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जिन्दगी की दास्तान

अपने इच्छाओँ का त्याग करके,
अपने आप को संभाला हमनेँ।

फिर भी शान्ति नही रहती है,

अपने आप से पूछा हमनेँ।

क्यो होती है किसी की शान्ति मे विघ्न?

क्या ये उचित है जो कर रहा हू मैं?

बेचैन हो उठता हूँ पागल सा लक्षण,

कराह रहा होता हू,

अकेले मे जब होता हू मैँ।।

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on September 6, 2010 at 6:34pm
आत्मचिंतन में निकली यह पंक्तिया सीधे ह्रदय को बेधती हुई निकल जाती हैं|
Comment by Raju on March 31, 2010 at 1:35pm
thanks to u for such a nice poem....
Comment by PREETAM TIWARY(PREET) on March 29, 2010 at 9:07am
bahut badhiay mahesh jee....bahut badhiya rachna baa..ekdam mast tarah se likhle bani......
aage bhi raur rachna ke intezaar rahi......

raure aapan
PREETAM KUMAR TIWARY
Comment by Team Admin on March 29, 2010 at 9:05am
bahut badhiya mahesh jee.....sabse pahle to aapka ye pehla blog hai uske liye aapko bahut bahut badhai.....
bahut acchi rachna hai aapki......
bahut sundar tarike se likha aapne...
aasha hai aage bhi aapki rachanye aati rahengi....
dhanyabaad.....


aapka apna
TEAM ADMIN
Comment by Admin on March 29, 2010 at 8:47am
महेश जी,सबसे पहले तो मैं आपको आपके पहला ब्लॉग पोस्ट करने पर बधाई देना चाहता हू , आपने अपनी चंद लाइन की कविता के माध्यम से बहुत कुछ कहने मे कामयाब हो गये है, महेश जी जिन्दगी तो एक जंग है जहा इन्सान को हमेशा किसी न किसी चीज से लडते रहना पड़ता है, और देर सबेर कामयाबी भी जरूर मिलती है, रही इच्छा की बात तो इच्छा को ऐसा घोडे की संज्ञा हमारे बिद्वानो ने दिया है की अगर इसपर नियंत्रण नहीं किया जाय तो यह इंशान को बर्बाद कर देता है, बहरहाल आप ने बहुत ही खुबसूरत कविता लिखा है ,धन्यवाद

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