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गिरिराज भंडारी's Blog (302)

ग़ज़ल - आइनों से पत्थरों के वास्ते ( गिरिराज भंडारी )

 2122        2122        212 

खुशनुमाँ से अवसरों के वास्ते

आसमाँ तो हो परों के वास्ते

 

मै तो आईना लिये फिरता हूँ अब

आइनों से पत्थरों के वास्ते

 

अब तो दीवारें गिरायें यार हम

गिर रहे हैं उन घरों के वास्ते

 

थोड़ी अकड़न भी अता करना ख़ुदा

बे सबब झुकते सरों के वास्ते

 

कुछ बहाने और हैं, ले जाइये

आदतन से कायरों के वास्ते

 

मैं हक़ीकत बाँध के लाया हूँ आज 

कुछ छिपे अंदर डरों के…

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Added by गिरिराज भंडारी on September 23, 2015 at 6:49am — 15 Comments

हिन्दी गज़ल - ज्ञान की अति खा रही है भावनायें ( गिरिरज भंडारी )

2122     2122     2122

एक दिन आ कर तुम्हें भी हम हँसायें

यदि हमारे बहते आँसू मान जायें

 

क्यों समय केवल उदासी बांटता है ?

क्या समय के पास बस हैं वेदनायें

 

जानकारी ठीक है ,पर ये भी सच है

ज्ञान की अति खा रही है भावनायें

 

इस तरफ है पेट की ऐंठन सदी से

उस तरफ़ है भूख पर होतीं सभायें  

 

बात में बारूद शामिल है उधर की

हम कबूतर शांति के कैसे उड़ायें ?

 

अब धरा को छू रहा है सर…

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Added by गिरिराज भंडारी on September 15, 2015 at 9:33am — 43 Comments

ग़ज़ल - जैसे अपना बयान छोड़ गये ( गिरिराज भंडारी )

2122  1212  112/22

ज़ख़्म  सूखे निशान छोड़ गये

जैसे अपना बयान छोड़ गये

 

लौट के यूँ गये मेरे दिल से

मानो ख़ाली मकान छोड़ गये

 

सारी खुश्बू हवायें ले के गईं  

ये भी सच है कि भान छोड़ गये

 

राग खुशियों के छिन्न भिन्न किये

मित्र, ग़मगीन तान छोड़ गये

 

उड़ गये जब परिंदे बाग़ों से

पीछे सब सून सान छोड़ गये 

 

हाले दिल क्या बयान कर पाते ?

हम से कुछ बे ज़ुबान छोड़ गये

 

खुद चढ़ाई चढ़े…

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Added by गिरिराज भंडारी on September 3, 2015 at 10:54am — 26 Comments

ग़ज़ल - आप लें हाथ बाँसुरी तो क्या ( गिरिराज भंडारी )

2122 1212    112 /22

डर के यूँ ज़िन्दगी बची तो क्या

और अगर बच नहीं सकी तो क्या

 

देख क्या आदमी ही जीता है ?

आदमी में है आदमी तो क्या

 

जब कहे को नही समझते हैं 

रह गई बात अनकही तो क्या

 

भूख आदाब कब  समझती है

बे अदब थोड़ी हो गयी तो क्या  

 

जारी फिर चाँद ने किया फतवा

बे असर चाँदनी रही तो क्या

 

फूल पत्तों में आज खुशियाँ हैं

जड़ अँधेरों से है घिरी तो क्या

 

दुन्दुभी…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 20, 2015 at 9:56am — 20 Comments

ग़ज़ल - नींद वाली थीं कभी रातें नहीं -- गिरिराज भंडारी

2122 2122 212

आप सीमायें अगर लांघें नहीं

बाड़ हम भी आपकी फांदें नहीं



वो समर के वास्ते तैयार हैं

हाथ मेरे आप यूँ बांधें नहीं



हक़ हलाली की कोई रोटी दिखा

भीख से जी कर तो यूँ नाचें नहीं



शेर बन के सामने आजा कभी

गीदड़ों सी पीठ पर घातें नहीं



चैन खातिर दिन तरसता रह गया

नींद वाली थीं कभी रातें नहीं



दिल पढ़ें , नज़रें पढ़ें , आँसू पढ़ें

अस्लिहा के बाब यूँ बांचें नहीं

अस्लिहा – हथियारों , बाब – अध्याय



आप…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 13, 2015 at 8:30am — 18 Comments

हिन्दी गज़ल - अब हृदय में आपका आना मना है ( गिरिराज भंडारी )

2122   2122   2122

आप रो देंगे बहुत संभावना है

अब हृदय में आपका आना मना है

 

अब क्षितिज पर फिर उजाला दिख सकेगा

यों, अँधेरा इस पहर काफी घना है

 …

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Added by गिरिराज भंडारी on August 12, 2015 at 7:53am — 25 Comments

ग़ज़ल - बहुत की कोशिशें मैने गमों के पार जाने की ( गिरिराज भंडारी )

1222       1222      1222       1222

*******************************************

बहुत की कोशिशें मैने गमों के पार जाने  की

मुझे फिर घेर लेतीं हैं वही खुशियाँ जमाने की

 

अगर सच है, तो वो सच है ,कभी कह भी दिया कोई

जरूरत क्या पड़ी थी आपको यूँ तिलमिलाने की

 

यक़ीं हो तो यक़ीं रखना नहीं तो बेयक़ीनी रख

तेरी आदत गलत लगती है मुझको, आजमाने की

 

अँधेरा इस क़दर हावी न हो पाता किसी आंगन

रही होती अगर चाहत दिये हर घर जलाने…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 5, 2015 at 2:16pm — 23 Comments

ग़ज़ल - जो खेलती थी घर में मुहब्बत नहीं रही ( गिरिरज भन्डारी )

221 2121 1221 212 ( आ. दुष्यंत कुमार की ज़मीन पर )

( अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नही रही )

********************************************************

जब से किसी के कोई भी चाहत नहीं रही

तब से किसी से कोई शिकायत नहीं रही

 

फिर जोश कह रहा है कि टकरा जा संग से

पर होश ये कहे है , वो ताकत नहीं रही

 

मेरी ही कोशिशों में कमी कुछ तो थी ज़रूर

मै क्यूँ कहूँ कि वो मेरी क़िस्मत नहीं रही 

 

बाती के साथ तेल लिये घूमता हूँ,…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 4, 2015 at 2:53pm — 24 Comments

ग़ज़ल - पत्थर पन कुछ और कड़ा हो जाता है -( गिरिराज भंडारी )

22  22  22   22   22  2

शीशा से पत्थर जब भी टकराता है

पत्थर पन कुछ और कड़ा हो जाता है

 

मुँह की बातों का,  आँखें प्रतिकार करें

सही अर्थ तब शब्द कहाँ जी पाता है 

 

लाख बदल के बोलो भाषा तुम लेकिन

लहज़ा असली कहीं उभर ही आता है

 

साजिंदों ने यूँ बदलें हैं साज बहुत 

गाने वाला गीत पुराना गाता है 

 

तुम पर्वत पर्वत कूदो , मै नदिया तैरूँ

मित्र, हमारा बस ऐसा ही नाता है

 

फिर से ताज़ा मत कर…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 26, 2015 at 10:02am — 16 Comments

ग़ज़ल - कैसे बच्चों में सादगी होगी -- ( गिरिराज भंडारी )

2122    1212     22 /112

सुर्मई, शाम हो रही होगी

रात दस्तक भी दे चुकी होगी

 

रात के हक़ में गर अंधेरा है

सुब्ह के हक़ में रोशनी होगी

 

दिल ठहर, बस नज़र मिला…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 21, 2015 at 9:01am — 16 Comments

ग़ज़ल - हर औरत में सुरसा भी है, और सभी में सीता है ( गिरिराज भंडारी )

22   22   22   22   22   22   22   2   --- 

पेडों पर इल्जाम लगा वो ख़ुद की खातिर जीता है

सोच रहा हूँ मैं सागर क्या अपना पानी पीता है ?

 

झूठा- सच्चा , सही ग़लत ये सब बे पर की बातें हैं

दिखे फाइदा, सच को मोड़ो जिसको जहाँ सुभीता है

 

सभी उँगलियाँ अलग हो गईं अहम बीच में आने से

चुल्लू में कुछ रुका नहीं , जो रीता था, वो रीता है 

 

शब्द कोश बस रट लेने से भाव नहीं पैदा होता

व्यर्थ हाथ में रख लेना क़ुरआन बाइबिल गीता…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 16, 2015 at 7:39am — 15 Comments

गज़ल - तुम कहो तो इत्तफाकन सामना ही मान लूँ ( गिरिराज भंडारी )

2122      2122      2122     212   

क्या मरासिम को हमारे इक सज़ा ही मान लूँ

क़ातिबे तक़दीर की कोई जफ़ा ही मान लूँ

 

भीड़ में मुझ तक पहुँच के थम गये थे जो क़दम

तुम कहो तो इत्तफाकन सामना ही मान लूँ

 

आपकी आँखों ने लिक्खे थे कई ख़त जो मुझे

हर्फ़े बेमानी समझ उनको अदा ही मान लूँ

 

बन्द आखें , हाथ ऊपर कर जो मांगी थी कभी

अब असर से क्या उसे मैं बद दुआ ही मान लूँ

 

अब परिंदे प्यार के उड़ कर नहीं आते इधर

क्यों न…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 15, 2015 at 9:16am — 22 Comments

ग़ज़ल -- ख़ुदा हो जा, अगर क़ुव्वत है तुझ में (गिरिराज भंडारी )

1222   1222    122

बहारों पर् चलो चरचा करेंगे

ख़िजाँ का ग़म ज़रा हलका करेंगे

 

कभी सोचा नहीं, हम क्या बतायें

न होंगे ख़्वाब तो हम क्या करेंगे

 

सजा दे , हक़ तेरा है हर खता की

उमीदें रख न हम तौबा करेंगे

 

अगर जुगनू सभी मिल जायें, इक दिन

यही सर चाँद का नीचा करेंगे

 

सँभल जा ! हम इरादों के हैं पक्के

कि, मर के भी तेरा पीछा करेंगे

 

जिया अन्दर का बाहर आ तो जाये

सर इब्ने सुब्ह को नीचा…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 13, 2015 at 8:30am — 18 Comments

ग़ज़ल - तो मै इंसान होने से मुकरना चाहता हूँ ( गिरिराज भंडारी )

1222   1222   1222   122

क़रीब आ ज़िन्दगी, तुझको समझना चाहता हूँ

मैं ज़र्रा हूँ ,  तेरी बाहों में  फिरना चाहता हूँ

 

समेटा खूब , खुद को, पर बिखरता ही गया मैं

ग़ुबारों की तरह अब मैं बिखरना चाहता हूँ

 

जमा हर दर्द मेरा एक पत्थर हो गया है

ज़रा सी आँच दे , अब मैं पिघलना चाहता हूँ

 

तेरी आँखों मे देखी थी कभी तस्वीर खुद की

जमाना हो गया , मै फिर सँवरना चाहता हूँ

 

लगा के बातियाँ उम्मीद की ,दिल के दिये…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 11, 2015 at 9:00am — 12 Comments

गज़ल - फिल बदीह - कभी पत्थर नहीं देता ( गिरिराज भंडारी )

122     122    122    122

जहाँ वाले यूँ तो बताते रहे हैं

हमी अपनी ख़ामी छुपाते रहे हैं

वो अमराई , झूले वो पेड़ों के साये

बहुत देर तक याद आते रहे हैं…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 8, 2015 at 6:12am — 16 Comments

गज़ल - फिल बदीह - कभी पत्थर नहीं देता ( गिरिराज भंडारी )

1222   1222   1222   1222

पियाला वो किसी को भी, कभी भर कर नहीं देता

जिसे वो नींद देता है , उसे बिस्तर नहीं देता

कभी शीशा छुपाता है , कभी पत्थर नहीं देता

बहे गुस्सा मेरा कैसे , ख़ुदा अवसर नहीं देता

तुम्हारी हर ज़रूरत पर नज़र वो खूब रखता है

तुम्हारी ख़्वाहिशों पर ध्यान वो अक्सर नहीं देता

खुशी तुम भीतरी मांगो तो वो तस्लीम करता  है

अगर बाहर के सुख मांगे तो वो भीतर नहीं देता

किया तुमने नहीं वादा  शिकायत फिर…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 7, 2015 at 5:30am — 18 Comments

गज़ल - फिल बदीह -- सरे सुब्ह लगता है फिर रात होगी ( गिरिराज भंडारी )

122     122     122      122

पियादे से राजा की फिर मात होगी

सरे सुब्ह लगता है फिर रात होगी

 

दिशायें जहाँ पर समझ की अलग हैं

वहाँ अब ठिकाने की क्या बात होगी 

 

समझ कर ज़रा आप तस्लीम करिये

वो देते नहीं हक़ , ये ख़ैरात होगी

 

वही सुब्ह निकली , वही धूप पसरी

नया कुछ नहीं तो , वही रात होगी

 

यहाँ साजिशों में लगे सारे माहिर

सँभल के, यहाँ पीठ पर घात होगी

 

बड़ा ख़्वाब जिसका है, दिल भी बड़ा…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 4, 2015 at 7:30am — 19 Comments

ग़ज़ल - फिल बदीह -- घटी है दरमिय़ाँ दूरी , किसी के दूर जाने से ( गिरिराज भंडारी )

1222       1222       1222        1222

मुहब्बत कब छिपी है चिलमनों की ओट जाने से

नज़र की शर्म कह देगी तुम्हारा सच जमाने से 

 

अरूजी इल्म में उलझे नहीं, बस शादमाँ वो हैं

हमे फुरसत नहीं मिलती कभी मिसरे मिलाने से

 

उदासी किस क़दर दिल में बसी है क्या कहें यारों

बस अश्कों का बहा दर्या है दिल के आशियाने से 

 

अकड़ने से बढ़ा हो क़द , मिसाल ऐसी नहीं, लेकिन 

झुके हैं  बारहा  लेकिन किसी के  सर झुकाने से

 

कभी ये भी …

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Added by गिरिराज भंडारी on July 2, 2015 at 8:30am — 23 Comments

ग़ज़ल -- ये न भूलो, ज़िन्दगी भी थी बुलाई दोस्तो ( गिरिराज भंडारी )

2122     2122   2122     212

मुस्कुराकर मौत जितनी पास आयी दोस्तो

ये न भूलो, ज़िन्दगी भी थी बुलाई दोस्तो

बेवफाई जाने कैसे उन दिलों को भा गई

हमने मर मर के वफा जिनको सिखाई दोस्तो

धूप फिर से डर के पीछे हट गई है, पर यहाँ

जुगनुओं की अब भी जारी है लड़ाई दोस्तो

कल की तूफानी हवा में जो दुबक के थे छिपे

आज देते दिख रहे हैं वे सफाई दोस्तो

आईना सीरत हूँ मैं, जब उनपे ज़ाहिर हो गया

यक-ब-यक दिखने लगी मुझमें बुराई…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 2, 2015 at 8:30am — 28 Comments

ग़ज़ल -- ये मेरा असर है ( गिरिराज भंडारी )

122    122 

ले, कदमों पे सर है

लो, अब भी कसर है

 

जो मर ही चुके हो

तो अब किसका डर है

 

नहीं ख़त्म होगा

ये मेरा असर है

 

नहीं कोई मंज़िल

महज़ रह ग़ुज़र है

 

तो घर में ही बैठो

अगर तुमको डर है

 

लिखे शह्र जिसको

हमें वो शहर है

 

नहीं है जो कड़वा

वो मीठा ज़हर है

 

लो, अन्धों से  सुन लो 

कहाँ रह गुज़र है

****************

मौलिक एवँ…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 25, 2015 at 8:58am — 29 Comments

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