For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

                      आज राजेश कुमारी ‘राज’ जी का ग़ज़ल संग्रह “डाली गुलाब पहने हुए” प्राप्त हुआ जिसे प्रकाशित किया है अंजुमन प्रकाशन ने l इस संग्रह में कुल 147 ग़ज़लें और कुछ शेर हैं l संग्रह हाथ में आया तो पूरा पढ़े बिना नहीं रह सका l कुछ ग़ज़लों को तहद में पढ़ा लेकिन अधिकांश को गुनगुनाते हुए l

इस संग्रह से गुजरते हुए कुछ शेर जहाँ मैं ठहर सा गया या कहें कि सोचने के लिए विवश हो गया अथवा जिन अशआर ने मुझे विचलित कर दिया; उन्हें साझा कर रहा हूँ-

 

 

एक शायर के गुणों और उसके कथ्य विस्तार पर क्या खूब शेर कहें हैं-

 

सुखनवरों का हुनर है जो ये समझते हैं

ये कैसा रिश्ता है कागज़ का रोशनाई से

 

रिमझिम बूँदें बरसें किसके सावन में

किसका गुलशन पीत कलम तू लिख देना

लिखूँ मैं शेर उल्फ़त पर, अदावत पर तुम्ही लिखना

चलों फिर देख लें चर्चा यहाँ किसकी ग़ज़ल का हो

ऐसे ही कुछ शेर और भी देखे जा सकते हैं जो बताते हैं कि राजेश कुमारी जी शायरी के विषय और महत्त्व की संवेदना को कितनी बारीकी से समझती हैं-

 

फ़िक्र-ए-शाइर नापती अब से अज़ल की दूरियाँ

उसके आगे ये ज़मीन-ओ-आसमां कुछ भी नहीं

 

पहुँच जाती मंजिल तलक धूप सच्ची,

दरीचे की उसको ज़रूरत नहीं है

 

साम्प्रदायिकता और उसके संवाहकों पर तीखा प्रहार करते इन मिसरों को देखिये-

 

वो चार लफ्ज़ बोल के चलते बने जनाब

लफ़्ज़ों का ज़ह्र देखिये फैला कहाँ कहाँ  

 

बँट गए फूल एक गुलशन के

इक हरा दूजा जाफ़रानी है

 

कई तलवारें बाहर म्यान से आती दिखाई दें

पकड़कर हाथ राधा का चले जो नूर का बेटा

 

बिलकुल खुली क़िताब है चेहरा ये आपका

हर रोज़ पढ़ रहे हैं इशारा न कीजिए

 

 

भ्रष्ट निकम्मी नौकरशाही और सरकारी दफ्तरों पर ये अशआर देखिये-

 

चाय पर चाय वो सुड़कते हैं

काम दफ़्तर का इक बहाना है

 

ख़ाली जेब लिए जाते हो काटेगा

कुर्सी पर जो बैठा लाल ततैया जी

 

जिस निजामत पर भरोसा किया था उसने ऐसे हालात पर लाकर खड़ा कर दिया है कि अब उसके नाम से भी लोग खौफ़ खाने लगे हैंl दरअसल सियासत ने जब अपना असली रंग दिखाना शुरू किया तो अदीबों को वही कहना पड़ा जो इन अशआर के संकेत कहते है –

 

खिज़ां के पास आने का ज़रा आभास होते ही,

उसे क्यूँ झुरझुरी आती है डाली से ज़रा पूछो

 

गुल तो न रहे, पी गए गुलकंद बना के

बस पाँव में चुभते हैं वहां ख़ार अभी तक

 

ज़ुल्म का बाज़ार अब ये बंद होना चाहिए

फिर नहीं तो रोज़ का ये सिलसिला हो जायेगा

 

 

आज़ादी के बाद भले ही कई संकल्प लिए गए हों, अनेक वादें किये गए हों लेकिन असलियत में  मजदूर और किसानों का वर्ग एक ऐसी पीड़ा और त्रासदी का भागी बना रहा जिसने उनका जीवन नर्क जैसा बना दिया और इस यथार्थ को अपने अलग अलग अशआर में, कभी सीधे-सपाटबयानी से लेकिन प्रभावकारी या कभी संकेतों से अभिव्यक्त करने का सफल प्रयास देखा जा सकता है-

 

दिल-ओ-जां से बनाते जो इमारत

उन्हीं लोगों को बेघर देखती हूँ

 

अफ़सोस क्या करें वो फ़क़त इक किसान था

छोड़ा न इक निशान कहीं खुदखुशी के साथ

 

नींद खुद पलकों पे आ जाएगी चलकर साहिब

एक मजदूर से बिस्तर तो बदलकर देखो

 

आकाश में उड़े न उड़े फ़िक्र क्या उन्हें

जाते हुए ग़रीब के वो पर कुतर गए

 

पंख कमज़ोर हो गए जिनके

ले के वो आसमान क्या करता

 

मुफ़लिसी का चिराग़ रौशन था

रात हारी ग़रीबखाने से

 

खुर्शीद बिन हुई है मुनव्वर ये झोंपड़ी

जुगनू ने दी उधार कोई रौशनी है क्या?

 

बात आ जाए अगर ख़ुद पे तो डरना कैसा?

अपना इल्ज़ाम ग़रीबों पे लगाते रहिए

 

ग़ज़लगो अगर समाज की दशा को शाब्दिक करता है तो उसी अनुक्रम में उसे दिशा भी दिखाता है l इस संग्रह में भी इशारों इशारों में सावधान करते और सीख देते शेर भी खूब कहे गए हैं-

 

हवा की रिवायत ज़रा सोच लेना

किसी का कहीं घर जलाने से पहले

 

जब मुहब्बत से काम बनते हैं

तल्खियाँ आप म्यान में रखिये

 

सख्त़ लकड़ी की ढली देखो अकड़

यूँ मुलायम हो गई है सील के

 

ख़ुदा की लाठी किसी को नज़र नहीं आती

मगर उसी के दिए कुछ निशान देखे हैं

 

नहीं टोका वहाँ हमने उन्हें शेखी दिखाने से

बिना ही बात रिश्तों में अदावत और हो जाती

 

व्यंग्य के माध्यम से इस ज़माने का चलन, बनावटीपन, अवसरवादिता और दुनिया की वास्तविकता इन अशआर में बढ़िया शाब्दिक हुई है-

 

उनको मदद मिलेगी बिना दाम कुछ दिए

इतना भी पाक साफ़ ज़माना तो है नहीं

 

मिलेंगे हर कदम पे रोज़ शातिर दस-मुखी इंसाँ

बने हैं राम कब कितने बता रावण जलाने से

 

देखकर रूह भी हुई हैराँ

हाथ को हाथ छल गया कैसे

 

जेब मेरी हो गई भारी ज़रा

दोस्त मेरे आजमाने आ गए

 

चेहरा मेरा तो साफ़ था, उस आईने पे गर्द थी

जुर्रत ज़रा तो देखिये, उसने मुझे झूठा कहा

 

कहीं इक फूल राहों में, कोई भगवान् के दर पे

बड़ा अफ़सोस है क़िस्मत बड़ी सबकी नहीं होती

 

बदलते समय के साथ मध्यवर्गीय जीवन जी रहे लोगों की सोच, विवशताओं और विडम्बनाओं को इन अशआर में बड़ी ही संजीदगी से अभिव्यक्त किया गया है-

 

ख्वाहिशें बच्चों की पूरी क्या करें

जेब से सहमा हुआ इतवार है

 

अज़ल से खोज रही है उदास पगडण्डी

निशाँ कोई तो मिले कारवाँ गुज़रने का

 

न ख्व़ाब हो सकें पूरे कहीं बिना दौलत

बना सकी न मुहब्बत ग़रीब ताज कोई

 

उम्मीद से बनाया है बच्चे ने रेत का

लहरों वहीँ रुको मैं ज़रा घर समेट लूँ

 

देखना मज़बूत कितना है नदी का आईना

हैं कई तैयार पत्थर आजमाने के लिए

 

अनमनी-सी वो अकेली रह गई क़िश्ती खड़ी

पाँव के नीचे से ही सारा समंदर बह गया

 

शज़र की छाँव में पलकर जहाँ सपने जवां होते

उसी को पंख आने पर परिंदे छोड़ जाते हैं

 

जहाँ बिखरी मुहब्बत और दानें

उसी छत पर कबूतर देखती हूँ

 

चलते चलते अब उन अशआर पर बात हो जाये तो हर ग़ज़लगो को ग़ज़ल की एक लम्बी परंपरा से विरासत में मिलता है एक अंदाज़l इस संग्रह के कुछ ऐसे अशआर जो रिवायती अंदाज़ के और प्रेम की अनुभूतियों के हैं-

 

हमारे वस्ल की रंगी फिज़ा इतना बता जाना

खिज़ां की मार से पीले हुए पत्ते कहाँ रक्खूँ

 

प्यास नदिया की बुझ गई होगी

अपने सागर में डूब जाने से  

 

एक हम थे जो ज़माने की नजर से डरकर

शाम खुर्शीद के ढलने की दुआ करते थे

 

कभी अपनी मुहब्बत को अगर गिनते गुनाहों में

मुकर्रर हर सज़ा के वास्ते हक़दार हम भी थे

 

जहाँ तक इस संग्रह की ग़ज़लों के शिल्प की बात है तो अरूज़ या ग़ज़ल के व्याकरण को राजेश कुमारी जी ने खूब साधा है l यह उनके सतत अभ्यास को दर्शाता है l सभी गज़लें अपने विधान की मात्रिक पाबंदियों पर तो खरी उतरती हैंl मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि हर गज़ल आपको पसंद आएगी और पुनः पुनः वाचन के लिए आपको आकर्षित करेगीl

 

(मौलिक व अप्रकाशित)

मिथिलेश वामनकर

भोपाल

Views: 1074

Replies to This Discussion

आद० मिथिलेश भैया , मेरे ग़ज़ल संग्रह के सबसे पहले समीक्षक होने की आपको तहे दिल से बधाई व् आभार | ये मेरा सौभाग्य है जो आपने इतने कम समय में पूरे संग्रह को पढ़कर उसकी गहराई तक जाकर अपने विचार व्यक्त किये अशआरों ने आपके दिल में जगह बनाई और उनसे उत्पन्न आह्सासात ने उनको कागज  पर उकेरने के लिए आपके  कलम को प्रेरित किया दिल की गहराई से आपकी शुक्रगुजार हूँ ममनून हूँ बहुत बहुत आभार आपका | 

बहुत ही बढ़िया समीक्षा की है आपने आदरणीय मिथिलेश जी | आप को जब यह किताब मिली थी उसी पल आपने कहा था आज रात ही इसको पढूंगा और आपने वही किया , रात भर आपने इस ग़ज़ल संग्रह को पढ़ा और त्वरित ही आपने समीक्षा भी लिखी , आपकी रूचि और आपकी लगन को साधुवाद | हार्दिक बधाई और ढेरों शुभकामनायें | 

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

अजय गुप्ता 'अजेय replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"आदरणीय योगराज जी, ओबीओ के प्रधान संपादक हैं और हम सब के सम्माननीय और आदरणीय हैं। उन्होंने जो भी…"
39 minutes ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on शिज्जु "शकूर"'s blog post ग़ज़ल: मुराद ये नहीं हमको किसी से डरना है
"आदरणीय अमीरुद्दीन साहब, आपने जो सुझाव बताए हैं वे वस्तुतः गजल को लेकर आपकी समृद्ध समझ और आपके…"
1 hour ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . . उमर
"आदरणीय सुशील भाई , दोहों के लिए आपको हार्दिक बधाई , आदरणीय सौरभ भाई जी की सलाहों कर ध्यान…"
1 hour ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . .
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा से समृद्ध हुआ । "
2 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया. . .
"आदरणीय शिज्जू शकूर जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय जी "
2 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post मौत खुशियों की कहाँ पर टल रही है-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
"आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ।... मतले पर…"
2 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी commented on शिज्जु "शकूर"'s blog post ग़ज़ल: मुराद ये नहीं हमको किसी से डरना है
"आदरणीय शिज्जु "शकूर" जी आदाब अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ, कुछ सुझाव पेश…"
2 hours ago
Nilesh Shevgaonkar replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"ऐसे😁😁"
14 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"अरे, ये तो कमाल  हो गया.. "
15 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"आदरणीय नीलेश भाई, पहले तो ये बताइए, ओबीओ पर टिप्पणी करने में आपने इमोजी कैसे इंफ्यूज की ? हम कई बार…"
15 hours ago
Nilesh Shevgaonkar replied to Saurabh Pandey's discussion पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय
"आपके फैन इंतज़ार में बूढे हो गए हुज़ूर  😜"
16 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post एक धरती जो सदा से जल रही है [ गज़ल ]
"आदरणीय लक्ष्मण भाई बहुत  आभार आपका "
18 hours ago

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service