For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

राज़ नवादवी's Blog – October 2012 Archive (7)

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने-४१ (बाकी रह गया इक शख्स जो राज़ नवादवी है)

दिन ऐसे गुज़र जाते है जैसे हाथ से ताश के पत्ते. देखते देखते महोसालोदहाई सर्फ़ हो गए, कहाँ गए सब? ज़िंदगी में जो बीत गया, किधर चला चला गया? जो लोग अब नहीं हैं तकारुब में और जिनके मख्फी साये ही ज़हन में आते जाते हैं, वो कहाँ हैं अभी? ख्वाहिशों से भी मुलायम सपने जो कभी पूरे नहीं हुए, उदासियों सी भी तन्हा कोई राहगुज़र जो कभी मंजिल तक न पहुँच पाई, दिल की सोजिशों से भी रंजीदा इक नज़र जो झुक गई मायूसियों के बोझ तले- क्या हुआ उनका?

 

तुम्हारे गाँव का वो खाली खाली घर जहाँ बसी है आईने के…

Continue

Added by राज़ नवादवी on October 31, 2012 at 9:03am — 6 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ४० (वही घर के कोने अपना मुंह छुपाए, वही रास्ते में तुम्हारी यादों के नक्श.. शरमाए शरमाए)

घरों में सीलिंग फैन्स की घड़घड़ाहट बंद सी होने लगी है और दिन सुबुकपा और रातें संगीन. मौसम ने करवट की इक गर्दिश पूरी की हो जैसे- धूप की शिद्दत खत्म होने लगी है और सुकून और मुलायमियत के झीने से सरपोश के उस तरफ साकित ओ मुतमईन, आयंदा और तबस्सुमफिशाँ कुद्रत के नए रूप का एहसास होने लगा है. घर की हर शै जैसे तपिश भरी दोपहरियों से सज़ायाफ्ता ज़िंदगी की नींद से बेदार होने लगी है और जल रहे लोबान के धुंए की तरह दूदेसुकूत फजाओं में फ़ैल रहा है. ये आमदेसरमा (जाड़े के मौसम के आगमन) के बेहद इब्तेदाई रोज़…

Continue

Added by राज़ नवादवी on October 26, 2012 at 12:30pm — 11 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४१ (बहरे रमल मुसम्मन महजूफ़: "बात क्यूँ करते हो मुझसे इश्रतोआराम की")

बहरे रमल मुसम्मन महजूफ़

(वज़न- फायलातुन फायलातुन फायलातुन फाएलुन)

---------------------------------------------------------

मुलाहिजा फरमाएं:

 

बात क्यूँ करते हो मुझसे इश्रतोआराम की

हुस्नवालों की दलीलें हैं मिरे किस काम की

 

कब हुई तस्लीम मेरी इक ज़रा सी इल्तेजा

दास्तानें कब हुईं मंसूख तेरे नाम की

 

जाग जाओ सोने वालो अपने मीठे ख्वाब से   

घंटियाँ बजने लगी हैं शह्र में आलाम की

 

पीछे पीछे नामाबर…

Continue

Added by राज़ नवादवी on October 19, 2012 at 11:51pm — 8 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३९ (जैसे कोई अतीत दबे पाँव आपके पीछे पीछे ही हमसवार है)

ऐतिहासिक इमारतों में कितना आकर्षण समाया है. इक पूरी ज़िंदगी और ज़माने का कोई थ्री डी अल्बम हों ये जैसे. ख्यालों की लम्बी दौड़ लगानेवालों के लिए गोया ये फंतासी, रूमानियत, त्रासदी, और न जाने किन किन रंगों के तसव्वुरात की कब्रगाह या कोई मज़ार हैं ये इमारतें.

 

ज़िंदगी जीते हुए जितनी हसीन नहीं लगती उससे कहीं अधिक माजी के धुंधले आईने में नज़र आती है. जैसे गर्द से आलूदा किसी शीशे में कोई हसीन सा चेहरा पीछे से झांकता नज़र आ जाए और हम खयालों में मह्व (खोए), हौले से अपनी उंगुलियाँ आगे…

Continue

Added by राज़ नवादवी on October 13, 2012 at 11:19am — 10 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४० (आह हस्रत तिरी कि ज़ीस्त जावेदाँ न हुई)

आह हस्रत तिरी कि ज़ीस्त जावेदाँ न हुई

यूँकि ये मरके भी आज़ादीका उन्वाँ न हुई

 

तू जो इक रात मेरे पास मेहमाँ न हुई

ज़िंदगी आग थी पे शोलाबदामाँ न हुई  

 

ज़िंदगी तेरे उजालों से दरख्शां न हुई   

ये ज़मीं चाँद-सितारोंकी कहकशाँ न हुई

 

बात ये है कि मिरी चाह कामराँ न हुई

एक आंधी थी सरेराह जो तूफाँ न हुई

 

दौरेमौजूदा में आज़ादियाँ आईं लेकिन

लैला-मजनूँकी तरह और दास्ताँ न हुई

 

याद तुझको न करूँ…

Continue

Added by राज़ नवादवी on October 8, 2012 at 9:00pm — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३९ (हम हैं जंगल के फूल तख़लिएमें खिलते हैं )

कैद कब तक रहोगे अपनी ही तन्हाइयों में

ढूंढें मिलते नहीं ज़िंदा बशर परछाइयों में

 

हक़का रिश्ता ज़मींसे है, ये खंडहर कहते हैं

सब्ज़े होते नहीं अफ्लाक की बालाइयों में  

 

खुशबूएं जम गईं गुलनार के पैकर में ढलके

कल की बादे सबा क्यूँ खोजते पुरवाइयों में

 

हम हैं जंगल के फूल तख़लिएमें खिलते हैं

ज़र्द पड़ जाते हैं गुलदस्ते की रानाइयों में

 

फूल वा होते हैं, निकहत बिखर ही जाती है

फर्क कुछ भी नहीं है प्यार और…

Continue

Added by राज़ नवादवी on October 5, 2012 at 11:46am — 10 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३८ (मुद्दत हुई कि रात गुज़ारी है घर नहीं)

मुद्दत हुई कि रात गुज़ारी है घर नहीं

बच्चे सयाने हो गए मुझको खबर नहीं

 

वो प्यार क्या कि रूठना हँसना नहीं जहां

ऐसा भी क्या विसाल कि ज़ेरोज़बर नहीं

 

दरिया में डूबने गए दरिया सिमट गया

तेरे सताए फर्द की कोई गुज़र नहीं

 

उनके लिए दुआ करो उनका फरोग हो

जिनपे तुम्हारी बात का होता असर नहीं   

 

रहता हूँ मैं ज़मीन पे ऊँची है पर निगाह

रस्ते के खारोसंग पे मेरी नज़र नहीं

 

सबको खुदाका है दिया कोई न…

Continue

Added by राज़ नवादवी on October 3, 2012 at 9:59am — 3 Comments

Monthly Archives

2019

2018

2017

2016

2013

2012

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . विविध
"आदरणीय जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय । हो सकता आपको लगता है मगर मैं अपने भाव…"
3 hours ago
Chetan Prakash commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . विविध
"अच्छे कहे जा सकते हैं, दोहे.किन्तु, पहला दोहा, अर्थ- भाव के साथ ही अन्याय कर रहा है।"
6 hours ago
Aazi Tamaam posted a blog post

तरही ग़ज़ल: इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्या

२१२२ २१२२ २१२२ २१२इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्यावैसे भी इस गुफ़्तगू से ज़ख़्म भर…See More
18 hours ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"परम् आदरणीय सौरभ पांडे जी सदर प्रणाम! आपका मार्गदर्शन मेरे लिए संजीवनी समान है। हार्दिक आभार।"
yesterday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . . . विविध

दोहा सप्तक. . . . विविधमुश्किल है पहचानना, जीवन के सोपान ।मंजिल हर सोपान की, केवल है  अवसान…See More
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"ऐसी कविताओं के लिए लघु कविता की संज्ञा पहली बार सुन रहा हूँ। अलबत्ता विभिन्न नामों से ऐसी कविताएँ…"
yesterday
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

छन्न पकैया (सार छंद)

छन्न पकैया (सार छंद)-----------------------------छन्न पकैया - छन्न पकैया, तीन रंग का झंडा।लहराता अब…See More
yesterday
Aazi Tamaam commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के
"आदरणीय सुधार कर दिया गया है "
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"आ. भाई सुरेश जी, सादर अभिवादन। बहुत भावपूर्ण कविता हुई है। हार्दिक बधाई।"
Monday
Aazi Tamaam posted a blog post

ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के

२२ २२ २२ २२ २२ २चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल केहो जाएँ आसान रास्ते मंज़िल केहर पल अपना जिगर जलाना…See More
Monday
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

गहरी दरारें (लघु कविता)

गहरी दरारें (लघु कविता)********************जैसे किसी तालाब कासारा जल सूखकरतलहटी में फट गई हों गहरी…See More
Monday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

शेष रखने कुटी हम तुले रात भर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

212/212/212/212 **** केश जब तब घटा के खुले रात भर ठोस पत्थर  हुए   बुलबुले  रात भर।। * देख…See More
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service