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"मुसाफ़िर" हूँ मैं तो ठहर जाऊँ कैसे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

  • १२२/१२२/१२२/१२२
    *****
    पसरने न दो इस खड़ी बेबसी को
    सहज मार देगी हँसी जिन्दगी को।।
    *
    नया दौर जिसमें नया ही चलन है
    अँधेरा रिझाता है अब रोशनी को।।
    *
    दुखों ने लगायी  है  ये आग कैसी
    सुहाती नहीं है खुशी ही खुशी को।।
    *
    चकाचौंध ऊँची जो बोली लगाता
    कि अनमोल कैसे रखें सादगी को।।
    *
    बचे ज़िन्दगी क्या भला हौसलों की
    अगर तोड़  दे  आदमी  आदमी को।।
    *
    गलत को मिला है सहजता से परमिट
    कसौटी  पे  रक्खा   गया   है सही को।।
    *
    रतौंधी सी अब जो समय को हुई है
    छलावा न छल दे कही पारखी को।।
    *
    "मुसाफ़िर" हूँ मैं तो ठहर जाऊँ कैसे
    भले  नींद   आयी  तेरी  रहबरी  को।।
    *
    मौलिक/अप्रकाशित
    लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' 2 hours ago

आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। विस्तृत टिप्पणी से उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार।


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Comment by मिथिलेश वामनकर on October 6, 2025 at 9:21pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए शेर-दर-शेर दाद ओ मुबारकबाद क़ुबूल करें .....

पसरने न दो इस खड़ी बेबसी को
सहज मार देगी हँसी जिन्दगी को।

यहाँ "खड़ी बेबसी" उस निराशा और लाचारी को दर्शाती है, जो समाज में व्याप्त है। यह चेतावनी देता मतला क्या ही खूब हुआ है। इस बेबसी को फैलने से रोकना होगा, वरना यह जीवन की खुशी और उत्साह को नष्ट कर देगी। आपका आह्वान सही है कि हताशा को हावी न होने दें।

नया दौर जिसमें नया ही चलन है
अँधेरा रिझाता है अब रोशनी को।

आधुनिक युग के पतनशील मूल्यों की ओर इशारा करता बहुत बढ़िया शेर हुआ है, जहाँ अज्ञान और भ्रष्टाचार रुपी अँधेरा भले ही आकर्षक लगने लगा है लेकिन इससे सत्य व ज्ञान का उजाला अपना आकर्षण खो रहा है। वाकई में यह विडंबना समाज में सत्य और नैतिकता के कमजोर होने का इशारा है।

दुखों ने लगायी है ये आग कैसी
सुहाती नहीं है खुशी ही खुशी को।

वाह वाह क्या ही खूब शेर हुआ है, दुखों की इस आग ने मनुष्यता को इतना प्रभावित कर दिया है कि अब सच्ची खुशी को भी स्वीकार मुश्किल हो रहा है । वाकई यह मानसिक और सामाजिक तनाव की सशक्त अभिव्यक्ति है, जो खुशियों को भी बेमानी कर देता है।


चकाचौंध ऊँची जो बोली लगाता
कि अनमोल कैसे रखें सादगी को।

भौतिकवाद और दिखावे की संस्कृति पर कटाक्ष करता बेहतरीन शेर हुआ है धामी जी। चकाचौंध और वैभव की होड़ में सादगी और सच्चाई जैसे अनमोल मूल्यों को संरक्षित करना अब बहुत मुश्किल हो गया है। समाज के मूल्यहीन होते चलन को उजागर करते इस बढ़िया शेर के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें।

बचे ज़िन्दगी क्या भला हौसलों की
अगर तोड़ दे आदमी आदमी को।

मानवता की टूटन बहुत बढ़िया शाब्दिक हुई है इस शेर में । अगर इंसान ही इंसान को तोड़ दे, तो जीवन में हौसले और उम्मीद का क्या मतलब रह जायेगा ? सामाजिक विभाजन और मानवीय संबंधों के क्षरण को क्या खूब अभिव्यक्त किया है आपने।

लत को मिला है सहजता से परमिट
कसौटी पे रक्खा गया है सही को।

समाज में व्याप्त अन्याय को आपने बहुत बढ़िया अभिव्यक्त किया है, जहाँ गलत को आसानी से स्वीकार कर लिया जाता है,जबकि सत्य और सही को बार-बार परीक्षा से गुजरना पड़ता है। इस शानदार ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें। सादर

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