए जीवन संभव आधार सभी,

मेरे ही संचय को जग ने हर पल मुझसे ठगना चाहा, ,, वाह बहुत ही खूबसूरत रचना!

बधाई!!  

Comment by Ashok Kumar Raktale on April 22, 2013 at 11:04pm

प्यासा था मैं कुछ बूंदों का, कब सागर भर पीना चाहा,

बस चाहा था दो पल जीना, कब जीवन भर जीना चाहा..........वाह! बहुत सुन्दर रचना आदरणीय

बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.

Comment by coontee mukerji on April 20, 2013 at 3:07am

अपने ही नीलगगन में उड़ने पर इतने बंधन क्यों थे,

क्यों छीन लिए मेरे परिचय मुझसे मेरे अधिकार सभी,

इक- इक सांसों से छीन लिए जीवन संभव आधार सभी,

मेरे ही संचय को जग ने हर पल मुझसे ठगना चाहा,

प्यासा था मैं कुछ बूंदों

अपने ही नीलगगन में उड़ने पर इतने बंधन क्यों थे,

क्यों छीन लिए मेरे परिचय मुझसे मेरे अधिकार सभी,

इक- इक सांसों से छीन लिए जीवन संभव आधार सभी,

मेरे ही संचय को जग ने हर पल मु

झसे ठगना चाहा,

प्यासा था मैं कुछ बूंदों का, कब सागर भर पीना चाहा,

बस चाहा था दो पल जीना, कब जीवन भर जीना चाहा ।

का, कब सागर भर पीना चाहा,

बस चाहा था दो पल जीना, कब जीवन भर जीना चाहा । ....बहुत सुंदर भाव....बधाई स्वीकार  करें .

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on April 18, 2013 at 10:12pm

बहुत ही सुन्दर रचना आदरणीय अजय जी 

सादर बधाई स्वीकारें 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 18, 2013 at 10:08pm

हृदय मे उठ रहे भावनाओं को कविता मे ढालने का बढ़िया प्रयास हुआ है, बधाई आदरणीय अजय शर्मा जी | 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 18, 2013 at 7:51pm

रिश्तों की कश्मकश...

और मजबूर इंसान... अपनी ही ज़िंदगी को अपने अनुसार जीने का अधिकार न रख पाने का दर्द...

ऐसे ही मनोभावों को अभिव्यक्त करती मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति के लिए बधाई आ० अजय शर्मा जी 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 18, 2013 at 10:09am

आदरणीय अजय जी,  सुप्रभात व सादर प्रणाम!  बहुत सुन्दर।   हार्दिक बधाई स्वीकारें।   सादर,

कृपया ध्यान दे...

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