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Kalipad Prasad Mandal's Blog (54)

ग़ज़ल

काफिया : कर चल दिए  रदीफ़: आ

बहर : २२१२ २२१२ २२१२ २२१२

थी जान जब तक वो लडे  फिर जाँ लुटा कर चल दिये

इस देश की खातिर वे खुद को भी मिटा  कर चल दिये|

लड़ते गए सब वीरता से टैंकरों  के सामने

झुकने दिया  ना देश को खुद शिर कटा कर चले दिए |

परिवार को कर देश पर  कुर्बान खुद लड़ने गए

वो वीर थे  जो देश की इज्जत बचा कर चल दिये |

एकेक ने मारा कई को फिर शहीदों से मिले

अंतिम घडी  तक फर्ज अपना सब निभा कर चल दिए…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on September 26, 2016 at 10:34pm — No Comments

ग़ज़ल

बहर : २१२ २१२ २१२ २१२

पेट को चाहिए  खाद्य, नारा नहीं

पेट जितने से भर जाय, सारा नही |

भावना की कमी,  जाँचना चाहिए

भूखे  को चाहिए खाना,चारा नहीं | 

सारे रिश्ते बिगड़ते हैं, तकरार से  

शत्रुवत  और हो जाता  यारा नहीं |

बात है कर्ण प्रिय ,’आयगा अच्छा दिन”

अब किसी को भी यह, लगता प्यारा नहीं |

देख कर ठण्ड वातावरण क्या कहें

पी गए मय मधुर किन्तु प्यारा नहीं |

सिन्धु जल मेघ बन फिर बरसता…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on September 25, 2016 at 8:30am — 6 Comments

हिन्दी दिवस पर दो कुकुभ छंद एक ताटंक

कुकुभ छंद -२

देश की एकता, अखण्डता, सबकी वाहक है हिंदी

भाव, विचार, पूर्णता, संस्कृति, सभी का प्रतिरूप हिंदी |

आम जन की मधुर भाषा है, भारत को नई दिशा दी

है विदेश में भी यह अति प्रिय, लोग सिख रहे हैं हिंदी ||

सहज सरल है लिखना पढ़ना, सरल है हिन्द की बोली

संस्कृत तो माता है सबकी, बाकी इसकी हम जोली |

हिंदी में छुपी हुई मानो, आम लोग की अभिलाषा  

जोड़ी समाज की कड़ी कड़ी, हिंदी जन-जन की भाषा ||

ताटंक -१

देश की…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on September 14, 2016 at 3:57pm — 4 Comments

लोक तंत्र -दोहे

प्रजातंत्र के देश में, परिवारों का राज

वंशवाद की चौकड़ी, बन बैठे अधिराज |

वंशवाद की बेल अब, फैली सारा देश

परदेशी हम देश में, लगता है परदेश  |

लोकतंत्र को हर लिये, मिलकर नेता लोग

हर पद पर बैठा दिये, अपने अपने लोग |

हिला दिया बुनियाद को, आज़ादी के बाद

अंग्रेज भी किये नहीं,  तू सुन अंतर्नाद |

संविधान की आड़ में, करते भ्रष्टाचार

स्वार्थ हेतु नेता सभी, विसरे सब इकरार |

बना कर लोकतंत्र को,…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on September 13, 2016 at 7:30am — 27 Comments

ग़ज़ल

बहर २१२२ २१२२ २१२२ २१२

दोस्तों के वेश में देखो यहाँ दुश्मन मिले

चाह गुल की थी मगर बस खार के दंशन मिले |

यारों का अब क्या भरोसा, यारी के काबिल नहीं

जग में केवल रब ही है, जिन से ही सबके मन मिले|

गुन गुनाते थे कभी फूलों में भौरों की तरह

सुख कर गुल झड़ गए तो भाग्य में क्रंदन मिले  |

कोशिशें हों ऐसी हर इंसान का होवे भला

उद्यमी नेकी को शासक से भी अभिनन्दन मिले |

देश भक्तों ने है त्यागे प्राण औरों…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on September 10, 2016 at 7:30am — 5 Comments

ग़ज़ल

बहर : २ १ २ २  २ १ २ २   २ १  २  

 

आई जब तू जिन्दगी हँसने लगी

तू मेरे हर  सपने में रहने लगी |

धीरे धीरे तेरी चाहत बढ़ गई

देखा तू भी  प्रेम में झुकने लगी |

जिन्दगी का रंग परिवर्तन हुआ

प्रेम धारा जान में बहने लगी |

राह चलते हम गए मंजिल दिखा

फिर भी जीना जिन्दगी गिनने लगी |

देखिये शादी के इस बाज़ार में

हाट में दुल्हन यहाँ  बिकने लगी |

शमअ बिन तो तम…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on September 7, 2016 at 7:30am — 8 Comments

ग़ज़ल

१ २ २ / १ २ २ / १ २ २ /१ २

याँ कुछ लोग जीते भलों के लिए

जिओ जिंदगी दूसरों के लिए |

गुणों की नहीं माँग दुख वास्ते 

सकल गुण जरुरी सुखों के लिए |

मैं गर मुस्कुराऊं, तू मुँह मोड़ ले

शिखर क्यूँ चढूं पर्वतों के लिए ? 

मैं किस किस की बातें सुनाऊं यहाँ

जले शमअ कोई शमो के लिए  |

मकाँ और दुकाने जो भी हैं यहाँ

जवाँ केलिए ना बड़ों के लिए |

मौलिक…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on August 24, 2016 at 8:30pm — 5 Comments

कुकुभ -छन्द -२

कुकुभ छंद -२

जीवन में दुःख के लिए तो, गुण जरुरी नहीं होता

हमेशा दुख है घुसपैटिया, अनाहूत पाहुन होता |

योग्यता, प्रतिभा जरूरी है, गर दिल में सुख की इच्छा

चढ़ता वही पर्वत शिखर पर, जिसमे है सशक्त स्वेच्छा |

 

प्रकृति कब कुपित हो लोगों से, कोई नहीं कभी जाने

करते गलती मानव जग में, कभी भूल से अनजाने |

जल प्रलय में डूबे हजारों, मकान थे नदी किनारे

ज़खमी न जाने जितने हुए, कितने अल्ला को प्यारे |

 

मौलिक एवं…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on August 23, 2016 at 10:19am — 5 Comments

दोहे {सावन}

भारत में हर मास में, होता इक त्यौहार

केवल सावन मास है, पर्वों से भरमार |1|

 

रस्सी बांधे साख में,  झूला झूले नार

रिमझिम रिमझिम वृष्टि में, है आनन्द अपार |२|

 

जितने हैं गहने सभी, पहन कर अलंकार

साथ हरी सब चूड़ियाँ, बहू करे श्रृंगार |३|

 

काजल बिन्दी साड़ियाँ, माथे का सिन्दूर

और देश में ये नहीं, सब हैं इन से दूर |४|

 

कभी तेज धीरे कभी, कभी मूसलाधार

सावन में लगती झड़ी, घर द्वार अन्धकार…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on August 6, 2016 at 8:00am — 4 Comments

दोहे !

अन्तर कितना हो गया, कौमें नहीं करीब

पहला छोर अमीर तो, अन्तिम छोर गरीब |६|

  

शुद्ध भाव से सीखते, कपटीपन का पाठ

बिना भ्रष्ट आचार के.नहीं राजसी ठाठ   |७|

जनता हित के नाम से, नेता करते काम

पेटी भरते स्वयं की, ले भारत का नाम |८|

  

काला धन सोने  नहीं, देता सुख  की नींद 

कर भरकर ईमान से, हँसो मनाओ ईद |९|

   

रख कर 'काली' सम्पदा, किया भ्रष्ट ईमान

सब जनता मानते  उन्हें,,कलियुग का भगवान्…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on July 27, 2016 at 6:00am — 5 Comments

दोहे

दोहे !

डायन महँगाई  करे, पिया को परेशान

काट छाँट हर चीज़ में, कम हुआ खान -पान

खमा बहादुर ही करे, कायर का क्या काम

क्रोध घृणा की भावना, खुद को करे तमाम |

   

रस्सी खोलो मोह की, फिर देखो  संसार   

भौतिक धन दौलत सभी, दुनियाँ निरा असार |

चिंता छोड़ जहान की, चिन्तन कर भगवान

चिन्ता मन का रोग है, चिन्ता चिता समान

ज्योत जलाकर  ज्ञान की, रोशन कर तू राह 

राह नहीं चलना सरल, आँधार है अथाह…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on July 25, 2016 at 5:00pm — 6 Comments

दोहे!

ईमान पर न टंगती, आज देश की नीति

बे-ईमानी हो गई, हर पार्टी की रीति  |1|

भूल हुई है आम से, जनता अब पछताय    

बाहर पहुंच  दाल है, भात नमक से खाय |२|   

टूट गये  सब वायदे, समय हुआ प्रतिकूल

अब चुनाव ही हारकर, वो समझेगा भूल |३|

शुभदिन अब कब आयगा, हुए भले दिन दूर

महँगाई को झेलने, जनता है मजबूर |४|

देखा समतावाद को,  है स्वांग अर्थ हीन

धनियों की यह मंडली,  दूर है  दीन हीन |५|

मौलिक…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on July 21, 2016 at 9:30am — 5 Comments

ग़ज़ल

२१२२        २१२२     २१२२       २२

जिंदगी क्या है ज़रा नज़रे उठा कर  देखो

अश्क बारी  बंद कर चश्में सुखा कर  देखो |

जिंदगी भर  लालसा के पीछे भागे तुम क्यूँ    

शांति से तुम सोचकर कारण पता कर देखो |

मुफलिसी को तुम भी हंसी  में चिढ़ाया होगा

मुफलिसों को कुछ कभी तो तुम खिला कर देखो |

चश्मा पहने हो जो उसको  साफ़ करना  होगा

शान शौकत  धन के ऐनक को हटा कर  देखो |

मानुषिकता में नहीं कोई बड़ा या…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on July 17, 2016 at 7:30am — No Comments

ग़ज़ल

बह्र: २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

रदीफ़: चाहता हूँ , काफिया : ना (अना )

 

दिल के धड़कनों को कम करना चाहता हूँ

आज घटित घटना को विसरना चाहता हूँ |

जीवन में घटी है कुछ घटनाएँ ऐसी

सूखे घावों को नहीं कुतरना चाहता हूँ |…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on June 22, 2016 at 7:30am — 4 Comments

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