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एक साक्षात्कार सौरभ पाण्डेय कृत ‘छंद मंजरी’ से= डा0 गोपाल नारायन श्रीवास्तव

[संभवतः आज से पूर्व किसी पुस्तक का साक्षात्कार शायद ही हुआ हो I परन्तु मेरी समझ में इस प्रकार किसी पुस्तक की समीक्षा उसका सम्यक अवगाहन करने पर ही की जा सकती है और इसी तौर मेरा प्रयास रहा है I सादर I]

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प्रख्यात भू वैज्ञानिक डा0 शरदिंदु मुख़र्जी के घर पर मेरी भेंट सुमुखी, सुकेशी, सुनयना, सुहासिनी, शुभ्रवदना ‘छंद मंजरी’ से हुयी I मैं उन्हैं ससम्मान अपने घर ले आया I वहीं उपयुक्त समय पाकर मैंने उनका साक्षात्कार लिया जिसके कुछ अंश निम्न प्रकार हैं - 

प्रश्न – छन्द-मञ्जरी जी, आपकी उपस्थिति ने मुझे बहुत प्रभावित किया है । किन्तु, आज के समय में आपकी साहित्यिक प्रासंगिकता क्या है ?
उत्तर – यह कहना तो कठिन लग सकता है, पर मेरी कोशिश यही रही है कि कतिपय छन्दों की विधाओं, उनके लालित्य एवं उनके भाषिक अवधारणाओं के प्रति काव्य-रसिकों के मन में साहित्यिक उत्सुकता बन सके । कतिपय छंदों की विधाओं के नाम पर फैले भ्रम का निवारण हो सके । सर्वोपरि, एक ऐसा वातावरण बन सके जिसमें अपवाद स्वरूप प्रस्तुत हुई छान्दसिक रचनाओं को छंदों की मूलभूत विधाओं तथा आवश्यक विन्दुओं के सापेक्ष व्यवस्थित कर छन्द के नाम पर फैले संदेहों का कुहासा और फैल सकने से रोक सके । साथ ही, कतिपय छन्दों के विधा-विन्दुओं के माध्यम से आजके रचाकर्मियों को सभी तरह की गेय, यानी प्रवाह या लय में पढ़ी जा सकने वाली, रचनाओं के सर्जन में सहजता हो सके । यही मेरा प्रमुख अभिप्रेत है ।

प्रश्न – मुक्तछंद और अतुकांत कविता की हिमायती नयी पीढी के इस युग में छन्द को प्रमोट करना कितना जायज है ?
उत्तर – काव्य जगत में छन्दों की महत्ता पर सभी कविताकर्मी एकमत रहे हैं I यह भी, कि छन्दों की मूलभूत समझ ही किसी संयत रचनाकर्मी की भावाभिव्यक्तियों को आवश्यक गहराई दे सकती है I शब्दों की अपनी सत्ता होती है I इस सत्ता को समझने की, तदनुरूप उनके साथ व्यवहार करने की, शक्ति छन्दों के विधामूलक विन्दुओं की मूलभूत समझ से ही सदिश हो सकती है । जहाँ तक मुक्तछन्द की बात है, तो ‘राम की शक्ति पूजा’ का कोई तपस्वी ही कविताओं को छन्द से मुक्त कर देने का सुझाव दे सकता है तथा ऐसा ही कोई अनुशासित कविताकर्मी रचनाकर्मियों की नयी पीढी का सही मार्गदर्शक हो सकता है I छन्दों से रचनाओं की मुक्तता का अर्थ भी सही ढंग से समझा नहीं गया है । यही भ्रम का मुख्य कारण है । रचनाकर्म मात्र शाब्दिक अभिव्यक्ति नहीं है, बल्कि यह सुगढ़, सदिश, सहज किन्तु अनुशासित संप्रेषण हुआ करता है । रचनाकर्म अनुशासन से जितना दूर जाता है उतना ही क्षणभंगुर परिणतियों का कारण होता जाता है । कविताकर्म का हेतु हर काल-खण्ड का मानव है, आजका या कल का मानव नहीं । अतः कोई प्रयास बहुउद्देशीय व सार्थक प्रयास होना चाहिए ।

प्रश्न – छन्द-मञ्जरी जी, क्या आपको यकीन है कि छन्द फिर से हिन्दी कविता की मुख्यधारा बन सकते हैं ?
उत्तर - देखिये आपका प्रश्न तनिक टेढ़ा है और मुक्तछन्दों के मुक़ाबिल है । क़ायदे से अगर हम देखेंगे तो पायेंगे कि छान्दसिकता, गीतात्मकता या शब्द-प्रवाह भारतीय मानस के लिए कभी सायास कर्म नहीं रहे हैं । बल्कि सही कहा जाये तो सामान्य जन के भी वृत्ति–सम्प्रेषणों और उनकी आम भावाभिव्यक्तियों का सहज माध्यम हैं I अभिव्यक्तियों में छान्दसिक प्रवाह भारतीय समष्टि का संस्कार है I रचनाकर्म का अभिन्न व्यवहार है I स्थापित तथा भारतीय परम्पराओं से विलग कोई ‘वाद‘ आँधियों के प्रभाव की तरह स्थावर इकाइयों को कुछ समय के लिए चंचल अवश्य कर दे, उनके अन्तर्हित गुणों में जेनेटिक परिवर्तन नहीं ला सकता I

प्रश्न – क्षमा करें, यह मेरे प्रश्न का सीधा उत्तर नहीं है !
उत्तर – (हँसते हुए) मैने अपनी बात कह दी । बाकी हिन्दी अनुरागी स्वयं सुविज्ञ हैं ।

प्रश्न – कविता के क्षेत्र में एक समय यह प्रखर उद्घोषणा हुई थी कि ‘गीत मर गए’, यानी अप्रासंगिक हो गये । इस संबंध में आपको क्या कहना है ?
उत्तर – मुझे क्या कहना है ? मेरा होना ही ऐसे विचारों का प्रत्युत्तर है । वस्तुतः ऐसा कहने वाले अधिकांश वही लोग हैं जो छंदों या गीतों या ग़ज़लों पर अभ्यास करने के बावज़ूद हार गये थे । छन्दों या गेयता प्रयासों से झल्ला कर छंदों को या गीतों को ’मृत’ कहने लगे I उन्हे पता ही नहीं कि गीत भारतीय जनमानस की सभी तरह की मनोवृत्तियों के सम्प्रेषणों के सहज माध्यम हैं । यही कारण है कि आज गेय रचनायें विभिन्न रूपों और कलेवरों में हमारे सामने आ रही हैं । इन गीतों के पीछे की सार्थक प्रेरणा छन्द ही तो हैं !

प्रश्न – इससे पहले कि आपसे छंद के बारे मे कुछ बातें करूँ, मैं यह जानना चाहता हूँ कि आज की कविता किस मायने में पूर्ववर्ती कविताओं से भिन्न है ?
उत्तर – (स्मित प्रकाश से) आपका यह प्रश्न बड़ा प्रासंगिक है और लोगों को जानना भी चाहिये कि आज कविता कई अर्थों में श्रव्य से इतर पठनीय भी हो गयी है । इसके प्रस्तुति-प्रारूपों में मात्र शब्द ही नहीं बल्कि गणितशास्त्र के मान्य और स्वीकृत गणितीय चिन्ह भी कविता का मुख्य भाग बन गए हैं, जिनको ध्वनियों के माध्यम से व्यक्त किया ही नहीं जा सकता I अब कविता श्रव्य मात्र न रह कर विचार-संप्रेषण की अति गहन इकाई हो चुकी है । प्रश्न उठना सहज ही है कि क्या ऐसा कोई सम्प्रेषण कविता है ? उत्तर में प्रतिप्रश्न होगा कि क्या ऐसा कोई सम्प्रेषण व्यवहार में समेकित रूप से मानवीय संवेदना को प्रभावित कर पाता है ? यदि वास्तव में एक बड़ा वर्ग ऐसे सम्प्रेषण को ’समझता’ है और ’प्रभावित’ होता है तो ऐसे संप्रेषण कविता हैं I

प्रश्न – हो सकता है आपका कहना सच हो, पर कविता की आम परिभाषा के समर्थक शायद इससे सहमत न हों I लेकिन कविता के परिप्रेक्ष्य में यह एक नया कोण अवश्य है । कृपया हमें बताये कि छन्द की वास्तविकता क्या है ?
उत्तर - आप को पता है कि वेद की ऋचाएँ छंदबद्ध हैं । वेद के छह अंगो, अर्थात, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द तथा ज्योतिष, में छन्द एक महत्वपूर्ण अंग है I श्रुतियों की परम्परा बिना छान्दसिक अनुपालन के संभव नहीं थी I शाब्दिक विन्यास में छन्दों का होना संगीत के प्रभाव को बढ़ाता है और छन्द ही शब्दों को संगीतमय बनाते हैं I शब्द और संगीत के संयोग को संभव बनाने का कार्य छन्द करते हैं I

प्रश्न – छन्द के प्रारूप क्या-क्या हैं ?
उत्तर - पद, यति, गति, चरण, मात्रा, वर्ण, गण और तुक छन्द के प्रारूप हैं I

प्रश्न – जी, इनके बार में तो पुस्तकों से जानकारी मिलती है । पर आप किसी सन्दर्भ में कुछ विशेष कहना चाहें ?
उत्तर – हाँ ! प्रायः छन्दशास्त्रियों या अभ्यासियों के बीच पद और चरण के नामकरण और पहचान को लेकर भ्रम देखने में आता है I हमें ऐसी किसी दुविधा से बचना चाहिए I हम इस तथ्य को स्वीकार कर लें कि किसी छन्द की एक पंक्ति उस छंद का पद और उस पद में नियमानुसार विद्यमान यतियों से विभाजित भागों को चरण कहते हैं । इस तथ्य के स्पष्ट होते ही छन्दों की परिभाषाएँ सहज हो जायेंगी और बहुत बड़े भ्रम का निवारण होगा ।

प्रश्न – क्या तुकांतता छन्दों का अनिवार्यं अंग है ?
उत्तर – आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि छंदों के इतने लम्बे इतिहास में प्रारम्भिक काल की रचनाओं में तुकांतता की कोई मान्य परिपाटी नहीं थी I लेकिन कालान्तर में तुकांतता छंदशास्त्र का अनिवार्य हिस्सा हो गयी । इनके बिना गेय रचनाओं के लालित्य और प्रस्तुतीकरण में भारी कमी आती है I

प्रश्न – वैदिक छnदों में कैसी गेयता थी ? और, क्या वे वास्तुतः गेय या संगीतमय हैं ?
उत्तर – वे निस्संदेह गेय हैं । गेयता ही तो उनका मूल स्वरूप है । आप बात तुकान्तता की कर रहे हैं । रचनाओं की गेयता तुकान्तता पर निर्भर नहीं करती । गेय रचनाओं में तुकान्तता वैदिक काल के बाद का आचरण है । हिन्दी की पुरानी रचनाओं के प्रारूपों में भी तुकांतता की उपस्थिति दिखती है I हिन्दी भाषा के काव्य-कर्म में अंग्रेजी या संस्कृत भाषा की तरह भिन्न तुकान्त्तता के भी प्रयोग हुए हैं । इसका सुन्दर उदहारण अयोध्या प्रसाद सिंह ‘हरिऔध’ की काव्यकृति प्रिय प्रवास है I

प्रश्न – बिलकुल-बिलकुल पर यह सवाल कुछ ऊहात्मक हो गया ?
उत्तर – (हँसते हुए) हाँ, तुकान्तता की शुरुआत को ले कर आप ऐसा कह सकते हैं, पर हिन्दी में यह परम्परा प्रारंभ से ही है I

प्रश्न - काव्यारम्भ में दग्धाक्षरों का निषेध कितना संगत है ? जबकि जयशंकर प्रसाद जैसे कवियों ने इस वर्जना को कभी स्वीकार नहीं किया ?
उत्तर - आपने सच कहा है । छन्द प्रयासों में शब्दों की ऐसी शुद्धता बाद के कई उद्भट कवियों ने नहीं मानी है, न इस हेतु उन्होंने कोई बिन्दु ही स्पष्ट किये हैं । लेकिन ये भी सही है कि शब्दों की शुद्धता-अशुद्धता छन्द शास्त्र का आवश्यक हिस्सा रही है । आजके छन्द रचनाकारों को ये जानना चाहिए । इसके आगे मानना न मानना उनकी समझ है ।

प्रश्न – कृपया दोहा छन्द की वैधानिक शुद्धता के बारे में बतायें ?
उत्तर- देखा जाए तो छन्दों में शब्दकल और मात्रिकता का पूरी तरह से निर्वहन होना चाहिये । शब्दकल पर बल देना अधिक आवश्यक है, वर्ना छन्दों में लय मात्र शाब्दिक मात्रिकता से नहीं सधती । उदाहरणार्थ, ’कमल’ जैसे शब्द का शब्दकल त्रिकल होता हुआ भी और नगणात्मक (लघु-लघु-लघु) होता हुआ भी वाचन के अनुसार लघु-गुरु की तरह आभासी होगा । क्योंकि ’कमल’ का उच्चारण ’क+मल’ होता है । दोहा के विषम चरण के अनुसार उसका अन्त ऐसे त्रिकल से होना चाहिये जिसका अन्त वाचन के अनुसार स्वराघात लघु-गुरु हो । अन्यथा त्याज्य समझना चाहिये । यानि दोहा का विषम चरणान्त ’क+मल’ की तरह हो । दोहा जैसे ही पंक्तियों के चरणों की मात्राओं में थोड़े हेर-फेर के साथ पदांत गुरु+लघु में निबद्ध कई छन्द जानकारी में आते हैं I ऐसे छन्दों की सूची बनाई जाये तो रूपमाला, शोभन, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, कामरूप, झूलना, गीता, सरसी, शुद्धगीता आदि के नाम आयेंगे । यही कारण है कि छन्दों की पंक्तियों में मात्रिकता के निर्वहन के साथ-साथ शुद्धता यानि शब्दों के आंतरिक विन्यास पर भी हमे सचेत रहने की आवश्यकता है I

प्रश्न - छन्द-मञ्जरी जी, आपके माध्यम से कवि सौरभ पाण्डेय का एक अप्रतिम दोहा मुझे याद आ रहा है, जिसने मुझे अभिभूत कर दिया है – ’आँखें उम्मीदें तरल, आँखे कठिन यथार्थ I आँखे संबल कृष्ण सी आँखे मन से पार्थ II’
उत्तर - धन्यवाद । ऐसी कई छान्दसिक रचनाओं के माध्यम से छन्द के मूलभूत नियमों को स्पष्ट करने का प्रयास हुआ है । उन छान्दसिक रचनाओं की पंक्तियों में छन्दों के मूलभूत नियमों का परिपालन देखा गया है ।

प्रश्न – मंजरी जी, रोला और दोहा के योग से बने छंद को कुण्डलिया कहने के पीछे क्या कोई सिद्धांत है ?
उत्तर – (जोर से हँसते हुए ) आपको पता है फिर भी आप मेरा टेस्ट ले रहे हैं ? फिर भी मैं बता दूं कि छंद की ऐसी व्यवस्था कुण्डली मार कर बैठे साँप का आभास देती है, इसी कारण इस छंद का नाम कुण्डलिया पड़ा है I

प्रश्न – मात्रिक छंदों में चौपाई की क्या अहमीयत है ?
उत्तर – यह एक अति प्रसिद्ध और मूल छंद है I गोस्वामी तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ का आधार छन्द या सुप्रसिद्ध हनुमान-चालीसा का आधार छन्द चौपाई ही है I मलिक मुहम्मद जायसी रचित ’पद्मावत’ का आधार छन्द भी चौपाई ही है । यह अति सरस और गेय तो होता ही है, यह छन्द अपने आप में कई छन्दों का आधार छन्द हुआ करता है । इस छन्द की पंक्तियों में शब्दकलों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है । अन्यथा लय साधा नहीं जा सकता ।

प्रश्न – चौपाई और पादाकुलक छन्द में बड़ी समानता है । इनमें जो सूक्ष्म अंतर है वह क्या है ?
उत्तर – (स्मित प्रकाश से) दरअसल एक बात विशेष रूप से जानने की है कि चौपाई छंद के समकक्ष ही पादाकुलक छन्द हुआ करता है । जिसके प्रत्येक चरण में चार चौकल समूह बनते हैं I चरणों में सममात्रिक शब्दों की आवृत्ति पादाकुलक छंद के लिए अनिवार्य शर्त है I पादाकुलक के पदों में एक भी विषममात्रिक शब्द नहीं हो सकता है I इस तरह हम कह सकते हैं कि हर पादाकुलक छन्द चौपाई छन्द होता है, परन्तु हर चौपाई छन्द पादाकुलक छन्द नहीं होता I चौपाई छन्द इसके अलावा भी कई अन्य छन्दों का आधार है ।

प्रश्न – सार छन्द और ’छन्न-पकैय्या’ एक ही है या फिर इनमे कोई अंतर है ?
उत्तर – देखिये, ’छन्न-पकैय्या’ अपने आप में कोई छन्द नहीं है । यह सार छन्द का ही एक प्रारूप है I विशेषता के तौर पर सार छन्द के प्रथम चरण में ‘छन्न-पकैय्या छन्न-पकैय्या’ की टेक होती है । छन्द के अन्य चरणों में सार छन्द के नियम निभाये जाते हैं ।

प्रश्न – छन्द-मञ्जरी जी, चौपई छन्द की अतिगेयता के क्या लाभ हैं ?
उत्तर – अतिगेयता कहना शायद संगत न हो पर यह भी सर्वमान्य है कि यह छन्द गीत-काव्य के लिए बहुत ही उपयोगी छन्द है । क्योंकि इसकी गेयता अत्यंत सधी हुई होती है I

प्रश्न – आपने अनुष्टुप छंद के विषम और सम दोनों का चरणान्त दीर्घ से माना है किन्तु संस्कृत साहित्य में अनेक ऐसे उदाहरण है जिनमे सम का चरणान्त लघु है I जैसे – ‘वर्णानां अर्थ संघानां, रसानां छंद सामपि’
उत्तर – हाँ, यह सत्य है कि अनुष्टुप छन्द के दोनों चरणों के आठवें वर्ण को लेकर कोई विशेष संकेत नहीं किया गया है । किन्तु इस छन्द के पाठ के समय दोनों चरणों के आठवें वर्ण पर विशेष स्वरबल दिया जाता है, यह उस वर्ण के गुरु होने का ’आभास’ देता है I हिन्दी काव्यशास्त्र में लघु वर्ण को बलाघात से गुरु की तरह उच्चारित करने की परिपाटी नहीं है । अतः हिन्दी में इस छन्द के सार्थक निर्वहन के लिए इसके दोनों चरणों के आठवें वर्ण को गुरु ही बरतना अधिक उपयुक्त होगा । ऐसा ही होना भी चाहिये ।

प्रश्न – यानी कि यहाँ ‘सामपि‘ को ’सामपी’ पढ़ा जायेगा ?
उत्तर – (मुस्कराते हुए) आप स्वयं पढ़कर देखिये ना !

प्रश्न – पढ़ने की कोशिश में यह वर्ण सचमुच दीर्घ की तरह उच्चारित होता है I वाकई कमाल की बात है I चलिए अब त्रिभंगी छन्द पर कुछ बातें करते हैं । इस छन्द के प्रत्येक पदो में चार चरण होते है और प्रथम दो चरणों में तुकान्त योजना देखने में आती है I क्या ऐसा कोई शास्त्रीय नियम है ?
उत्तर – ऐसा कोई शास्त्रीय नियम नहीं है । पिंगल संकेतों मे भी कुछ बातें छूट जाती रही हैं, या जानबूझ कर छोड़ी गयी हो सकती हैं । जिनपर विद्वान बाद में प्रकाश डालते आये हैं । यहाँ भी ऐसी तुकांतता को लेकर ऐसा सोचा जा सकता है I चौपइया या त्रिभंगी के पहले दो चरणों में तुकांतता हो तो काव्य-कौतुक बढ़ जाता है तथा छन्द सुनने में कर्णप्रिय लगता है । यों यह कोई शास्त्रीय नियम नहीं है ।

प्रश्न – खडी बोली हिन्दी के उत्थान के साथ ही सवैया का रचनाकर्म शिथिल होता चला गया । इस पर कुछ प्रकाश डालिये ?
उत्तर – हिन्दी भाषायी सीमाओं के कारण यह समस्या है I आंचलिक भाषाओँ, जैसे, अवधी, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली आदि में सवैया छंद में रचना कर्म अधिक सरल हुआ करता है । सवैया के वृत्त स्थापित वर्णों के कारण प्रयुक्त भाषा में एक सीमा के बाहर तक लचीलापन की अपेक्षा करते हैं I इस स्तर पर खडी हिन्दी में इस छन्द का निर्वहन दुसाध्य नहीं तो दुष्कर अवश्य है I पर काम हुआ है I बहुत काम हो रहा है I

प्रश्न – ‘अवधेस के द्वारे सकारे गयीं सुत गोद में भूपति ले निकसै‘ इस दुर्मिल सवैया में लगता है उर्दू गजलों की भाँति मात्राएँ गिरायी गयी हैं ?
उत्तर – कदापि नहीं I छंदों में तो मात्रापतन उस तरह से संभव ही नहीं है I वर्णिक छन्दों के वाचन के क्रम में शब्दों के उक्त अक्षरों पर स्वराघात शब्दों के स्वर के अनुसार न होकर प्रयुक्त हुए गण (यहाँ सगण) के पारिस्थितिक विन्यास, तदनुरूप आवश्यक उच्चारण के अनुसार होता है । इस पंक्ति के तीसरे और चौथे सगण में ‘रे’ जिन-जिन स्थानों पर विद्यमान हैं वे स्थान ’सगण’ के लघु वर्ण का स्थान हैं । अतः इनका उच्चारण इनकी स्वर मात्रा के अनुसार यानी ए-कार या दीर्घ उच्चारण न होकर, सगण के लघु स्थान को संतुष्ट करते हुए लघु की तरह ही हो रहा है I वैसे इस तरह के अभ्यास मे अभ्यासियों को बहुत ही सचेत रहने की आवश्यकता है ।

प्रश्न – काव्य रचना में लय-भंगता से बचने के लिए क्या सावधानी आवश्यक है ?
उत्तर – इस बात को बार-बार कहा गया है, और फिर भी यह कहना आवश्यक है कि समकल शब्द के बाद समकल शब्द का आना, विषमकल शब्द के बाद विषमकल शब्द का आना वस्तुतः लयभंगता के दोष से बच पाने का सटीक समाधान हुआ करता है ।

प्रश्न – एक आख़िरी प्रश्न छन्द-मञ्जरी जी, आपने छन्दों के विषय में भले ही आवश्यकतानुसार किन्तु उपयुक्त और उपयोगी जानकारी दी है । अब कृपया यह बतायें कि आप पर सौरभ पाण्डेय का कितना प्रभाव है ?
उत्तर – (चौंकते हुए) क्या बात करते हैं ? मेरे कहे विचार उन्ही के विचार हैं । मैं तो केवल माध्यम हूँ । उन्होंने शास्त्रीय छन्दों का जो अध्ययन किया है, उसी का प्रासंगिक स्वरूप मेरे माध्यम से प्रस्तुत हुआ है ।

प्रश्न – आपका बहुत-बहुत धन्यवाद । आपने हमें अपना कीमती वक्त दिया । नमस्कार ।
उत्तर- (मुस्कराते हुये) जी नमस्कार ।
*************************************

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Replies to This Discussion

वाह !!! बड़े ही से एक अनोखे अंदाज़ में यह समीक्षा पेश हुई है। आदरणीय सौरभ जी की नव सृजना यानी हिंदी साहित्य की धरोहरों में एक और बरकत कृति ‘‘छंद मं जरी’ , सुसज्जित हुई आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी के द्वारा कई उपनामों से सुमुखी, सुकेशी, सुनयना, सुहासिनी, शुभ्रवदना . जैसा कि नाम से ही छंद का रस टपकता है , गोपाल जी की प्रश्नो के जबाब में इस 'छंद मंजरी' में निहित सामग्रियों के परत भी खुलते जाते है। इस समीक्षा पढ़ने के बाद पुस्तक पढ़ने की चाह अनायास ही तीव्र हो उठी है। बहुत -बहुत बधाई आपको आदरणीय डॉ गोपाल नारायण जी इस समीक्षा के लिए आपको।

आदरणीय सौरभ जी को भी हिंदी साहित्य में इस योगदान के लिए शत -शत नमन ! __/\__/\__/\__

आ० कांता राय जी . आपका बहुत-.बहुत आभार . विस्तार से बचते हुए इतना ही लिखा गया .पुस्तक  अनमोल है इसमें संदेह नहीं . सादर ,

आदरणीय गोपाल नारायणजी, आपकी सोच में जो रचनात्मकता है वह आपके ज्ञान को बहुमुखी कर देती है. छन्द-मञ्जरी को मैंने अपने हिसाब से आकार अवश्य दिया. लेकिन आपने जैसे इसके साथ बातचीत की है उसको पटल पर ले आना आपही के बूते की बात है. छन्द-मञ्जरी के प्रति आपके लगाव और उसके कथ्य के प्रति आपकी आश्वस्ति मेरे जैसे लेखक के लिए जहाँ परम संतोष की बात है, तो अन्यान्य पाठकों के लिए समुचित जानकारी है. आपने इस कार्यशाला पुस्तक के एक-एक पहलू को न केवल रेखांकित किया है बल्कि उसे रोचक ढंग से प्रस्तुत भी किया है. 

मैं आपकी गहन समीक्षा के प्रति सादर नत हूँ तथा आपके समीक्षक की खरी-खरी आत्मीयता के प्रति हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ. 

शुभेच्छाएँ. 

आ९ सौरभ जी , आप यदि अपनी ही रचना की आलोचना से संतुष्ट है तो मुझे आश्वस्ति  है की मैं भटका नहीं हूँ . सादर .

जय-जय ! 

सादर आभार आपका आदरणीय गोपाल नारायण जी ! 

आदरणीय गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर, छंद-मंजरी से साक्षात्कार के रूप में बहुत ही रोचक समीक्षा लिखी है आपने. यह पुस्तक मैंने कई बार पढ़ी है लेकिन आप के इस 'शानदार साक्षात्कार' को पढने के बाद कई कई नए तथ्यों का परिचय होगा. इस साक्षात्कार के आलोक में छंद-मंजरी का पठन अब और भी रोचक हो जाएगा, यक़ीनन अनेक नई परतें खुलेंगी. इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक आभार. सादर नमन 

आ० मितिलेश जी , आपका आभार प्रकट करने शब्द अभी तक ईजाद नहीं हुए . सादर .

आदरणीय गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी आपके द्वारा छंद मंजरी का साक्षात्कार हर सृजनकर्ता,पाठक और अभ्यासरत नव रचनाकर्मियों के लिए मील का पत्थर साबित होगा। आदरणीय सौरभ जी की कृति को आपने जिस तरह प्रश्नोत्तर के रूप में प्रस्तुत किया है उसके लिए आपको हार्दिक नमन और आदरणीय सौरभ जी जिन्होंने इसे सृजित किया है उनको कोटि कोटि धन्यवाद की उन्होंने साहित्य सागर के छंद रूपी मोतियों से हर किसी के ज्ञान को प्रकाशित करने का सफल प्रयास किया है। सादर   .... 

धन्यवाद आदरणीय . बहुत बहुत आभार .

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