(आज से करीब ३१ साल पहले)
आज का दिन किताबों के साथ बीत गया. इतनी जल्दी मानो मेरी गति घड़ी के काँटों से भी तीव्रतर थी. शरतचंद्र की उपन्यासिका ‘बिराज बहु’ को आद्योपांत पढ़ने के दौरान मैं समय की हिमावर्त सडकों पे असहाय फिसलता गया. इस कृति ने मेरे मर्म को छू लिया था.
बिराजबहू उपन्यास की मुख्य पात्रा है जिसे लेखक ने अपनी जीवंत लेखनी के माध्यम से अत्यंत सशक्त और स्वाभाविक ढांचे में ढाला है. पात्रों के अंतर्संघर्ष में मुझे अपने ही समाज की असंगतियों, मानवीय भावनाओं,…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 7, 2013 at 7:00am — No Comments
(आज से करीब ३१ साल पहले)
शनिवार, २७/०३/१९८२, नवादा, बिहार: एक मोड़
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आज हम सभी साथियों की खुशी किसी सीमा में बांधे नहीं बाँध रही है. आज हम सभी सुबह से ही उस घड़ी की प्रतीक्षा में हैं जब हम मैट्रिक की संस्कृत के द्वीतीय पत्र की परीक्षा दे परीक्षा-भवन से आख़िरी बार निकालेंगे.
हमारे मैट्रिक इम्तेहान का सेंटर नवादा मुख्यालय से २९ किमी दूर रजौली कसबे के एक सरकारी स्कूल में रखा गया था. मैं और मुझसे…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on September 2, 2013 at 11:07am — 7 Comments
(आज से करीब ३२ साल पहले: भावनात्मक एवं वैचारिक ऊहापोह)
रात्रिकाल, शनिवार ३०/०५/१९८१; नवादा, बिहार
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मेरी ये धारणा दृढ़ होती जा रही है कि सत्य, परमात्मा, आनंद, शान्ति- सभी अनुभव की चीज़ें हैं. ये कहीं रखी नहीं हैं जिन्हें हम खोजने से पा लेंगे. ये इस जगत में नहीं बल्कि हममें ही कहीं दबी और ढकी पड़ी हैं और इसलिए इन्हें इस बाह्य जगत में माना भी नहीं जा सकता, खोजा भी नहीं जा सकता, और पाया भी नहीं जा सकता....स्वयं के…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 26, 2013 at 1:26pm — 6 Comments
(आज से करीब ३२ साल पहले)
शनिवार ०४/०४/१९८१; नवादा, बिहार
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आज भी दवा मुझपे हावी रही. स्कूल से घर आने के बाद कुछ पढ़ाई की. परन्तु जैसे किसी बाहरी नियंत्रण में आकर मुझे पढ़ाई रोकनी पड़ी. ऊपर गया और मां से खाना माँगा. मगर ठीक से खाया भी नहीं गया. एक घंटे के बाद चाय के एक प्याले के साथ मैं वापिस नीचे अपने कमरे आया. कलम कापी उठाई और लिखने बैठ गया. मन कुछ हल्का हुआ.
मैंने ऐसा महसूस किया कि दवा का प्रभाव खाने के…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 22, 2013 at 2:00pm — 2 Comments
(आज से करीब ३२ साल पहले)
लगता है मुझे कोई बीमारी हो गई है. परसों पिताजी डॉक्टर के पास ले गए थे. नाक से बार बार खून आने लगा है. मां ने कहा है कि कुछ दिन मुझे नियमित रूप से दवा खानी होगी.
कल रात दवा खाई थी. नींद आ रही थी मगर आँख नहीं लग रही थी. देर रात बिस्तर पे करवटें बदलता रहा और सोचता रहा कि कब स्वस्थ होऊंगा. सुबह पौने छः बजे आँख खुली. ज़बरन बिस्तर से उठा, एक मदहोशी सी छाई थी. अकस्मात गुड्डी दादी के साथ हुई दुर्घटना ने सारे आलस्य को काफूर कर दिया. वो घर की…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 18, 2013 at 11:21am — 7 Comments
हे प्रभु,
मैंने मन मंदिर में
आपकी मूर्ति की स्थापना तो कर दी है
मगर इसकी प्राण-प्रतिष्ठा का काम तो आपका ही है
क्योंकि मुझमें यह कला नहीं.
अब आप ही इसके देव, आप ही इसके पुजारी,
और आप ही इसके उपासक हैं.
मैं तो इक इमारत भर हूँ
जो जड़ता के स्पंदन के स्तर तक ही जीवित
और अस्तित्ववान है.
हे नाथ,
जब तक आप इसके मूल में प्राणाहूत हैं,
इस प्रस्तरशिला रूपी संरचना का कोई अर्थ है.
हे मालिक,
समय-समय…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 8, 2013 at 8:30am — 6 Comments
पीड़ा ने जब कभी
शब्दों के दंश बनकर तुम्हें डंसना चाहा
प्रेम ने स्मिति बनकर अधरों को बाँध लिया...
उपेक्षाओं ने जब कभी
तुम्हारे जीवनपर्यंत त्याग का प्रण लिया
स्मृतियों की अलकों के आलिंगन ने और भी जकड़ लिया...
भावनाओं के उद्रेकों ने जब कभी
भावुकता से काम लिया
तुम्हारी परिस्थितिजन्य उदासीनता ने
मेरे विवेक को थाम लिया.....
मेरे जीवन में न होकर भी होने वाली
ओ मेरी महानायिका!
हमारा…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 6, 2013 at 12:38pm — 2 Comments
वक़्त फिर बदल गया. कुछ नया तो नहीं, कुछ पुराना भी न रहा. ज़िंदगी खुद अपनी पैमाइश में छोटी होती गई. यादों के काफिले सच की राह को छोटा कर गए. मंजिल की धुन में मौजूदगी का ख़याल न रहा. मौजूदा में डूबे तो मंजिल को भूल गए. जो मिला उसमें मुहब्बत न देख पाए और जो न मिला, उसे मुहब्बत की लुटी दुनिया समझके रोते रहे. सच और परछाइयों की कशमकश में दोनों ही नुक्सानज़दा हुए क्योंकि सच परछाइयों का अक्स है और परछाइयां सच की रूमानियत- और ज़िंदगी दोनों के तवाज़ुन…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 6, 2013 at 10:18am — 2 Comments
दिल ने जब भी खुद को कुरेदा है, मेरे खून के इलावा नाखून से तेरा खून भी चिपका है. अजब है ये इत्तेफाक.... कि मुसर्रत (खुशी) का न सही तुझसे दर्द का तो रिश्ता है. शायद इसलिए ही कि दर्दज़दा हुए जब भी तो मुझे अपना दर्द गरां (भारी) लगा क्योंकि इसमें तेरे दर्द की भी न चाही गई आमेज़िश (मिश्रण) थी.
नाखून से चस्पां (चिपका) खून का इक ज़र्रा ये खबर दे गया कि तुम अभी कहाँ हो, किधर हो, किस हाल हो, तुम्हारे चेहरे का रंग ज़र्द है या सुर्ख, तुम्हारी नसों में दौड़ता खून अभी थका है या पुरजोश,…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on August 6, 2013 at 10:14am — 2 Comments
ओ मेरी नायिका
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मोहिनी अदाएं,
मारक निगाहें,
कामिनी काया...
गजगामिनी, ऐश्वर्या,
गर्विता, हंसिनी,
हिरणी, सुगंधिता,
रमणी, अलंकृता,
मंजरी, प्रगल्भा, ....
क्या क्या कहूं तुझे.
मेरे प्रेम भाव का अवलम्ब,
अपने सौन्दर्य और यौवन से
मुझमें रति भाव जगाने वाली,
और अपनी अनुपस्थिति में
नित प्रतिदिन के कामों से विमुख कर
अपनी ही स्मृतियों के कानन में
मुझे…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 31, 2013 at 3:32pm — No Comments
रात के ग्यारह बजे मैं और मेरे दोस्त रदीफ़ भाई भोपाल से दिल्ली एअरपोर्ट पहुंचे! रदीफ़ भाई को जो रोज़े पे थे कल सुबह ‘सहरी’ करनी थी सो लिहाज़ा हम पहाड़गंज के एक ऐसे होटल में रुके जहाँ सुबह के तीन बजे खाना मिल सके. होटल पहुंचते- पहुंचते रात के बारह से ज़्यादा बज गए. सामान कमरे में रख मैं नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की और चल पड़ा जो पास ही था- अपने कॉलेज के दिनों की कुछ यादों से गर्द झाड़ता हुआ. कुछ भी क्या बदला था- वही ढाबों की लम्बी कतार, जगह-जगह उलटे लटके तंदूरी चिकन की झालरें, तो कहीं शुद्ध…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 31, 2013 at 9:26am — 2 Comments
मणिपुर में बिताए दिन सपनों जैसे थे. एक रूमानी फ़साने की तरह जिसमें एक राजकुमार, एक राजकुमारी और पंख लगा कर उड़ने और उड़ाने को ढेर सारे ख्व़ाब थे. हक़ीकत जहां इक पहाड़ की तरह सीना तान कर खड़ी थी वहीं रूमानियत की रुपहली फंतासी नस-नस में नशा घोल रही थी. ज़िंदगी में हर चीज़ का इक मुअय्यन (तय) वक़्त होता है- मुहब्बत के दौर में अल्हड़ और अंजान बने बेफ़िक्र जीते रहे और फ़र्ज़ के दौर में दिल लगा के कई अपनों का दिल तोड़ दिया.
घुमावदार…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 18, 2013 at 4:00pm — No Comments
ज़िंदगी भी क्या मज़ाक़ है? माज़ी को अपने शानों (कांधों) से पीछे मुड़कर देखो, सब एक मज़ाक़ ही तो है. जवानी का जोशोखरोश, कमसिनी (कमउम्री) की नाज़ुकी, वफ़ा की दोशीज़गी (तरुणावस्था), लबेचश्म (आँखों के किनारे) हैरान मुहब्बत की मजबूरियां, पएविसाल (मिलन के लिए) माशूक का जज़्बाएइंतेशार (उलझन का भाव), किसी तनहा शाम के धुंधलके में लौटते कदमों की चीखती सी आहटें.....उससे मिलके घर लौटते सफ़र की कचोटती तनहाइयाँ, घर के गोशे गोशे में (कोने कोने में) दुबकी वीरानियाँ, दीवार पे लटकती तस्वीरों की तरह अपना लटका…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 18, 2013 at 4:00pm — No Comments
वो बिलकुल साफ़ ओ सफ्फाफ़ थी, टाटा साल्ट की तरह फ्री फ्लोइंग, एक एक दाने की तरह उसकी शख्सियत के रेज़े (कण) धुले धुले और चमकते से. मगर साथ साथ हालात-ओ-सिफात (स्थितियां और स्वभाव) की बंदिशें (बंधन) भी आयद (लागू) थीं और कुदरत (प्रकृति) ने हमारी निस्बतों की हदें (मिलने जुलने की सीमाएं) और मुबाहमात की मिकदार (संबंधों की मात्रा) तय कर दी थी. हम मिल तो सकते थे, मगर घुल मिल नहीं सकते थे...एक दूसरे को चाह और समझ तो सकते थे मगर एक दूसरे में शामिल नहीं हो सकते थे...वरना तमाम रिश्तों के ज़ायके बिगड़…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 18, 2013 at 1:00pm — 2 Comments
तुम्हारे साथ की सारी कोमल टहनियां!
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कोई परिंदा भी हो
कि खलिहानों में फसलें उगाई जाएँ,
कोई पखेरू भी हो
कि दीवारों पे पानी रखा जाए,
कोई भूला भटका राही भी हो
कि कोई राह निकाली जाए
कुछ शिकस्ता भी हो कि जो जोड़ा जाए,
कोई सरगिराँ भी हो कि जिसे मनाया जाए
कोई याद भी आता हो कि जिसे भूला जाए...
वीरान दयारों में वरना.....
क्या शहनाइयां क्या सिसकियाँ?…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 16, 2013 at 7:36pm — 2 Comments
गाँव की ज़िंदगी में एक सुकून सा क्या है? खाली, काली, सरपट दौड़ती सडकों की तनहाई और दोनों बगल खड़े मुख्तलिफ (विभिन्न) दरख्तों की खामोशी भी क्यूँ अच्छी लगती है? दूर खेतों और ढलानों में चर रहीं बकरियों और गायों को देख के ऐसा क्यूँ लगता है कि ये दुनिया की सबसे बेहतरीन आर्ट गैलरी है?....जीती, जागती, पल पल नक्शोरंग बदलती.
मंडला मध्यप्रदेश सूबे का मानों दिल हो- हरियाली और ताज़गी से भरा, कहीं पहाड़ियों के आँचल से ढका तो कहीं जंगलों के बेल बूटों से सज़ा. गाँव गाँव आदिम प्रजाति के…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 16, 2013 at 4:20pm — 6 Comments
मेरी मां मुझे रोज़ १० पैसे देती थी, स्कूल जाने के पहले. वही बहुत था मेरे लिए टिफ़िन में पाचक खरीद के खाने के लिए- एक पैसे के न जाने कितने हुआ करते थे, सफ़ेद अथवा पीले-सुनहरे रंग की पारदर्शी प्लास्टिक की पन्नी में, बच्चों की उँगलियों से भी बहुत पतले और सतर, ...लम्बे लिपटे हुए.
कुछ न सही तो कभी लेमनचूस की अंडाकार चपटी गोलियां ही सही.... संतरे के रस अथवा कालेनमक के स्वाद वाली नारंगी-बैंगनी गोलियां जिन्हें खा कर हमारी जीभ का रंग भी बदल जाता था और हम जीभ निकाल-निकाल के अपनी बहन…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 16, 2013 at 4:09pm — 2 Comments
जुलाई की एक सर्द और भीगी-भीगी सी शाम आस्ताने (चौखट) पे आके खड़ी थी अन्दर आने को, दिन के उजाले कब के जा चुके थे दरीचों के रास्ते, बस बादलों के पीछे जैसे उनके सायों ने कुछ देर के लिए शाम के वुजूद को नुमूदार (ज़ाहिर) कर रखने का एहसान किया हो. कूचों में बहती पानी की धारें नालियों में जाके गिर रही थीं, तो नालियों में बहते तेज़ चश्मे (झरने, पानी के रेले) की घरघराहट आने वाली सन्नाटगी का खमोशियों से ऐलान कर रही थी. कभी-कभार किसी शख्स के गुजरने की आवाज़ उसके भारी जूतों की चरमराहट से कानों से आके…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on July 16, 2013 at 4:05pm — No Comments
दिन ऐसे गुज़र जाते है जैसे हाथ से ताश के पत्ते. देखते देखते महोसालोदहाई सर्फ़ हो गए, कहाँ गए सब? ज़िंदगी में जो बीत गया, किधर चला चला गया? जो लोग अब नहीं हैं तकारुब में और जिनके मख्फी साये ही ज़हन में आते जाते हैं, वो कहाँ हैं अभी? ख्वाहिशों से भी मुलायम सपने जो कभी पूरे नहीं हुए, उदासियों सी भी तन्हा कोई राहगुज़र जो कभी मंजिल तक न पहुँच पाई, दिल की सोजिशों से भी रंजीदा इक नज़र जो झुक गई मायूसियों के बोझ तले- क्या हुआ उनका?
तुम्हारे गाँव का वो खाली खाली घर जहाँ बसी है आईने के…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on October 31, 2012 at 9:03am — 6 Comments
घरों में सीलिंग फैन्स की घड़घड़ाहट बंद सी होने लगी है और दिन सुबुकपा और रातें संगीन. मौसम ने करवट की इक गर्दिश पूरी की हो जैसे- धूप की शिद्दत खत्म होने लगी है और सुकून और मुलायमियत के झीने से सरपोश के उस तरफ साकित ओ मुतमईन, आयंदा और तबस्सुमफिशाँ कुद्रत के नए रूप का एहसास होने लगा है. घर की हर शै जैसे तपिश भरी दोपहरियों से सज़ायाफ्ता ज़िंदगी की नींद से बेदार होने लगी है और जल रहे लोबान के धुंए की तरह दूदेसुकूत फजाओं में फ़ैल रहा है. ये आमदेसरमा (जाड़े के मौसम के आगमन) के बेहद इब्तेदाई रोज़…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on October 26, 2012 at 12:30pm — 11 Comments
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