For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

समीक्षा पुस्तक   : मोहरे (उपन्यास)

लेखक              : दिलीप जैन

मूल्य               :  रुपये 150/-

प्रकाशक           : बोधि प्रकाशन, जयपुर (राज.)

आय एस बी एन : 978-93-5536-602-3

 

                   ‘मोहरे’ जो स्वयं नहीं चलते. उनको चलाया जाता है किसी और के द्वारा.

शतरंज के खिलाड़ी और शतरंज के  जानकार, ‘मोहरे’ शब्द से भलीभाँति परिचित होंगे.

‘मोहरे’ मात्र शतरंज के खेल में ही नहीं होते.            

हम इन्हें अपने आम जीवन में भी देखते हैं. भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में, बाज़ार में, सरकारी और गैर सरकारी महकमों में.

                   लेखक दिलीप जैन को यह मोहरा दिखा है पुलिस महकमें में.

                   इस उपन्यास ‘मोहरे’ की भूमिका लिखी है डॉ. वन्दना मुकेश ने जो यू. के. में कार्यरत हैं. और  मुझे तो लगता है यह कथा भी दिलीप जैन ने अपने यू.के. प्रवास के दौरान ही लिखी है, क्योंकि भारत में बैठकर लिखने से इनको अपने ‘आसामी’ बनने का खतरा महसूस हुआ होगा.  आप कहेंगे ये आसामी क्या है ?

                   इस उपन्यास के अनुसार पुलिस थाने में शिकायत लेकर पहुँचने वाला शिकायतकर्ता पुलिस के लिए ‘आसामी’ होता है. 

डॉ. वन्दना मुकेश ने भूमिका में इस उपन्यास को उपन्यासिका की संज्ञा दी है. शायद पृष्ठ संख्या उनका पैमाना रहा हो या फिर कथानक में पात्रों की संख्या रही हो या  दिलीप जैन द्वारा कथा के बेवजह विस्तार को कम कर देना रहा हो. खैर ...

                   इस उपन्यास की पटकथा आज भी सामयिक है किन्तु कुछ बातें हैं, जो महसूस करातीं हैं कि यह घटित होना 30-40 वर्ष पूर्व अधिक सटीक था.

                   इस कथा का प्रमुख पात्र,      संभ्रान्त मध्यमवर्गीय परिवार का एक युवा है.       जो अपने पिता की ना-नुकुर और नाराज़गी के पश्चात भी, रोज़गार का अवसर पुलिस महकमें में खोजता है.

वह पुलिस सब-इंस्पेक्टर के पद पर पिता की इस हिदायत के साथ जाता है कि “किसी गरीब और कमज़ोर को न सताए और बेगुनाह की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहे.

                   जैसे किसी नदी में पानी की गहराई बाहर खड़े रहकर नहीं जानी जा सकती, बिलकुल वैसी ही स्थिति उस पुलिस सब-इंस्पेक्टर की होती है जब वह अन्य पुलिस कर्मी को कहता है “मैं रंगरूट नहीं, सब-इंस्पेक्टर हूँ” और जवाब में वह पुलिस कर्मी कह देता है “सब-इंस्पेक्टर बाहर वालों के लिए हो, यहाँ तो नये-नये रंगरूट हो”

                   सारी कहानी भ्रष्ट व्यवस्था में आ फँसे एक सब-इंस्पेक्टर के ईमानदार बने रहने के संघर्ष पर आधारित है. किस प्रकार एक ईमानदार सब-इंस्पेक्टर  को दोहरी मार झेलना पड़ती है. उसके अधिकारी और सह-कर्मी तो उससे नाखुश रहते ही हैं. शिकायतकर्ता, रसूख वाले लोग और नेतागण भी उसे परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं.

                   भ्रष्टाचार को रोकना तब अधिक कठिन होता है जब वह उपर से नीचे आया हुआ होता है. नीचे वाले जहाँ एक चाय से संतुष्ट हो जाते हैं वहीं बड़ों को दारू की बोतल चाहिए.

दिलीप जैन ने जिस भाषा शैली का प्रयोग किया है वह व्यंग्यात्मक भले न हो, किन्तु उसमें एक चुटीलापन अवश्य है.  जो पाठक के अधरों में सतत एक मुस्कान बनाए रखने में कामयाब है.       दिलीप जैन ने इस उपन्यास में  कहानी के मुख्य पात्र सब-इंस्पेक्टर के  व्यक्तिगत जीवन में घटित  प्रेम-प्रसंग,विवाह और दोस्ती यारी जैसी जीवनचर्या की बातों को भी बहुत रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है.

कोई भी पृष्ठ आपको उबाऊ या थकाऊ नहीं मिलेगा. एक बार जब आप पढ़ना प्रारम्भ करेंगे तो अन्त तक बिना रुके ही पढ़ते चले जायेंगे. यह मेरा विश्वास है.

यह उपन्यास लिखने के पीछे जो कारण मुझे महसूस हुआ उसे मैं इस उपन्यास में आयी दो पंक्तियों से बताता हूँ. जो मूलतः पञ्चतंत्र की कहानी का अंश है - “राजा ने सभी से एक टेंक में एक लोटा दूध डालने को कहा तो सभी ने दूध की बजाय पानी डाला, यह सोचकर कि सभी तो दूध डाल रहे हैं, मैं पानी डाल दूं तो क्या फर्क पड़ता है ?” सभी लोग आज भी पानी ही डाल रहे हैं किन्तु लेखक का विचार है यदि उसमें एक आदमी एक लोटा दूध ही डाल देता तो वह पानी दूध भले न बनता,किन्तु पानी का रंग तो बदल ही सकता था. भ्रष्टाचार मुक्ति की यही प्रेरणा देने का कार्य इस उपन्यास में दिलीप जैन ने किया है.

इस उपन्यास के पूर्व भी दिलीप जैन  के चार उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. इनके सभी उपन्यास बोधि प्रकाशन जयपुर से प्रकाशित हुए  हैं.

आदरणीय दिलीप जैन का यह उपन्यास साहित्य जगत में बहुत प्रसिद्धि पाए. अपना उचित मुकाम बनाए  यही मेरी हार्दिक शुभकामना है.

 

 

अशोक रक्ताले ‘फणीन्द्र’

उज्जैन.

Views: 36

Attachments:

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Admin posted discussions
4 hours ago
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 169

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ…See More
4 hours ago
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ताने बाने में उलझा है जल्दी पगला जाएगा
"धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी "
17 hours ago
Nilesh Shevgaonkar commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
"धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी "
17 hours ago
Chetan Prakash commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post घाव भले भर पीर न कोई मरने दे - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"खूबसूरत ग़ज़ल हुई, बह्र भी दी जानी चाहिए थी। ' बेदम' काफ़िया , शे'र ( 6 ) और  (…"
yesterday
Chetan Prakash commented on PHOOL SINGH's blog post यथार्थवाद और जीवन
"अध्ययन करने के पश्चात स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, उद्देश्य को प्राप्त कर ने में यद्यपि लेखक सफल…"
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh commented on PHOOL SINGH's blog post यथार्थवाद और जीवन
"सुविचारित सुंदर आलेख "
Saturday

सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post घाव भले भर पीर न कोई मरने दे - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"बहुत सुंदर ग़ज़ल ... सभी अशआर अच्छे हैं और रदीफ़ भी बेहद सुंदर  बधाई सृजन पर "
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on अजय गुप्ता 'अजेय's blog post ग़ज़ल (अलग-अलग अब छत्ते हैं)
"आ. भाई अजय जी, सादर अभिवादन। परिवर्तन के बाद गजल निखर गयी है हार्दिक बधाई।"
Thursday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - ताने बाने में उलझा है जल्दी पगला जाएगा
"आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। सार्थक टिप्पणियों से भी बहुत कुछ जानने सीखने को…"
Thursday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
"आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on बृजेश कुमार 'ब्रज''s blog post गीत-आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा
"आ. भाई बृजेश जी, सादर अभिवादन। गीत का प्रयास अच्छा हुआ है। पर भाई रवि जी की बातों से सहमत हूँ।…"
Wednesday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service