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बहर : २ १ २ २  २ १ २ २   २ १  २  

 

आई जब तू जिन्दगी हँसने लगी

तू मेरे हर  सपने में रहने लगी |

धीरे धीरे तेरी चाहत बढ़ गई

देखा तू भी  प्रेम में झुकने लगी |

जिन्दगी का रंग परिवर्तन हुआ

प्रेम धारा जान में बहने लगी |

राह चलते हम गए मंजिल दिखा

फिर भी जीना जिन्दगी गिनने लगी |

देखिये शादी के इस बाज़ार में

हाट में दुल्हन यहाँ  बिकने लगी |

शमअ बिन तो तम डराने  जब लगा

जिन्दगी को जिन्दगी छलने लगी |

दीप का लौ  झिलमिलाते ही रहे

एक आँधी तेजी से बहने लगी |

 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Kalipad Prasad Mandal on September 10, 2016 at 7:28am

आदरणीय शिज्जू "शकूर " जी ,आदाब ! ब्लॉग पर आने और अमूल्य विचार प्रगट करने के लिए आपका आभार | परन्तु 

"हँसने" और "रहने " में क्या दोष है समझ में  नहीं आया | "ने " हर्फे रवी है उसके पूर्व स्वर "अ " है ,स्वर साम्य  है ,परन्तु उसके पूर्व व्यंजन "स"और "ह' है जो साम्य  नहीं है |अत:उसके पहले  ह और र से कोई वास्ता नहीं है |हमें "ने" के पूर्व स्वर तक निभाने की वाध्यता है |ऐसा मैं सोचता हूँ | आगे आप किस दोष के बारे में कह रहे हैं, मैं समझ नहीं पाया, कृपया बिस्तार से कहे,|

सादर  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 8, 2016 at 10:56am

आदरणीय कालिपद जी ग़ज़ल पर प्रयास अच्छा है आपका, काफी कुछ समर साहब ने कह दिया है मेरी तरफ से बधाई आपको, मैं एक बात ज़रूर कहूँगा कि काफ़िया चयन में सावधानी रखी जाए तो ऐब से मुक्त रहा जा सकता है, इस ग़ज़ल के मतले में आपने हँसने और रहने काफिया लिया है जो नियमानुसार दोषपूर्ण है।

Comment by Samar kabeer on September 8, 2016 at 10:29am
मुआफ़ कीजियेगा,'जब इक आंधी तेज़ी से बहने लगी'ग़लती से ये मिसरा लिख दिया,अस्ल में ये मिसरा लिखना चाहता था:-
"दीप की लौ झिलमिलाती ही रही
एक आंधी तेज़ी से बहने लगी"
में ये लिख ही रहा था कि आपने एडिट भी करदी ।
Comment by Kalipad Prasad Mandal on September 7, 2016 at 9:56pm

आदरणीय समर कबीर जी ,आदाब ! हर शेर को ध्यान से पढने और कमियों को दूर करने का सुझाव देने किये तहे दिल से आभार | मैंने कापी में सुधार लिया है | एक  बात सिखने  को मिली --"जब इक " को पढ़ते  समय उच्चारण 'जबि क ' ही होगा न ?और इसे २१ ही लिया जायगा ?

सादर 

Comment by Kalipad Prasad Mandal on September 7, 2016 at 9:44pm

आ आमोद जी शेर पसंद करने के लिए धन्यवाद 

Comment by Samar kabeer on September 7, 2016 at 3:44pm
जनाब कालीपद प्रसाद मंडल जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुआ है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
ग़ज़ल का ये शैर देखिये:-
'मांग खुब है शादी के बाजार में
हाट में ही दुल्हनें बिकने लगी'

इस शैर के ऊला मिसरे में 'खुब'शब्द सही नहीं,सही शब्द है "ख़ूब",दूसरी बात 'दुल्हनें'शब्द की वजह से रदीफ़ एक वचन से बहुवचन हुई जा रही है'लगीं' ।ये शैर इस तरह से ठीक होगा:-
"देखिये शादी के इस बाज़ार में
हाट में दुल्हन यहां बिकने कगी"
छटे शैर के ऊला मिसरे में आपने फिर वही शब्द'खुब'बांध लिया है,यहां "खुब"की जगह"जब"कर लें।
आख़री शैर:-
'दीप का लौ झिलमिलाते ही रहे
आंधियां जब तेज़ी से बहने लगी"
इस शैर में भी 'आंधियां'शब्द की वजह से रदीफ़ बहुवचन हो रही है,'लगीं',इस शैर को इस तरह किया जा सकता है :-
"दीप की लौ झिलमिलाती ही रही
जब इक आंधी तेज़ी से बहने लगी"
बाक़ी शुभ शुभ
Comment by amod shrivastav (bindouri) on September 7, 2016 at 2:03pm
मांग खूब है सादी के बाजार में .....बेहतरीन व्यंगात्मक शेर
Comment by amod shrivastav (bindouri) on September 7, 2016 at 2:01pm
वह्ह्ह सर मस्त भाव सृजन

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