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ओजोन की परत में अब छेद खल रहा है- आशुतोष

ओजोन  की परत में अब छेद खल रहा है

धरती झुलस रही है जग सारा जल रहा है

उन्नति के नाम पर हैं ये कारनामे अपने

तालाब पाट घर के हम बुन रहे हैं सपने

खेतों में चौगनी है माना फसल बढ़ी  पर

सब्जी अनाज फल में बिष खा रहे हैं अपने

नूतन प्रयोग अपना खुद हमको छल रहा है

धरती झुलस रही है जग सारा जल रहा है

ये गंदगी का ढेर जो चारो तरफ लगाया

इस गंदगी के ढेर को खुद हमने है बढ़ाया

हम खूब समझते है परिणाम जानते है

पर पोलिथीन में ही घर का सामान आया

खुद अपने हाथों मौत का षड्यंत्र चल रहा है

धरती झुलस रहे है जग सारा जल रहा है

बागों में तितलिया अब मिलती नहीं हैं ढूंढें

भंवरों की भ्रामरी भी अब न चमन में गूंजे

आता है अब भी यूं तो मौसम वो आम वाला

पर जाने हैं कहाँ गुम वो कोयलों की कूकें

प्यासी मही को बादल अब रोज छल रहा है

धरती झुलस रही है जग सारा जल रहा है

अब चील , गिद्ध मैना तीतर नजर न आते

फैला के पंख अपने न मोर नाच पाते

अब शेर चीते भालो शो पीस हो गए हैं

चमड़ी में भरा भूंसा महलो को हैं सजाते

हर जीव में जगत के आक्रोश पल रहा है

धरती झुलस रही है जग सारा जल रहा है 

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 5, 2017 at 8:29am
आदरणीय भाई जी रचना पर आपकी प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद सादर
Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 5, 2017 at 8:26am
आदरणीय गिरिराज भाईसाब रचना को आपका आशीर्वाद मिला यह मेरे लिए उत्साहवर्धक है सादर धन्यवाद और प्रणामके साथ
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 4, 2017 at 10:04pm
क्या खूब लिखा है...बहुत सुन्दर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 4, 2017 at 5:04pm

आदरणीय आशुतोष भाई , क्या बात है ..  पर्यावरण प्रदूषण पर बढिया गीत रचा है आपने , हार्दिक बधाइयाँ । आ. मिथिलेश भाई जी कोशिशों से गेयता और अच्छी हो गयी है , बधाइयाँ ।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 4, 2017 at 2:39pm

आदरणीय महेंद्र जी ..रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ सादर धन्यवाद के साथ 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 4, 2017 at 2:37pm

आदरणीय गोपाल सर रचना पर आपकी उत्साहवर्धन और मार्गदर्शन करती प्रतिक्रिया के ह्रदय से आभारी हूँ सादर प्रणाम के साथ 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 4, 2017 at 2:35pm

आदरणीय समर सर ..रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ सादर प्रणाम के साथ 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on January 3, 2017 at 11:18am

आदरणीय मिथिलेश जी नव बर्ष पर आपकी शानदार रचना को पढना उस गीत को पढ़कर जिन्दगी में पहली बार गीत लिखने का खुद प्रयास करना  ..प्रतिक्रिया न मिलने से निराश होना यह सोच कर की कही भयंकर भूल तो नहीं हुयी ..फिर आदरणीय समर सर आदरणीय गोपाल सर भाई महेंद्र जी की प्रतिक्रियाओं से मिला धाडस और अंत में आपकी बिस्तृत प्रतिक्रिया से गीत को समझने में बहत मदद मिली /मात्राओं को गिनने के सम्बन्ध में मेरी भ्रान्ति को नयी दिशा मिली./ नव बर्ष पर मेरे लिए ये किसी तुह्फे से कम नहीं है / आदरणीय मैंने ऐसी कुछ और रचनाये लिखी हैं उनकी बिधा के सम्बन्ध में प्रस्तुति के समय आपसे मार्गदर्शन मिलेगा /आपके मार्गदर्शन और प्रतिक्रिया  पर सादर धन्यवाद के साथ सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 3, 2017 at 12:36am

आदरणीय आशुतोष जी, आपका यह गीत एक बह्र जिसका वज्न 221-2122-- 221-2122 है, पर आधारित लग रहा है. गीत का मुखड़ा और पहला अंतरा तो इस पर फिट बैठ रहा है बाकी अंतरों में भी इसी बह्र की झलक है. इस बह्र पर गीत को कसा जाए तो गीत कुछ यूं लगेगा-

ओजोन  की परत में अब छेद खल रहा है

                                     धरती झुलस रही है संसार जल रहा है

उन्नति के नाम पर हैं ये कारनामे अपने

तालाब पाट घर के हम बुन रहे हैं सपने

खेतों में चौगनी है माना फसल बढ़ी  पर

सब्जी अनाज फल में बिष खा रहे हैं अपने

                               नूतन प्रयोग अपना खुद आज छल रहा है

                                    धरती झुलस रही है संसार जल रहा है

ये ढेर गंदगी का चारो तरफ लगाया

इस ढेर को भी यारो खुद हमने है बढ़ाया

हम खूब हैं समझते, परिणाम जानते है

पर पोलिथीन में ही, सामान घर का आया

                                 फिर मौत का स्वयं की षड्यंत्र चल रहा है

                                      धरती झुलस रहे है संसार जल रहा है

बागों में तितलिया अब मिलती नहीं हैं ढूंढें

भंवरों की भ्रामरी भी अब न चमन में गूंजे

आता है अब भी यूं तो मौसम वो आम वाला

पर जाने हैं कहाँ गुम वो कोयलों की कूकें

                                प्यासी मही को बादल अब रोज छल रहा है

                                      धरती झुलस रही है संसार जल रहा है

अब चील, गिद्ध, मैना, तीतर नजर न आते

फैला के पंख अपने ना मोर नाच पाते

अब शेर, चीते, भालू शो पीस हो गए हैं

भर खाल में जो भूसा महलों को हैं सजाते

                                    हर जीव में जगत के आक्रोश पल रहा है

                                        धरती झुलस रही है संसार जल रहा है 

गीत में बह्र अनुसार मात्रा गिराने की छूट भी ली गई है. 

इस शानदार गीत पर हार्दिक बधाई स्वीकारें. सादर 

Comment by Mahendra Kumar on January 2, 2017 at 9:49pm
आदरणीय आशुतोष जी, इस बढ़िया प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। कुछ टंकण त्रुटियों सहित "भालो" को "भालू" कर लीजिएगा। शेष गुणीजनों को बात पर ध्यान दें। मेरी तरफ से ढेरों शुभकामनाएँ। सादर।

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