दिन ऐसे गुज़र जाते है जैसे हाथ से ताश के पत्ते. देखते देखते महोसालोदहाई सर्फ़ हो गए, कहाँ गए सब? ज़िंदगी में जो बीत गया, किधर चला चला गया? जो लोग अब नहीं हैं तकारुब में और जिनके मख्फी साये ही ज़हन में आते जाते हैं, वो कहाँ हैं अभी? ख्वाहिशों से भी मुलायम सपने जो कभी पूरे नहीं हुए, उदासियों सी भी तन्हा कोई राहगुज़र जो कभी मंजिल तक न पहुँच पाई, दिल की सोजिशों से भी रंजीदा इक नज़र जो झुक गई मायूसियों के बोझ तले- क्या हुआ उनका?
तुम्हारे गाँव का वो खाली खाली घर जहाँ बसी है आईने के…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on October 31, 2012 at 9:03am — 6 Comments
घरों में सीलिंग फैन्स की घड़घड़ाहट बंद सी होने लगी है और दिन सुबुकपा और रातें संगीन. मौसम ने करवट की इक गर्दिश पूरी की हो जैसे- धूप की शिद्दत खत्म होने लगी है और सुकून और मुलायमियत के झीने से सरपोश के उस तरफ साकित ओ मुतमईन, आयंदा और तबस्सुमफिशाँ कुद्रत के नए रूप का एहसास होने लगा है. घर की हर शै जैसे तपिश भरी दोपहरियों से सज़ायाफ्ता ज़िंदगी की नींद से बेदार होने लगी है और जल रहे लोबान के धुंए की तरह दूदेसुकूत फजाओं में फ़ैल रहा है. ये आमदेसरमा (जाड़े के मौसम के आगमन) के बेहद इब्तेदाई रोज़…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on October 26, 2012 at 12:30pm — 11 Comments
बहरे रमल मुसम्मन महजूफ़
(वज़न- फायलातुन फायलातुन फायलातुन फाएलुन)
---------------------------------------------------------
मुलाहिजा फरमाएं:
बात क्यूँ करते हो मुझसे इश्रतोआराम की
हुस्नवालों की दलीलें हैं मिरे किस काम की
कब हुई तस्लीम मेरी इक ज़रा सी इल्तेजा
दास्तानें कब हुईं मंसूख तेरे नाम की
जाग जाओ सोने वालो अपने मीठे ख्वाब से
घंटियाँ बजने लगी हैं शह्र में आलाम की
पीछे पीछे नामाबर…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on October 19, 2012 at 11:51pm — 8 Comments
ऐतिहासिक इमारतों में कितना आकर्षण समाया है. इक पूरी ज़िंदगी और ज़माने का कोई थ्री डी अल्बम हों ये जैसे. ख्यालों की लम्बी दौड़ लगानेवालों के लिए गोया ये फंतासी, रूमानियत, त्रासदी, और न जाने किन किन रंगों के तसव्वुरात की कब्रगाह या कोई मज़ार हैं ये इमारतें.
ज़िंदगी जीते हुए जितनी हसीन नहीं लगती उससे कहीं अधिक माजी के धुंधले आईने में नज़र आती है. जैसे गर्द से आलूदा किसी शीशे में कोई हसीन सा चेहरा पीछे से झांकता नज़र आ जाए और हम खयालों में मह्व (खोए), हौले से अपनी उंगुलियाँ आगे…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on October 13, 2012 at 11:19am — 10 Comments
आह हस्रत तिरी कि ज़ीस्त जावेदाँ न हुई
यूँकि ये मरके भी आज़ादीका उन्वाँ न हुई
तू जो इक रात मेरे पास मेहमाँ न हुई
ज़िंदगी आग थी पे शोलाबदामाँ न हुई
ज़िंदगी तेरे उजालों से दरख्शां न हुई
ये ज़मीं चाँद-सितारोंकी कहकशाँ न हुई
बात ये है कि मिरी चाह कामराँ न हुई
एक आंधी थी सरेराह जो तूफाँ न हुई
दौरेमौजूदा में आज़ादियाँ आईं लेकिन
लैला-मजनूँकी तरह और दास्ताँ न हुई
याद तुझको न करूँ…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on October 8, 2012 at 9:00pm — 2 Comments
कैद कब तक रहोगे अपनी ही तन्हाइयों में
ढूंढें मिलते नहीं ज़िंदा बशर परछाइयों में
हक़का रिश्ता ज़मींसे है, ये खंडहर कहते हैं
सब्ज़े होते नहीं अफ्लाक की बालाइयों में
खुशबूएं जम गईं गुलनार के पैकर में ढलके
कल की बादे सबा क्यूँ खोजते पुरवाइयों में
हम हैं जंगल के फूल तख़लिएमें खिलते हैं
ज़र्द पड़ जाते हैं गुलदस्ते की रानाइयों में
फूल वा होते हैं, निकहत बिखर ही जाती है
फर्क कुछ भी नहीं है प्यार और…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on October 5, 2012 at 11:46am — 10 Comments
मुद्दत हुई कि रात गुज़ारी है घर नहीं
बच्चे सयाने हो गए मुझको खबर नहीं
वो प्यार क्या कि रूठना हँसना नहीं जहां
ऐसा भी क्या विसाल कि ज़ेरोज़बर नहीं
दरिया में डूबने गए दरिया सिमट गया
तेरे सताए फर्द की कोई गुज़र नहीं
उनके लिए दुआ करो उनका फरोग हो
जिनपे तुम्हारी बात का होता असर नहीं
रहता हूँ मैं ज़मीन पे ऊँची है पर निगाह
रस्ते के खारोसंग पे मेरी नज़र नहीं
सबको खुदाका है दिया कोई न…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on October 3, 2012 at 9:59am — 3 Comments
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |