For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

Sushil Sarna's Blog (886)

इक शाम दे दो ..

इक शाम दे दो ...

तन्हाई के आलम में

न जाने कौन

मेरे अफ़सुर्दा से लम्हों को

अपनी यादों की आंच से

रोशन कर जाता है

लम्हों के कारवाँ

तेरी यादों की तपिश से

लावा बन

आँखों से पिघलने लगते हैं

किसी के लम्स

मेरी रूह को

झिंझोड़ देते हैं

अँधेरे

जुगनुओं के लिए

रस्ते छोड़ देते हैं

तुम अरसे से

मेरे ज़ह्न में पोशीदा

इक ख़्वाब हो

मेरे सुलगते जज़्बात का

जवाब हो

अब सिवा तेरी आहटों के…

Continue

Added by Sushil Sarna on December 25, 2017 at 6:30pm — 6 Comments

कड़वाहट ....

कड़वाहट ....

जाने कैसे

मैंने जीवन की

सारी कड़वाहट पी ली

धूप की

तपती नदी पी ली

मुस्कुराहटों के पैबन्दों से झांकती

जिस्मों की नंगी सच्चाई पी ली

उल्फ़त की ढलानों पर

नमक के दरिया की

हर बूँद पी ली

रात की सिसकन पी ली

चाँद की उलझन पी ली

ख़्वाबों की कतरन पी ली

आगोश के लम्हों की

हर फिसलन पी ली

जानते हो

क्यूँ

शा.... य... द

मैं

तू.... म्हा ... रे

इ.... .श्......क

की…

Continue

Added by Sushil Sarna on December 17, 2017 at 8:30pm — 6 Comments

आग ..

आग ..

सहमी सहमी सांसें

बेआवाज़ आहटें

खामोशियों के लिबास में लिपटे

कुछ अनकहे शब्द

पल पल सिमटती ज़िदंगी

जवाबों को तरसते

बेहिसाब सवाल

शायद

यही सब था

इस हयाते सफ़र का अंजाम

लम्हे ज़िदंगी से अदावत कर बैठे

ख़्वाब

आग के साथ सुलगने लगे

अभी तो जीने की आग भी

न बुझ पायी थी

कि मौत की फसल

लहलहाने लगी

इक हुजूम था

मेरे शेष को

अवशेष में बदलने के लिए

नाज़ था जिस वज़ूद पर

वो ख़ाक हो जाएगा

आग के…

Continue

Added by Sushil Sarna on December 15, 2017 at 4:35pm — 8 Comments

जीने के लिए ...

जीने के लिए ...

जाने

कितनी दुश्वारियों को झेलती

ज़िंदगी

रेंगती हसरतों के साथ

खुद भी

रेंगने लगती है

हर कदम

जीने के लिए

ज़ह्र पीती है

हर लम्हा

चिथड़े -चिथड़े होते

आरज़ूओं के

पैबंद सीती है

जाने कब

वक़्त

ज़िंदगी की पेशानी पर

बिना तारीख़ के अंत की

एक तख़्ती

लगा जाता है

उस तख़्ती के साथ

ज़िंदगी रोज

मरने के लिए

जीती है

और

जीने के लिए

मरती है

सुशील सरना…

Continue

Added by Sushil Sarna on December 6, 2017 at 1:25pm — 9 Comments

अचंभित हूँ ....

अचंभित हूँ ....

अचंभित हूँ

इस गहन तिमिर में भी

तुमने श्वासों के

आरोह-अवरोह को

महसूस कर लिया

अचंभित हूँ

तुमने कैसे मेरे

अबोले तिमित स्वरों को

पहचान लिया

और चुपके से

मेरे अंतर्भावों का

अपने नयन स्वरों से

शृंगार कर दिया

अचंभित हूँ

तुम कैसे मुझसे मिलने

हृदय की गहन कंदराओं में

मेरे अस्तित्व की प्रेमानुभूतियों से

अभिसार करने आ गए

मैं तो कब से

अस्तित्वहीन हो गयी थी…

Continue

Added by Sushil Sarna on December 6, 2017 at 1:00pm — 10 Comments

तेरे-मेरे दोहे - (२)

तेरे-मेरे दोहे - (२)

नर समझाये नार को, नार करे तकरार,

रार-रार में खो गया ,मधुर पलों का प्यार।१ ।

बिन तेरे पूनम सखा , लगे अमावस रात ,

प्रणय प्रतीक्षा दे गयी ,अश्कों की सौग़ात।२।

तेरी मीठी याद है ,इक मीठा अहसास,

रास न आये श्वास को, जीवन का मधुमास।३ ।

अवगुंठन में देह की ,स्पंदन हुए उदास,

दृगजल बन बहने लगी , अंतर्मन की प्यास।४ ।

मौन भाव को मिल गए ,स्पर्श मधुर आयाम ,

पलक नगर को दे गए, स्वप्न अमर…

Continue

Added by Sushil Sarna on December 4, 2017 at 5:30pm — 10 Comments

अबोले स्वर

अबोले स्वर ...

कुछ शब्दों को

मौन रहने दो

मौन को भी तो

कुछ कहने दो

कोशिश करके देखना

एकांत पलों में

मौन तुम्हारे कानों में

वो कह जाएगा

जो तुम कह न सके

वो धड़कनों की उलझनें

वो अधरों की सलवटों में छुपी

मिलन के अनुरोध की याचना

वो अंधेरों में

जलती दीपक की लौ में

इकरार से शरमाना

बताओ भला

कैसे शब्दों से व्यक्त कर पाओगी

हाँ मगर

मौन रह कर

तुम सब कह जाओगी

चुप रह कर भी

अपनी साँसों से…

Continue

Added by Sushil Sarna on November 27, 2017 at 8:25pm — 6 Comments

तेरे मेरे दोहे :

तेरे मेरे दोहे :

पथ को दोष न दीजिये , पथ के रंग हज़ार

प्रीत कभी पनपे यहां ,कभी विरह शृंगार!!१!!

दर्पण झूठ न बोलता ,वो बोले हर बार

पिया नहीं हैं पास तो, काहे करे सिँगार!!२!!

शर्म  न आए चूड़ियाँ ,शोर करें घनघोर

राज रात के कह गई, पुष्प गंध हर ओर!!३!!

जर्ज़र तन ने देखिये, ये पायी सौग़ात

निर्झर नैनों से गिरे,दर्द भरी बरसात!! ४!!

बन कर लहरों पर रहें, श्वास श्वास इक जान।

मिट कर भी संसार में ,हो अपनी…

Continue

Added by Sushil Sarna on November 24, 2017 at 5:00pm — 8 Comments

अजल की हो जाती है....

अजल की हो जाती है....



ज़िंदगी

साँसों के महीन रेशों से

गुंथी हुई

बिना सिरों वाली

एक रस्सी ही तो है

जिसकी उत्पत्ति भी अंधेरों से

और विलय भी अंधेरों में होता है



ज़िंदगी

लम्हों के पायदानों पर

आबगीनों सी ख़्वाहिशों को

छूने के लिए

सांस दर सांस

चढ़ती जाती है

मौसम

अपने ज़िस्म के

इक इक लिबास को उतारते

ज़िंदगी को

हकीकत के आफ़ताब की

तपिश से रूबरू करवाने की

हर मुमकिन कोशिश करते हैं

मगर अफ़सोस…

Continue

Added by Sushil Sarna on November 22, 2017 at 12:00pm — 12 Comments

बंद किताब ...

बंद किताब ...

ठहरो न !

थोड़ी देर तो रुक जाओ

अभी तो रात की स्याही बाकी है

सहर की दस्तक से घबराते हो

प्यार करते हो

और शरमाते हो

कभी नारी मन के

सागर में उतर के देखो

न जाने कितने गोहर

सीपों में

किसी के लम्स के मुंतज़िर हैं

देहाकर्षण के परे भी

एक आकर्षण होता है

जहां भौतिक सुख के बाद का

एक दर्पण होता है

नशवरता से परे

अनंत में समाहित

अमर समर्पण होता है

पर रहने दो

तुम ये…

Continue

Added by Sushil Sarna on November 20, 2017 at 1:30pm — 14 Comments

मधुर दोहे :

मधुर दोहे :

मन के मधुबन में मिले, मन भ्र्मर कई बार।
मूक नयन रचते रहे, स्पंदन का संसार।।

थोड़ा सा इंकार था थोड़ा सा इकरार।
सघन तिमिर में हो गयी , प्रणय सुधा साकार।।

बाहुपाश से देह के, टूटे सब अनुबंध।
स्वप्न सेज महका गयी ,मधुर बंध की गंध।।


सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on November 15, 2017 at 9:22pm — 12 Comments

३००वीं कृति .... श्रृंगार दोहे ...

३००वीं कृति .... श्रृंगार दोहे ...

मन चाहे करती रहूँ , दर्पण में शृंगार।
जब से अधरों को मिला, अधरों का उपहार।1।

अब सावन बैरी लगे, बैरी सब संसार।
जब से कोई रख गया, अधरों पे अंगार।2।

नैंनों की होने लगी , नैनों से ही रार।
नैन द्वन्द में नैन ही, गए नैन से हार।3।

जीत न चाहूँ प्रीत में , मैं बस चाहूँ हार।
'दे दे मेरी देह को', स्पर्शों का शृंगार।4।

सुशील सरना

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on November 13, 2017 at 8:00pm — 14 Comments

पीला माहताब ...

पीला माहताब ...

ठहरो न !

बस

इक लम्हा

रुक जाओ

मेरे शानों पे

जरा झुक जाओ

मेरे अहसासों की गठरी को

जरा खोलकर देखो

जज्बातों के ज़जीरों पे

हम दोनों की सांसें

किस क़दर

इक दूसरे में समाई हैं

मेरे नाज़ार जिस्म के

हर मोड़ पर

तुम्हारी पोरों के लम्स

मुझे

तुम्हारे और करीब ले आते हैं

थमती साँसों में भी

मैं तुम्हारी नज़रों की नमी से

नम हुई जाती हूँ

देखो

वो अर्श के माहताब को

हिज़्र…

Continue

Added by Sushil Sarna on November 11, 2017 at 8:33pm — 10 Comments

गुस्ताखियाँ....

गुस्ताखियाँ....

शानों पे लिख गया कोई इबारत वो रात की। 
...महकती रही हिज़ाब में शरारत वो रात की। 
......करते रहे वो जिस्म से गुस्ताखियाँ रात भर -
..........फिर ढह गयी आगोश में इमारत वो रात की।

सुशील सरना

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on November 7, 2017 at 8:22pm — 10 Comments

उनकी यादों की ....

उनकी यादों की ....

ये

कैसे उजाले हैं

रात

कब की गुजर चुकी

दूर तलक

आँखों की

स्याही बिखेरते

तूफ़ां से भरे

आरिज़ों पर ठहरे

ये

कैसे नाले हैं

शब् के समर

आँखों में ठहरे हैं

लबों की कफ़स में

कसमसाते

संग तुम्हारे जज़्बातों के

लिपटे

कुछ अल्फ़ाज़

हमारे हैं

हर शिकन

चादर की

करवटों की ज़ुबानी है

जुदा होकर भी

अब तलक

ज़िंदा हैं हम

ख़ुदा कसम

ये…

Continue

Added by Sushil Sarna on November 4, 2017 at 8:30pm — 10 Comments

मात-पिता पर स्वतंत्र दोहे :

मात-पिता पर स्वतंत्र दोहे :

मात-पिता का जो करें, सच्चे मन से मान। 

उनके जीवन का करें , ईश सदा उत्थान !!1!!

जीवन में मिलती नहीं ,मात-पिता सी छाँव। 

सुधा समझ पी लीजिये , धो कर उनके पाँव!!2!!

मात-पिता का प्यार तो,होता है अनमोल। 

उनकी ममता का कभी, नहीं लगाना मोल !!3!!

बच्चों में बसते  सदा, मात पिता के प्राण। 

बिन उनके आशीष के, कभी न हो कल्याण!!4!!

सुशील…

Continue

Added by Sushil Sarna on November 2, 2017 at 12:30pm — 11 Comments

मुझे संसार में आने दो .....

मुझे संसार में आने दो .....

ठहरो !

पहले मैं अपनी बेनामी को नाम दे दूँ

गर्भ के रिश्ते को

दुनियावी अंजाम दे दूँ

जानती हूँ

जब

तुम मुझे जान जाओगे

बिना समय नष्ट किये

मुझे गर्भ से ही

कहीं दूर ले जाओगे

कूड़ेदान

कंटीली झाड़ियों

या फिर किसी नदी,कुऍं में

या किसी बड़े से पत्थर के नीचे

दूर रेगिस्तान में

फेंक आओगे

जहां से तुम्हें

मेरी चीख भी सुनायी न देगी

इसके बाद

तुम चैन की नींद सो…

Continue

Added by Sushil Sarna on October 30, 2017 at 6:49pm — 6 Comments

जुलाहा ....

जुलाहा ....

मैं
एक जुलाहा बन
साँसों के धागों से
सपनों को बुनता रहा
मगर

मेरी चादर
किसी के स्वप्न की
ओढ़नी न बन सकी
जीवन का कैनवास
अभिशप्त सा  बीत गया
पथ की गर्द में
निज अस्तित्व
विलीन हुआ
श्वासों का सफर
महीन हुआ
मैं जुलाहा
फिर भी
सपनों की चादर
बुनता रहा

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 30, 2017 at 12:30pm — 10 Comments

सुख की एक लाश ...

सुख की एक लाश ...

एक अंतराल के बाद

विस्मृति भंग हुई

तो चेतना

सूनी आँखों से

उबलते लावों में

परिवर्तित हो

बह निकली

व्याकुलता के कुंड में

प्रश्नों की ज्वाला में तप्ती

असंख्य अभिलाषाओं को समेटे

जीवन के अंतिम क्षितिज पर

ज़िंदा थी

एक लाश

सुख की



छिल गए

भरे हुए

घाव सभी

जब स्मृति जल ने

अपने खारेपन से

उनपर नमक छोड़ दिया

जलती रही देर तक

मात हो चुकी बाज़ी की

अवचेतन में सोयी…

Continue

Added by Sushil Sarna on October 23, 2017 at 8:16pm — 10 Comments

अमर ...

अमर ...

प्रश्न 

कभी मृत नहीं होते
उत्तर
सदा अमृत नहीं होते
कामनाएं
दास बना देती हैं
उत्कण्ठाएं
प्यास बढ़ा देती हैं
शशांक
विभावरी का दास है
शलभ
अमर लौ अनुराग है
दृष्टि
दृश्य की प्यासी है
तृषा
मादक मकरंद की दासी है
भाव
निष्पंद श्वास है
अंत
अनंत का विशवास है
स्मृति
कालजयी कल है
अमर
प्रीत का हर पल है

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 5, 2017 at 6:07pm — 14 Comments

Monthly Archives

2025

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174 in the group चित्र से काव्य तक
"जय-जय "
3 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174 in the group चित्र से काव्य तक
"आपकी रचना का संशोधित स्वरूप सुगढ़ है, आदरणीय अखिलेश भाईजी.  अलबत्ता, घुस पैठ किये फिर बस…"
3 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अशोक भाईजी, आपकी प्रस्तुतियों से आयोजन के चित्रों का मर्म तार्किक रूप से उभर आता…"
3 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174 in the group चित्र से काव्य तक
"//न के स्थान पर ना के प्रयोग त्याग दें तो बेहतर होगा//  आदरणीय अशोक भाईजी, यह एक ऐसा तर्क है…"
4 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय जयहिंद रायपुरी जी, आपकी रचना का स्वागत है.  आपकी रचना की पंक्तियों पर आदरणीय अशोक…"
4 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, आपकी प्रस्तुति का स्वागत है. प्रवास पर हूँ, अतः आपकी रचना पर आने में विलम्ब…"
4 hours ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174 in the group चित्र से काव्य तक
"सरसी छंद    [ संशोधित  रचना ] +++++++++ रोहिंग्या औ बांग्ला देशी, बदल रहे…"
4 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई अशोक जी सादर अभिवादन। चित्रानुरूप सुंदर छंद हुए हैं हार्दिक बधाई।"
5 hours ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय लक्ष्मण भाईजी  रचना को समय देने और प्रशंसा के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद आभार ।"
5 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई अखिलेश जी, सादर अभिवादन। चित्रानुसार सुंदर छंद हुए हैं और चुनाव के साथ घुसपैठ की समस्या पर…"
6 hours ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अशोक भाईजी चुनाव का अवसर है और बूथ के सामने कतार लगी है मानकर आपने सुंदर रचना की…"
7 hours ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 174 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अशोक भाईजी हार्दिक धन्यवाद , छंद की प्रशंसा और सुझाव के लिए। वाक्य विन्यास और गेयता की…"
8 hours ago

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service