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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ६३

1222 1222 1222 1222

(मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़मीन पे लिखी ग़ज़ल)

जिन्हें भी टूट के चाहा वो पत्थर के सनम निकले
चलो अच्छा हुआ दिल से मुहब्बत के भरम निकले //1

उड़ें छीटें स्याही के, उठे पर्दा गुनाहों से
कभी तो तेग़ के बदले म्यानों से कलम निकले //2

हवा में ढूँढते थे पाँव अपने घर के रस्ते को
तेरी महफ़िल से आधी रात को पीकर जो हम निकले //3

तू मुझसे दूर होता जा रहा है दिन ब दिन चुपचाप
दुआ करता हूँ ये डर भी फ़क़त मेरा भरम निकले //4

तेरी ख़ू ए तग़ाफ़ुल ने मुझे भी सख़्त कर डाला
मेरी तुर्राबयानी में तेरे सब पेचोख़म निकले //5

लगी है आग शोलों के बिना पेट्रोल डीज़ल में
कि डॉलर के मुक़ाबिल हिन्द के रुपये भी कम निकले //6

मियाँ कश्मीर की वादी है ये, जन्नत गुनाहों की
यहाँ खेतों में फसलों की जगह बंदूक़-ओ-बम निकले //7

जो थे दारुल हिफाज़त बेसहारा औरतों के घर
वो सब अय्याश नेता के ठिकाने थे, हरम निकले //8

ये दुनिया देख ली हमने अज़ाबे ज़ीस्त में जलकर
पसे रहलत मिले जो भी ख़ुदारा वो इरम निकले //9

मेरे पावों से आ लिपटे कई दीगर मसाइल भी
कि सू ए यार की जानिब मेरे जब भी क़दम निकले // 10

हुए अजदाद की जागीर से बेदख्ल जो हम भी
कि ये अहसान भी अपनों के ही फ़ैज़ो करम निकले //11

रहो तैय्यार तुम हर पल मज़ा मरने का चखने को
न जाने किस घड़ी सीने से आख़िर कार दम निकले //12

न दे तू रिज़्क़ खाने को मगर ऐ मुफ़लिसी मेरी
पुराने ख़ुम से दो ही घूँट पीने को तो रम निकले //13

मज़ा आता नहीं है अब हमें सिगरेट पीने का
धुआँ बनकर जिगर से राज़ मेरे सारे ग़म निकले //14

~राज़ नवादवी
"मौलिक एवं अप्रकाशित"

(आवश्यक बदलाव के बाद एवं तीन नए अशआर के साथ) 

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Comment by राज़ नवादवी on October 28, 2018 at 11:40am

आदरणीय समर कबीर साहब, आदाब, आपके सुझावों के साथ तरमीम की हुई व दो नए अशआर के साथ पूरी ग़ज़ल, सादर. 

1222 1222 1222 1222

(मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़मीन पे लिखी ग़ज़ल)

जिन्हें भी टूट के चाहा वो पत्थर के सनम निकले
चलो अच्छा हुआ दिल से मुहब्बत के भरम निकले //1 

उड़ें छीटें स्याही के, उठे पर्दा गुनाहों से 
कभी तो तेग़ के बदले म्यानों से कलम निकले //2

हवा में ढूँढते थे पाँव अपने घर के रस्ते को
तेरी महफ़िल से आधी रात को पीकर जो हम निकले //3

तू मुझसे दूर होता जा रहा है दिन ब दिन चुपचाप
दुआ करता हूँ ये डर भी फ़क़त मेरा भरम निकले //4 

तेरी ख़ू ए तग़ाफ़ुल ने मुझे भी सख़्त कर डाला
मेरी तुर्राबयानी में तेरे सब पेचोख़म निकले //5

लगी है आग शोलों के बिना पेट्रोल डीज़ल में 
कि डॉलर के मुक़ाबिल हिन्द के रुपये भी कम निकले //6

मियाँ कश्मीर की वादी है ये, जन्नत गुनाहों की 
यहाँ खेतों में फसलों की जगह बंदूक़-ओ-बम निकले //7 

 

जो थे दारुल हिफाज़त बेसहारा औरतों के घर

वो सब अय्याश नेता के ठिकाने थे, हरम निकले //8

 

ये दुनिया देख ली हमने अज़ाबे ज़ीस्त में जलकर

पसे रहलत मिले जो भी ख़ुदारा वो इरम निकले //9


हुए अजदाद की जागीर से बेदख्ल जो हम भी 
कि ये अहसान भी अपनों के ही फ़ैज़ो करम निकले //10

रहो तैय्यार तुम हर पल मज़ा मरने का चखने को
न जाने किस घड़ी सीने से आख़िर कार दम निकले //11

न दे तू रिज़्क़ खाने को मगर ऐ मुफ़लिसी मेरी

पुराने ख़ुम से दो ही घूँट पीने को तो रम निकले //12

मज़ा आता नहीं है अब हमें सिगरेट पीने का 
धुआँ बनकर जिगर से राज़ मेरे सारे ग़म निकले //13  

 



~राज़ नवादवी

"मौलिक एवं अप्रकाशित"


Comment by राज़ नवादवी on October 28, 2018 at 11:34am

जनाब समर कबीर साहब, दो अशआर और जोड़ रहा हूँ, सादर:

जो थे दारुल हिफाज़त बेसहारा औरतों के घर

वो सब अय्याश नेता के ठिकाने थे, हरम निकले

 

ये दुनिया देख ली हमने अज़ाबे ज़ीस्त में जलकर

पसे रहलत मिले जो भी ख़ुदारा वो इरम निकले

Comment by राज़ नवादवी on October 28, 2018 at 9:29am

आदरणीय समर कबीर साहब, आदाब, ग़ज़ल में शिरकत और सुखन नवाज़ी का तहेदिल से शुक्रिया. आपकी इस्लाह का  भी ह्रदय से आभार. 

 

१. सच है कि शब्द वह्म है. ये शेर हटा देता हूँ.

 

२. सिलाह का बहुवचन अस्लिहा اسلحہ है, हिन्दी में अंत में विसर्ग : आयेगा जो इसके उच्चारण को दीर्घ बनाता है है. इस ऐतबार से अस्लिहा-ओ-बम होगा, मगर फिर भी शेर बेबेह्र हो जाता है, चुनांचे इस शेर को भी हटाता हूँ. 

 

३. बेदख्ल शब्द के बारे में मालूमात थी, मगर बेदख़ल के प्रयक्त किये जाने के बारे में अपने शुबहे को मिटाना चाहता था, आपके बताई तरकीब से मिसरे को बदलता हूँ. 

 

४.  'रहो तैय्यार तुम हर पल मज़ा ए मौत चखने को'---- इसे  'रहो तैय्यार तुम हर पल मज़ा मरने का चखने को' ऐसा कर देता हूँ. मगर इज़ाफ़त कहाँ लगती है कहाँ नहीं, इसे थोड़ा और विस्तार से बताएं तो और भी मुफ़ीद होगा.

 

५. ‘आख़िर कार’ हो सकता है ‘आख़िर बार’ क्यों नहीं, कृपया थोड़ा और समझाएं ताकि वजह भी समझ में आ सके. फ़िलहाल, इसे शेर को भी आपके बताये अनुसार बदलता हूँ. 

 

सादर  

Comment by राज़ नवादवी on October 28, 2018 at 8:48am

आदरणीय लक्ष्मण धामी साहब, आदाब, ग़ज़ल में शिरकत और सुखन नवाज़ी का तहेदिल से शुक्रिया. सादर 

Comment by राज़ नवादवी on October 28, 2018 at 8:48am

आदरणीय नीलेश नूर साहब, आदाब, ग़ज़ल में शिरकत और सुखन नवाज़ी का तहेदिल से शुक्रिया. सादर 

Comment by राज़ नवादवी on October 28, 2018 at 8:48am

आदरणीय ब्रिजेश कुमार साहब, आदाब, ग़ज़ल में शिरकत और सुखन नवाज़ी का तहेदिल से शुक्रिया. सादर 

Comment by राज़ नवादवी on October 28, 2018 at 8:47am

आदरणीय अजय तिवारी साहब, आदाब, ग़ज़ल में शिरकत और सुखन नवाज़ी का तहेदिल से शुक्रिया. सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 28, 2018 at 8:19am

आ. राज़ साहब,
अच्छे अशआर हुए   हैं... बाक़ी समर सर की टिप्पणी से मुझे  भी बहुत सीखने को मिला है 
सादर 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 27, 2018 at 9:18pm

आ. भाई राज नवादवी जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 27, 2018 at 8:08pm

वाह आदरणीय राज साहब बड़ी ही खूबसूरत ग़ज़ल हुई..

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