एक ग़ज़ल.......
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 नजर है तो पढ़िए गजल झुर्रियों में
 ये चेहरा कभी है रहा सुर्खियों में।
 वतन को सजाने के वादे किए थे 
 सदा आप उलझे रहे कुर्सियों में।
 मसीहा समझ के था अगुवा बनाया
 मगर आप भी ढल गए मूर्तियों में।
 चढ़ाया हमीं ने उतारेंगे हम ही
 पलक के झपकते, यूँ ही चुटकियों में।
 अरुण के इशारे समझ लें समय है
 नसीहत को गिनिए नहीं धमकियों में।।
(मौलिक व अप्रकाशित)☺
Comment
आदरणीय अरुण जी गजल के लिए बघाई कुबूल करें गुणी जन कह ही चुके हे बाकी बातें । सादर
वाह निगम साहब बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई । बधाई आपको ।
मगर आप भी खो गए जातियों में ।
जनाब अरुण कुमार साहिब, ग़ज़ल की अच्छी कोशिश है, मुबारकबाद क़ुबुल फरमाएं l मुहतरम समर साहिब के मशवरे पर ग़ौर कीजियेगा I शेर 2 के सानी मिसरे में सदा की जगह मगर ज़्यादा सही लग रहा है , देखिएगा
जनाब अरुण कुमार निगम जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
'मगर आप भी ढल गए मूर्तियों में'
ये मिसरा लय में नहीं देखियेगा 'मूर्तियों'?
' पलक के झपकते, यूँ ही चुटकियों में'
इस मिसरे में ऐब-ए- तनाफ़ुर है, देखें 'पलक के'
वाहःहः खूब
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