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जयनित कुमार मेहता's Blog – November 2016 Archive (4)

चलना ही सीखना है तो ठोकर तलाश कर (ग़ज़ल)

221 2121 1221 212



दुनिया को छोड़ पहले ख़ुद अंदर तलाश कर

ऊंचे से इस मकान में इक घर तलाश कर



हमवार फ़र्श छोड़ के पत्थर तलाश कर

चलना ही सीखना है तो ठोकर तलाश कर



ख़ुद को जला के देख जो सच की तलाश है

किस ने तुझे कहा कि पयम्बर तलाश कर



हरियालियां निगल के उगलता है कंकरीट

इस वक़्त किस तरफ़ है वो अजगर, तलाश कर



तेरा सफ़र में साथ निभाए तमाम उम्र

ए ज़ीस्त कोई ऐसा भी रहबर तलाश कर



*जय* प्यास ही से प्यास का मिट सकता है… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on November 26, 2016 at 1:18pm — 11 Comments

मेरे चेहरे पे कुछ लिखा है क्या (ग़ज़ल)

2122   1212   22

मुझको इस तरह देखता है क्या

मेरे चेहरे पे कुछ लिखा है क्या

बातें करता है पारसाई की

महकमे में नया-नया है क्या

आज बस्ती में कितनी रौनक है

कोई मुफ़लिस का घर जला है क्या

खोए-खोए हुए से रहते हो

प्यार तुमको भी हो गया है क्या

दिल मेरा गुमशुदा है मुद्दत से

फिर ये सीने में चुभ रहा है क्या

ढूँढ़ते रहते हैं ख़ुदा को सब

आजतक वो कभी मिला है क्या

लापता आजकल हैं…

Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on November 9, 2016 at 3:59pm — 5 Comments

दिल को दरिया बना लिया हम ने (ग़ज़ल)

2122 1212 22

आपको आस-पास रखते हैं
फिर भी खुद को उदास रखते हैं

दिल को दरिया बना लिया हम ने
और लब हैं कि प्यास रखते हैं

लोग मिलते हैं मुस्कुरा के गले
दिल में लेकिन भड़ास रखते हैं

आदमी हम भले हैं मामूली
दोस्त पर ख़ास-ख़ास रखते हैं

लोग तकते हैं "जय" तुम्हारी राह
अब भी जीने की आस रखते हैं

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by जयनित कुमार मेहता on November 7, 2016 at 8:00pm — 2 Comments

ज़माना संग-दिल, मैं काँच का हूँ (ग़ज़ल)

1222 1222 122

तभी अंदर ही अंदर जल रहा हूँ
मैं अपनी तिश्नगी को पी गया हूँ

कहीं देखा है मेरे हमसफ़र को?
भटकते रास्तों से पूछता हूँ

मैं इक दरिया हूँ, तू मेरी रवानी
तेरे बिन देख ले, ठहरा हुआ हूँ

खुला आकाश मेरे सामने है
परिंदा हूँ, मगर मैं पर-कटा हूँ

मुझे मालूम है अंजाम अपना
ज़माना संग-दिल, मैं काँच का हूँ

कहीं मिलता नहीं हूँ ढूंढने पर
मैं अपने आप ही में खो गया हूँ

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by जयनित कुमार मेहता on November 2, 2016 at 4:19pm — 1 Comment

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