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धर्मेन्द्र कुमार सिंह's Blog (230)

तेरा हाथ हिलाना (नवगीत)

ट्रेन समय की 

छुकछुक दौड़ी

मज़बूरी थी जाना

भूल गया सब

याद रहा बस 

तेरा हाथ हिलाना

तेरे हाथों की मेंहदी में

मेरा नाम नहीं…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 31, 2019 at 8:07pm — 11 Comments

ऐसी ही रहना तुम (नवगीत)

जैसी हो

अच्छी हो

ऐसी ही रहना तुम

कांटो की बगिया में

तितली सी उड़ जाना

रस्ते में पत्थर हो

नदिया सी मुड़ जाना

भँवरों की…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 19, 2019 at 10:42am — 2 Comments

जाते हो बाजार पिया (नवगीत)

जाते हो बाजार पिया तो 

दलिया ले आना

आलू, प्याज, टमाटर 

थोड़ी धनिया ले आना

आग लगी है सब्जी में 

फिर भी किसान भूखा

बेच दलालों को सब 

खुद…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 10, 2019 at 10:05pm — 11 Comments

अख़बारों की बातें छोड़ो कोई ग़ज़ल कहो (ग़ज़ल)

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

अख़बारों की बातें छोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

ख़ुद को थोड़ा और निचोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

वक़्त चुनावों का है, उमड़ा नफ़रत का दर्या

बाँध प्रेम का फौरन जोड़ो कोई ग़ज़ल कहो

हम सबके भीतर सोई जो मानवता…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 7, 2018 at 10:48pm — 6 Comments

लोकतंत्र (लघुकथा)

एक गाँव में कुछ लोग ऐसे थे जो देख नहीं पाते थे, कुछ ऐसे थे जो सुन नहीं पाते थे, कुछ ऐसे थे जो बोल नहीं पाते थे और कुछ ऐसे भी थे जो चल नहीं पाते थे। उस गाँव में केवल एक ऐसा आदमी था जो देखने, सुनने, बोलने के अलावा दौड़ भी लेता था। एक दिन ग्रामवासियों ने अपना नेता चुनने का निर्णय लिया। ऐसा नेता जो उनकी समस्याओं को जिलाधिकारी तक सही ढंग से पहुँचा कर उनका समाधान करवा सके।

जब चुनाव हुआ तो अंधों ने अंधे को, बहरों ने बहरे को, गूँगों ने गूँगे को और लँगड़ों ने एक लँगड़े को वोट दिया। जो…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 4, 2018 at 9:11pm — 14 Comments

कविता : शून्य बटा शून्य

उसने कहा 2=3 होता है

 

मैंने कहा आप बिल्कुल गलत कह रहे हैं

 

उसने लिखा 20-20=30-30

फिर लिखा 2(10-10)=3(10-10)

फिर लिखा 2=3(10-10)/(10-10)

फिर लिखा 2=3

 

मैंने कहा शून्य बटा शून्य अपरिभाषित है

आपने शून्य बटा शून्य को एक मान लिया है

 

उसने कहा ईश्वर भी अपरिभाषित है

मगर उसे भी एक माना जाता है

 

मैंने कहा इस तरह तो आप हर वह बात सिद्ध कर देंगे

जो आपके फायदे की है

 

उसने…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 1, 2018 at 8:45pm — 6 Comments

ग़ज़ल : बरसेगा तेज़ाब एक दिन बादल से

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २

आह निकलती है यह कटते पीपल से

बरसेगा तेज़ाब एक दिन बादल से

 

माँगे उनसे रोज़गार कैसे कोई

भरा हुआ मुँह सबका सस्ते चावल से

 

क़ै हो जाएगी इसके नाज़ुक तन पर

कैसे बनता है गर जाना मखमल से

 

गाँव, गली, घर साफ नहीं रक्खोगे गर

ख़ून चुसाना होगा मच्छर, खटमल से

 

थे चुनाव पहले के वादे जुम्ले यदि

तब तो सत्ता पाई है तुमने छल से

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 10, 2017 at 2:38pm — 5 Comments

बिना तुम्हारे, हे मेरी तुम, सब आधा है (नवगीत)

बिना तुम्हारे

हे मेरी तुम

सब आधा है

 

सूरज आधा, चाँद अधूरा

आधे हैं ग्रह सारे

दिन हैं आधे, रातें आधी

आधे हैं सब तारे

 

जीवन आधा

दुनिया आधी

रब आधा है

 

आधा नगर, डगर है आधी

आधे हैं घर, आँगन

कलम अधूरी, आधा काग़ज़

आधा मेरा तन-मन

 

भाव अधूरे

कविता का

मतलब आधा है

 

फागुन आधा, मधुऋतु आधी

आया आधा सावन

आधी साँसें, आधा है दिल

आधी है…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 9, 2017 at 9:39am — 10 Comments

कथा लिखो (लघुकथा)

महाबुद्ध से शिष्य ने पूछा, “भगवन! समाज में असत्य का रोग फैलता ही जा रहा है। अब तो इसने बच्चों को भी अपनी गिरफ्त में लेना शुरू कर दिया है। आप सत्य की दवा से इसे ठीक क्यों नहीं कर देते?”

महाबुद्ध ने शिष्य को एक गोली दी और कहा, “शीघ्र एवं सम्पूर्ण असर के लिये इसे चबा-चबाकर खाओ, महाबुद्धि।”

महाबुद्धि ने गोली अपने मुँह में रखी और चबाने लगा। कुछ ही क्षण बाद उसे जोर की उबकाई आई और वो उल्टी करने लगा। गोली के साथ साथ उसका खाया पिया भी बाहर आ गया। वो बोला, “प्रभो ये गोली…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 5, 2017 at 10:30am — 16 Comments

ये दुनिया है भूलभुलैया (नवगीत)

ये दुनिया है भूलभुलैया

रची भेड़ियों ने

भेड़ों की खातिर

 

पढ़े लिखे चालाक भेड़िये

गाइड बने हुए हैं इसके

ओढ़ भेड़ की खाल

जिन भेड़ों की स्मृति अच्छी है

उन सबको बागी घोषित कर

रंग दिया है लाल

 

फिर भी कोई राह न पाये

इस डर के मारे

छोड़ रखे मुखबिर

 

भेड़ समझती अपने तन पर

खून पसीने से खेती कर

उगा रही जो ऊन

जब तक राह नहीं मिल जाती

उसे बेचकर अपना चारा

लायेगी दो…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 10, 2017 at 8:13pm — 6 Comments

जो करा रहा है पूजा बस उसी का फ़ायदा है (ग़ज़ल)

बह्र : ११२१ २१२२ ११२१ २१२२

 

जो करा रहा है पूजा बस उसी का फ़ायदा है

न यहाँ तेरा भला है न वहाँ तेरा भला है

 

अभी तक तो आइना सब को दिखा रहा था सच ही

लगा अंडबंड बकने ये स्वयं से जब मिला है

 

न कोई पहुँच सका है किसी एक राह पर चल

वही सच तलक है पहुँचा जो सभी पे चल सका है

 

इसी भोर में परीक्षा मेरी ज़िंदगी की होगी

सो सनम ये जिस्म तेरा मैंने रात भर पढ़ा है

 

यदि ब्लैकहोल को हम न गिनें तो इस जगत…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 1, 2017 at 8:19pm — 15 Comments

ग़ज़ल : दिल ये करता है के अब साँप ही पाला जाए

बह्र : 2122 1122 1122 22

 

दिल के जख्मों को चलो ऐसे सम्हाला जाए

इसकी आहों से कोई शे’र निकाला जाए

 

अब तो ये बात भी संसद ही बताएगी हमें

कौन मस्जिद को चले कौन शिवाला जाए

 

आजकल हाल बुजुर्गों का हुआ है ऐसा

दिल ये करता है के अब साँप ही पाला जाए

 

दिल दिवाना है दिवाने की हर इक बात का फिर

क्यूँ जरूरी है कोई अर्थ निकाला जाए

 

दाल पॉलिश की मिली है तो पकाने के लिए

यही लाजिम है इसे और उबाला…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 21, 2016 at 9:17pm — 2 Comments

ख़ुदा की खोज में निकले जो, राम तक पहुँचे (ग़ज़ल)

बह्र : 1212 1122 1212 22

 

प्रगति की होड़ न ऐसे मकाम तक पहुँचे

ज़रा सी बात जहाँ कत्ल-ए-आम तक पहुँचे

 

गया है छूट कहीं कुछ तो मानचित्रों में

चले तो पाक थे लेकिन हराम तक पहुँचे

 

वो जिन का क्लेम था उनको है प्रेम रोग लगा

गले के दर्द से केवल जुकाम तक पहुँचे

 

न इतना वाम था उनमें के जंगलों तक जायँ

नगर से ऊब के भागे तो ग्राम तक पहुँचे

 

जिन्हें था आँखों से ज़्यादा यकीन कानों पर

चले वो भक्त से…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 12, 2016 at 11:28pm — 13 Comments

ग़ज़ल : उस्तरा हमने दिया है बंदरों के हाथ में

बह्र : 2122 2122 2122 212

 

आदमी की ज़िन्दगी है दफ़्तरों के हाथ में

और दफ़्तर जा फँसे हैं अजगरों के हाथ में

 

आइना जब से लगा है पत्थरों के हाथ में

प्रश्न सारे खेलते हैं उत्तरों के हाथ में

 

जोड़ लूँ रिश्तों के धागे रब मुझे भी बख़्श दे

वो कला तूने जो दी है बुनकरों के हाथ में

 

छोड़िये कपड़े, बदन पर बच न पायेगी त्वचा

उस्तरा हमने दिया है बंदरों के हाथ में

 

ख़ून पीना है ज़रूरत मैं तो ये भी मान लूँ

पर…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 2, 2016 at 10:23am — 16 Comments

हम उनके बिना भी हुए कब अकेले (ग़ज़ल)

बह्र :  १२२ १२२ १२२ १२२

 

सनम छोड़ जाते हैं यादों के मेले

हम उनके बिना भी रहे कब अकेले

 

मैं समझाऊँ कैसे ये चारागरों को

उन्हें छू के हो जाते मीठे करेले

 

रहे यूँ ही नफ़रत गिराती नये बम

न कम कर सकेगी मुहब्बत के रेले

 

मैं कितना भी कह लूँ ये नाज़ुक बड़ा है

सनम बेरहम दिल से खेले तो खेले

 

इन्हें दे नये अर्थ नन्हीं शरारत

वगरना निरर्थक हैं जग के झमेले

-------------

(मौलिक एवं…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 27, 2016 at 6:30pm — 12 Comments

उतर जाए अगर झूठी त्वचा तो (ग़ज़ल)

बह्र : १२२२ १२२२ १२२

 

उतर जाए अगर झूठी त्वचा तो।

सभी हैं एक से साबित हुआ, तो।

 

शरीअत में हुई झूठी कथा, तो।

न मर कर भी दिखा मुझको ख़ुदा, तो।

 

वो दोहों को ही दुनिया मानता है,

कहा गर जिंदगी ने सोरठा, तो।

 

समझदारी है उससे दूर जाना,

अगर हो बैल कोई मरखना तो।

 

जिसे मशरूम का हो मानते तुम,

किसी मज़लूम का हो शोरबा, तो।

 

न तुम ज़िन्दा न तुममें रूह ‘सज्जन’

किसी दिन गर यही…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 19, 2016 at 10:08pm — 10 Comments

हम ग्यारह हैं (कविता)

हमें साथ रहते दस वर्ष बीत गये

दस बड़ी अजीब संख्या है

 

ये कहती है कि दायीं तरफ बैठा एक

मैं हूँ

तुम शून्य हो

 

मिलकर भले ही हम एक दूसरे से बहुत अधिक हैं

मगर अकेले तुम अस्तित्वहीन हो

 

हम ग्यारह वर्ष बाद उत्सव मनाएँगें

क्योंकि अगर कोई जादूगर हमें एक संख्या में बदल दे

तो हम ग्यारह होंगे

दस नहीं

-------

(मौलिक एवंं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 9, 2016 at 8:02pm — 3 Comments

न अब मेरे बस में है मेरा क़लम (ग़ज़ल)

बह्र : १२२ १२२ १२२ १२

 

बिखर जाएँ चूमें तुम्हारे क़दम

सुनो, इस क़दर भी न टूटेंगे हम

 

किये जा रे पूँजी सितम दर सितम

इन्हें शाइरी में करूँगा रक़म

 

जो रखते सदा मुफ़्लिसी की दवा

दिलों में न उनके ज़रा भी रहम

 

ज़रा सा तो मज़्लूम का पेट है

जो थोड़ा भी दोगे तो कर लेगा श्रम

 

जो मैं कह रहा हूँ वही ठीक है

सभी देवताओं को रहता है भ्रम

 

मुआ अपनी मर्ज़ी का मालिक बना

न अब मेरे बस में है…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 27, 2016 at 11:30am — 8 Comments

जनकवि (लघुकथा)

झील ने कवि से पूछा, “तुम भी मेरी तरह अपना स्तर क्यूँ बनाये रखना चाहते हो? मेरी तो मज़बूरी है, मुझे ऊँचाइयों ने कैद कर रखा है इसलिए मैं बह नहीं सकती। तुम्हारी क्या मज़बूरी है?”

कवि को झटका लगा। उसे ऊँचाइयों ने कैद तो नहीं कर रखा था पर उसे ऊँचाइयों की आदत हो गई थी। तभी तो आजकल उसे अपनी कविताओं में ठहरे पानी जैसी बदबू आने लगी थी। कुछ क्षण बाद कवि ने झील से पूछा, “पर अपना स्तर गिराकर नीचे बहने में क्या लाभ है। इससे तो अच्छा है कि यही स्तर बनाये रखा जाय।”

झील बोली,…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 19, 2016 at 10:04am — 22 Comments

दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है (ग़ज़ल)

बह्र : २१२२ १२१२ २२

 

दर्द-ए-मज़्लूम जिसने समझा है

वो यक़ीनन कोई फ़रिश्ता है

 

दूर गुणगान से मैं रहता हूँ

एक तो जह्र तिस पे मीठा है

 

मेरे मुँह में हज़ारों छाले हैं

सच बड़ा गर्म और तीखा है

 

देखिए बैल बन गये हैं हम

जाति रस्सी है धर्म खूँटा है

 

सब को उल्लू बना दे जो पल में

ये ज़माना मियाँ उसी का है

 

अब छुपाने से छुप न पायेगा

जख़्म दिल तक गया है, गहरा है

 

आज…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 16, 2016 at 1:00am — 10 Comments

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