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Anwar suhail's Blog (70)

श्राप

तुमने ठीक कहा था 
तुम्हारे बिना देख नही पाऊंगा मैं 
कोई भी रंग 
पत्तियों का रंग 
फूलों का रंग 
बच्चों की मुस्कान का रंग 
अज़ान का रंग 
मज़ार से उठते लोभान का रंग 
सुबह का रंग....शाम का रंग 
मुझे सारे रंग धुंधले दीखते हैं 
कुहरा नुमा...धुंआ-धुंआ...
और कभी मटमैला सा कुछ....

ये तुमने कैसा श्राप दिया है 
तुम ही मुझे श्राप-मुक्त कर सकते हो..
कुछ करो...
वरना पागल हो जाऊंगा मैं.....

(मौलिक अप्रकाशित)

Added by anwar suhail on September 18, 2013 at 7:00pm — 12 Comments

अजीब विडम्बना है

अजीब विडम्बना है

कि अपने दुखों का कारण

अपने प्रयत्नों में नहीं खोजते

बल्कि मान लेते हैं

कि ये हमारा दुर्भाग्य है

कि ये प्रतिफल है

हमारे पूर्वजन्मों का...

अजीब विडम्बना है

जो मान लेते हैं हम

ब-आसानी उनके प्रचारों को

कि तंत्र-मन्त्र-यंत्र,

तावीजें-गंडे

शरीर में धारण कर लेने मात्र से

दूर हो जाएंगे हमारे तमाम दुःख !

अजीब विडम्बना है

लम्बी-लम्बी साधनाओं का

तपस्या का

मार्ग जानते हुए भी

हम…

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Added by anwar suhail on September 15, 2013 at 8:24pm — 3 Comments

एक बार फिर

एक बार फिर 

इकट्ठा हो रही वही ताकतें 

एक बार फिर 

सज रहे वैसे ही मंच 

एक बार फिर 

जुट रही भीड़

कुछ पा जाने की आस में

              भूखे-नंगों की 

एक बार फिर 

सुनाई दे रहीं,

वही ध्वंसात्मक  धुनें 

एक बार फिर 

गूँज रही फ़ौजी जूतों की थाप  

 

एक बार फिर 

थिरक रहे दंगाइयों, आतंकियों के पाँव 

एक बार फिर 

उठ रही लपटें

धुए से काला हो…

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Added by anwar suhail on September 10, 2013 at 8:34pm — 10 Comments

ओ तालिबान !

जिसने जाना नही इस्लाम 

वो है दरिंदा 

वो है तालिबान...



सदियों से खड़े थे चुपचाप 

बामियान में बुद्ध 

उसे क्यों ध्वंस किया तालिबान 



इस्लाम भी नही बदल पाया तुम्हे 

ओ तालिबान 

ले ली तुम्हारे विचारों ने 

सुष्मिता बेनर्जी की जान....



कैसा है तुम्हारी व्यवस्था 

ओ तालिबान!

जिसमे…

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Added by anwar suhail on September 6, 2013 at 8:14pm — 3 Comments

पहचान लिए जाने का डर

कोई तोड़ दे

उसका सर 

जोर से

मार कर पत्थर 

हो जाए ज़ख़्मी वो 

 

कोई दे उसे 

चीख-चीख कर

गालियाँ बेशुमार 

कि फट जाएँ उसके कान के परदे 

घर या दफ्तर जाते समय 

टकरा जाए उसकी गाडी 

किसी पेड़ या खम्भे से 

चकनाचूर हो जाए उसकी गाडी 

और अस्पताल के हड्डी विभाग में 

पलस्तर बंधी उसकी देह गंधाये...

और एक दिन 

सुनने में आया 

कि किसी ने उसके सर पर

....मार दिया…

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Added by anwar suhail on September 5, 2013 at 11:00pm — 5 Comments

आस्था की दीवार

जैसे टूटता  तटबंध 

और डूबने लगते बसेरे 

बन आती जान पर 

बह जाता, जतन से धरा सब कुछ 

कुछ ऐसा ही होता है 

जब गिरती आस्था की दीवार 

जब टूटती विश्वास की डोर

ज़ख़्मी हो जाता दिल 

छितरा जाते जिस्म के पुर्जे 

ख़त्म हो जाती उम्मीदें 

हमारी आस्था के स्तम्भ 

ओ बेदर्द निष्ठुर छलिया ! 

कभी सोचा तुमने 

कि अब  स्वप्न देखने से भी 

डरने लगा  इंसान 

और स्वप्न ही  तो हैं 

इंसान के…

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Added by anwar suhail on September 2, 2013 at 9:00pm — 14 Comments

परिवर्तन

तुम मेरी बेटी नही 

बल्कि हो बेटा...

इसीलिये मैंने तुम्हें

दूर रक्खा शृंगार मेज से 

दूर रक्खा रसोई से 

दूर रक्खा झाडू-पोंछे से 

दूर रक्खा डर-भय के भाव से 

दूर रक्खा बिना अपराध 

माफ़ी मांगने की आदतों से 

दूर रक्खा दूसरे की आँख से देखने की लत से....

और बार-बार

किसी के भी हुकुम सुन कर 

दौड़ पडने की आदत से भी 

तुम्हे दूर रक्खा...

बेशक तुम बेधड़क जी…

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Added by anwar suhail on August 29, 2013 at 10:00pm — 12 Comments

बेदर्द मौसम में

तुम्हें रोने की आज़ादी

तुम्हें मिल जाएंगे कंधे

तुम्हें घुट-घुट के जीने का

मुद्दत से तजुर्बा है



तुम्हें खामोश रहकर

बात करना अच्छा आता है

गमों का बोझ आ जाए तो

तुम गाते-गुनगुनाते हो

तुम्हारे गीत सुनकर वो

हिलाते सिर देते दाद...

इन्ही आदत के चलते ये

ज़माना बस तुम्हारा है

कि तुम जी लोगे इसी तरह

ऎसे बेदर्द मौसम में

ऎसे बेशर्म लोगों में.....



इसी तरह की मिट्टी से

बने लोगों की खासखास…

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Added by anwar suhail on August 1, 2013 at 9:00pm — 9 Comments

लेकिन मेरी बिटिया

बेशक तुमने देखी नही दुनिया 

बेशक तुम अभी नादान हो 

बेशक तुम आसानी से

हो जाती हो प्रभावित अनजानों से भी 

बेशक तुम कर लेती हो विश्वास किसी पर…

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Added by anwar suhail on July 12, 2013 at 9:00pm — 9 Comments

कविता में प्रेम



उसने मुझसे कहा



ये क्या लिखते रहते हो



गरीबी के बारे में



अभावों, असुविधाओं,



तन और मन पर लगे घावों के बारे में



रईसों, सुविधा-भोगियों के खिलाफ



उगलते रहते हो ज़हर



निश-दिन, चारों पहर



तुम्हे अपने आस-पास



क्या सिर्फ दिखलाई…

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Added by anwar suhail on June 20, 2013 at 10:28pm — 4 Comments

दुःख सहने के अभ्यस्त

उनके जीवन में है दुःख ही दुःख

और हम बड़ी आसानी से कह देते

उनको दुःख सहने की आदत है...

वे सुनते अभाव का महा-आख्यान

वे गाते अपूरित आकांक्षाओं के गान

चुपचाप सहते जाते जुल्मो-सितम

और हम बड़ी आसानी से कह देते

अपने जीवन से ये कितने सतुष्ट हैं...

वे नही जानते कि उनकी बेहतरी लिए

उनकी शिक्षा,…

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Added by anwar suhail on June 17, 2013 at 8:43pm — 11 Comments

जाने कब मिलेंगे हम अब्बू आपसे...

जाने कब मिलेंगे हम अब्बू आपसे...

-----------------------------------------अनवर सुहैल (मौलिक अप्रकाशित और अप्रसारित कविता)



कब मिलेगी फुर्सत

कब मिलेगा मौका

कब बढ़ेंगे कदम

कब मिलेंगे हम अब्बू आपसे...



बेशक, आप खुद्दार हैं

बेशक, आप खुद-मुख्तार हैं

बेशक, आप नहीं देना चाहते तकलीफ

        अपने वजूद से,

                      किसी को भी

बेशक , आप नहीं बनना चाहते

                   बोझ किसी पर..

तो क्या इसी बिना पर

हम आपको छोड़…

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Added by anwar suhail on June 11, 2013 at 8:26pm — 8 Comments

अभी तो मुझे

अभी तो मुझे

दौड कर पार करनी है दूरियां

अभी तो मुझे

कूद कर फलांगना है पहाड़

अभी तो मुझे

लपक कर तोडना है आम

अभी तो मुझे

जाग-जाग कर लिखना है महाकाव्य

अभी तो मुझे

दुखती लाल हुई आँख से

पढनी है सैकड़ों किताबें

अभी तो मुझे

सूखे पत्तों की तरह लरज़ते दिल से

करना है खूब-खूब प्या....र

तुम निश्चिन्त रहो मेरे दोस्त

मैं कभी संन्यास नही लूँगा...

और यूं ही जिंदगी के मोर्चे में

लड़ता रहूँगा नई पीढ़ी के साथ

कंधे से कंधा… Continue

Added by anwar suhail on June 4, 2013 at 8:21pm — 7 Comments

अद्भुत कला

अद्भुत कला है

बिना कुछ किये

दूजे के कामों को

खुद से किया बताकर

बटोरना वाहवाही...

जो लोग

महरूम हैं इस कला से

वो सिर्फ खटते रहते हैं

किसी बैल की तरह

किसी गधे की तरह

ऐसा मैं नही कहता

ये तो उनका कथन है

जो सिर्फ बजाकर गाल

दूसरों के कियेकामों को

अपना…

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Added by anwar suhail on May 26, 2013 at 7:49pm — 5 Comments

जिस वक्त कोई

जिस वक्त कोई

बना रहा होता क़ानून

कर रहा होता बहस

हमारी बेहतरी के लिए

हम छह सौ फिट गहरी

कोयला खदान के अंदर

काट रहे होते हैं कोयला

जिस वक्त कोई

तोड़ रहा होता क़ानून

धाराओं-उपधाराओं की उड़ा-कर धज्जियां

हम पसीने से चिपचिपाते

ढो रहे होते कोयला अपनी पीठ पर..

जिस वक्त कोई

कर रहा होता आंदोलन

व्यवस्था के खिलाफ लामबंद

राजधानियों की व्यस्ततम सड़कों पर

हम हाँफते- दम…

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Added by anwar suhail on May 22, 2013 at 8:20pm — 3 Comments

खनिकर्मी

कोयला खदान की

आँतों सी उलझी सुरंगों में

पसरा रहता अँधेरे का साम्राज्य



अधपचे भोजन से खनिकर्मी

इन सर्पीली आँतों में

भटकते रहते दिन-रात

चिपचिपे पसीने के साथ...



तम्बाकू और चूने को

हथेली पर मलते

एक-दूजे को खैनी खिलाते

सुरंगों में पिच-पिच थूकते

खानिकर्मी जिस भाषा में बात करते हैं

संभ्रांत समाज उस भाषा को

असंसदीय कहता, अश्लील कहता...



खदान का काम खत्म कर

सतह पर आते वक्त

पूछते अगली शिफ्ट के कामगारों से

ऊपर का…

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Added by anwar suhail on May 17, 2013 at 9:30pm — 8 Comments

सर झुकाना नहीं आता

क्या करें, 

इतनी मुश्किलें हैं फिर भी

उसकी महफ़िल में जाकर मुझको

गिडगिडाना नहीं   भाता.....

 

वो जो चापलूसों से घिरे रहता है

वो जो नित नए रंग-रूप धरता है

वो जो सिर्फ हुक्म दिया करता है

वो जो यातनाएँ दे के हंसता है

मैंने चुन ली हैं सजा की राहें

क्योंकि मुझको हर इक चौखट पे

सर झुकाना नहीं आता...

 

उसके दरबार में रौनक रहती

उसके चारों तरफ सिपाही हैं

हर कोई उसकी इक नज़र का मुरीद

उसके नज़दीक…

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Added by anwar suhail on May 7, 2013 at 8:21pm — 7 Comments

हम खुद ही बादशाह हैं

हम वो नही जो आपकी

चुटकी में मसल जाएँ

हम वो नहीं जो आपके

पैरों से कुचल जाएँ

हम वो नहीं जो आपके

डर से रण छोड़ जाएँ

हम वो नहीं जो आपकी

भभकी से सिहर जाएँ

 

जुल्मो-सितम की आंधी

यातनाओं के तूफ़ान में भी

देखो तने खड़े हम

किसी पहाड़ की तरह  

खुद्दारी और खुद-मुख्तारी

यही तो है पूंजी हमारी...

 

उन जालिमों के गुर्गे

टट्टू निरे भाड़े के

हथियार छीन लो तो

रण छोड़ भाग…

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Added by anwar suhail on May 4, 2013 at 8:21pm — 5 Comments

याद करो...

कैसे बन जाता कोई नपुंसक

कैसे हो जाती खामोश जुबान

कैसे हज़ारों सिर झुक जाते

कैसे बढते क़दम रुक जाते

 

कुंद कर दिया गया दिमाग

पथरा गई हैं संवेदनाएं

किसी साज़िश के तहत

खत्म कर दी गई हैं संभावनाएं

 

मैंने कहा साथी!

क्या हुआ कि बंद हैं राहें

गूँज रही हर-सू आहें-कराहें

क्या हुआ कि खो गई दिशाएँ

क्या हुआ कि रुक गई हवाएं

याद करो,

हमने खाई थी शपथ

विपरीत परिस्थितियों में

हम झुकेंगे…

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Added by anwar suhail on May 3, 2013 at 7:57pm — 9 Comments

कैसे बचें....

जो बुरा है

जो बदनाम है

जो ज़ालिम है

उससे सावधान रहना आसान है

क्योंकि वो तो जग-जाहिर है....



लेकिन जो बुरा दीखता नही

जो नाम वाला हो

जो नरमदिल बना हुआ हो

ऐसे लोगों को पहचानना

हर किसी के बस की बात नहीं...

क्या आप ऐसे लोगों को पहचान…

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Added by anwar suhail on April 28, 2013 at 9:11pm — 5 Comments

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