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जयनित कुमार मेहता's Blog – November 2015 Archive (2)

लड़ाई मज़हबी फिर से छिड़ी है (ग़ज़ल)

1222 1222 122

कभी है ग़म,कभी थोड़ी ख़ुशी है..

इसी का नाम ही तो ज़िन्दगी है..

हमें सौगात चाहत की मिली है..

ये पलकों पे जो थोड़ी-सी नमी है..

मुखौटे हर तरफ़ दिखते हैं मुझको,

कहीं दिखता नहीं क्यों आदमी है..?

फ़िज़ा में गूँजता हर ओर मातम,

कि फिर ससुराल में बेटी जली है..

सभी मौजूद हों महफ़िल में,फिर भी,

बहुत खलती मुझे तेरी कमी है..

दहल जाए न फिर इंसानियत 'जय',

लड़ाई मज़हबी फिर से…

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Added by जयनित कुमार मेहता on November 25, 2015 at 4:50pm — 8 Comments

और,सारे देखने में हैं तमाशा (ग़ज़ल)

2122 2122 2122

भागता  ही जा रहा है बेतहाशा..

आदमी के हाथ लगती बस हताशा..

मुस्कराहट लब से गायब हो रही है,

पाँव फैलाए खड़ी जड़ तक निराशा..

नष्ट होती जा रही वो स्वर्ण-मूरत,

वर्षों में पुरखों ने जिसको था तराशा..

सुबह का भूला अभी लौटेगा शायद,

सूर्य की अंतिम किरण तक है ये आशा..

है न भक्तों को कफ़न तक भी मयस्सर,

देवता कुर्सी पे खाते हैं बताशा..

जान पंछी की निकलने पर तुली है,

और सारे…

Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on November 20, 2015 at 10:02pm — 6 Comments

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