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निगाहों  में  किसी की  चंद-पल  रुक कर चला आया
परिंदा   क़ैद  का  आदी   नहीं  था,   घर  चला  आया
सितमगर  की  ख़िलाफ़त  में  उछाला था  जिसे हमने
हमारे   आशियाने   तक   वही   पत्थर   चला   आया
सभी  क़समों,  उसूलों,  बंदिशों  को  तोड़कर,आखिर
मैं  अरसे  बाद आज उसकी  गली होकर  चला आया
दनादन   लीलता   ही   जा   रहा   है   कैसे  हरियाली
कि चलकर शह्र से अब गाँव तक अजगर चला…
Added by जयनित कुमार मेहता on March 9, 2016 at 9:59pm — 10 Comments
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