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ठहरी मिली है ज़िंदगी उनके गिलास में ।
मिलते कहाँ हैं लोग भी होशो हवास में ।।

देकर तमाम टैक्स नदारद है नौकरी ।
अमला लगा रखा है उन्होंने विकास में ।।

सरकार सियासत में निकम्मी कही गई ।
रहते गरीब लोग बहुत भूँख प्यास में ।।

बेकारियों के दौर गुजरा हूँ इस कदर ।
घोड़ा ही ढूढता रहा ताउम्र घास में ।।

यूँ ही तमाम कर लगे हैं जिंदगी पे आज ।
रहना हुआ मुहाल है अपने निवास में ।।

कितने नकाब डाल के मिलने लगे हैं लोग ।
चेहरा नहीं पढ़ा गया अब तक उजास में ।।

दौलत की ख़ासियत को जरा देखिए हुजूर ।
उलझे हजार हुस्न यहां खास खास में ।।

खुशबू सी आ रही है हवाओं से बेहिसाब ।
शायद बहार होगी कहीं आस पास में ।।

जब से खुला है मैकदा उनकी गली के पास ।
निकले शरीफ़ लोग बहुत बे लिबास में ।।

कड़वी ज़ुबान है तो उसे भी सलाम कर ।
कीड़ें पड़े तमाम हैं अक्सर मिठास में ।।

कैसा हवस का दौर है कैसे पढ़े हैं लोग ।
होते हैं फेल इश्क़ की पहली कलास में ।।

यूँ ही मिली नज़र थी इरादा भी नेक था ।
मुज़रिम बना गया है कोई फिर कयास में ।।

--नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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Comment by SALIM RAZA REWA on October 4, 2017 at 8:46pm

आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी
खूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई।

Comment by राज़ नवादवी on October 4, 2017 at 7:25pm

जनाब नवीन मणि त्रिपाठी साहब, सुन्दर रचना के लिए बधाई. 

बेकारियों के दौर गुजरा हूँ इस कदर ।
घोड़ा ही ढूढता रहा ताउम्र घास में ।।

खुशबू सी आ रही है हवाओं से बेहिसाब ।
शायद बहार होगी कहीं आस पास में ।।

बहुत खूब, वाह वाह. सादर 

Comment by Niraj Kumar on October 4, 2017 at 5:34pm

आदरणीय नवीन जी,

ग़ज़ल में समकालीन भावबोध की प्रभावी अभिव्यक्ति के लिए दाद के साथ मुबारकबाद.

'बेकारियों के दौर गुजरा हूँ इस कदर' - इसमें एक 'से' छूट गया है 

'निकले शरीफ़ लोग बहुत बे लिबास में' - इसमें 'बे लिबास में' ' व्याकरणिक रूप से ठीक नहीं है. देख लीजियेगा.

सादर 

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