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ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव" अंक- 62 की समस्त रचनाएँ चिह्नित

सु्धीजनो !

दिनांक 18 जून  2016 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 62 की समस्त प्रविष्टियाँ 
संकलित कर ली गयी हैं.




इस बार प्रस्तुतियों के लिए दो छन्दों का चयन किया गया था, वे थे दोहा, कुण्डलिया और सार छन्द.



वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के अनुसार अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.

यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव, ओबीओ
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१. आदरणीया राजेश कुमारी जी
सार छंद
=========
बांच रही बंदरिया चिट्ठी, बिठा पास में बच्ची
कैसे उसको कुछ समझाए,अभी उम्र में कच्ची

बांच रही बंदरिया चिट्ठी, ध्यान मग्न ये होकर
गुम-सुम बैठी लगती मुन्नी,अभी उठी हो सोकर

बांच रही बंदरिया चिट्ठी,जैसे बहुत जरूरी
दूध पिलाएगी मुन्नी को, पढ़कर खबरें पूरी

बांच रही बंदरिया चिट्ठी,ख़ास खबर है आई
मार झेलता है सूखे की ,मेरा मानव भाई

बांच रही बंदरिया चिट्ठी,कैसे टूटे सपने
खान पान की बदहाली में ,छोड़ गए सब अपने

बांच रही बंदरिया चिट्ठी,एक खबर पर अटकी
जंगल जंगल चलती आरी,अक्ल मनुज की सटकी

बांच रही बंदरिया चिट्ठी,कुदरत से ही पंगा
स्वार्थ साधने को मानव ने,मैली कर दी गंगा

बांच रही बंदरिया चिट्ठी,आई विपदा भारी
मानव जग में कैसी फैली ,भ्रष्टाचार बीमारी

बांच रही बंदरिया चिट्ठी,आज लुटी फिर लाली
दूर मनुज से रहना मुन्नी,उनकी नीयत काली

बांच रही बंदरिया चिट्ठी,धूप छाँव ये जीवन
मानव दुनिया से अच्छा है ,अपना जंगल उपवन

बांच रही बंदरिया चिट्ठी,मानव से बस कहना
कुदरत ही सिखलाती सबको ,कैसे सुख दुख सहना

बांच रही बंदरिया चिट्ठी,जितना दे रघुराई
खुशी उसी में ढूँढो अपनी,मेरे मानव भाई
*****************
२. आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
कुंडलिया
=======
छैमाही का आगया, लगता है परिणाम
अंक सूचि पढ़ते पिता,पुत्र पढ़े हरि नाम
पुत्र पढ़े हरि नाम, मार का भय है मन में
कंपन बढ़ती जाय, रही ना ताकत तन में
धड़कन का अब हाल, कहे बिन पानी माही
ऐसा ही परिणाम, लगे है ये छैमाही

अनुभव तो कहता यही, सत्य यही सर्वत्र
जो पढ़ना जाने नहीं , बाँच रहे हैं पत्र
बाँच रहे हैं पत्र , वही जो मन को भाये
पढ़े लिखों की आँख-कान तक शर्मा जाये
कोई भी बदलाव, हुआ ना अब तक संभव
बीते पैंसठ साल, यही सच मेरा अनुभव

जंगल का क्या हो गया, दिल्ली जैसा हाल
अनपढ पागल हो गया, पढ़ा लिखा बे हाल
पढ़ा लिखा बेहाल, मगर मन में हँसता है
क्यों गदहे का लाल, बिना जाने बकता है
आ जाये शनि रोज़, नहीं आता है मंगल
दिल्ली का भी हाल, हुआ है जैसे जंगल

 

द्वितीय प्रस्तुति
छन्न पकैया - सार छंद
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छन्न पकैया छन्न पकैया, वो ! बन्दरिया बन्दर
दिल की बातें आज निकालूँ, तब खाली हो अंदर

छन्न पकैया छन्न पकैया, पढ़ा लिखा है बंदर
नाम गलत पा कर दुश्मन का , खुश है अंदर अंदर

छन्न पकैया छन्न पकैया,‘कल तक’ को बुलवाओ
इस गलती को खींचो तानो , और बड़ा दिखलाओ        .......... (संशोधित)


छन्न पकैया छन्न पकैया, छोटा बन्दर बोला
सुन के ऐसी भारी ग़लती, धरने को मन डोला

छन्न पकैया छन्न पकैया, पहुँचो जंतर मंतर
टी व्ही वाले जब आ जायें, तब जायेंगे अंदर

छन्न पकैया छन्न पकैया , हम भूखे हड़ताली
भीड़ जुटाओ, उनको बोलो, खूब बजायें ताली

छन्न पकैया छन्न पकैया, यूँ नेता बन जायें
अपनी तनखा आप बढ़ायें, कंबल में धी खायें
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३. आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
दोहा
====
जंगल का जबसे हुआ चौपट कारोबार
तबसे पढ़ते वन्य नर फुरसत में अखबार

मैं पढ़ता हूँ ध्यान से तुम भी सुनो सुजान
यहाँ लिखा है राशिफल तारक है बलवान

नही रहेंगे एक दिन जंगल बिरवे शेष
पर इस संकट से हमें चिंता नहीं विशेष  .. (संशोधित)

नगरों में होगा नया अब अपना आवास
और करेंगे पार्क में जमकर हास विलास........ (संशोधित)


मानव से डरना नहीं यह मन में अनुमान
वे सब अपने भक्त हैं हम उनके हनुमान

कुण्डलिया
======
मामा जी के हाथ में है दैनिक अखबार
दुनिया में क्या हो रहा है इसकी दरकार
है इसकी दरकार जा रहे पकड़े वानर
सख्त हुयी सरकार कीश का करे निरादर 
कहते है ‘गोपाल’ किया जमकर हंगामा
चिड़ियाघर में ऐंठ निकल जायेगी मामा

सार छंद
=====
बंदर मामा बंदर मामा किस उपवन में आये ?
दो पन्ने का बासी पेपर चुरा कहाँ से लाये ?
यूँ तो सारा दिन करते हो तुम अपनी मनमानी
लेकिन अब बक-ध्यान लगाकर बन बैठे हो ज्ञानी

बंदर मामा बंदर मामा कब सीखा है पढ़ना ?
छोटे मामा को बतलाओ कैसे आगे बढ़ना
तरुओं की शाखा-शाखा पर तुम लहराते जाते... (संशोधित)
इसी चपलता के कारण ही शाखामृग कहलाते

बंदर मामा बंदर मामा काम नहीं कुछ करते
बात-बात पर घुड़की देते बच्चे तुमसे डरते
मोटेमल हो मस्त कलंदर कभी न भूखो मरते
छीन झपटकर माल पराया पेट स्वयम का भरते  .. (संशोधित)

बंदर मामा बंदर मामा पढ़-पढ़ कर कुछ सीखो
अच्छे-अच्छे कपडे पहनो सुन्दर-सुन्दर दीखो
अपनी छोडो छोटे मामा के बारे में सोचो
संकटमोचन के वंशज हो अपने संकट मोचो
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४. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी
प्रथम प्रस्तुति .................
कुण्डलिया छन्द
=============
आया है सरकार से, एक नया फरमान।
जंगल खाली कीजिए, आयेंगे इंसान।।
आयेंगे इंसान, यहाँ बस वही रहेंगे।
सुन लो वन के जीव, तुम्हें रहने न देंगे।।
जो पशुवत बिन पूँछ, उन्होंने सदा सताया।
बेटे बारम्बार, उजड़ना रास न आया।।

 

आँख लड़ाई सौत से, हर दिन हँसी मजाक।
भेज दिये तेरे पिता, लिखकर तीन तलाक।।
लिखकर तीन तलाक, फिरै लम्पट आवारा।
इंसानी कानून, नहीं है मुझे गवारा।।
फैला वन में रोग, हवा शहरों से आई।
सौतन का भी दोष, स्वार्थ में आँख लड़ाई।।

द्वितीय प्रस्तुति 

सार छन्द

========

छन्न पकैया छन्न पकैया, जंगल की हरियाली।

कोयल मैना भौंरा गाये, चिड़ियाँ डाली डाली॥

छन्न पकैया छन्न पकैया, बजरंगी अवतारी।

माँ बेटे की सुंदर जोड़ी, लगती कितनी प्यारी॥

छन्न पकैया छन्न पकैया, धूप गुनगुनी प्यारी।

जैसे जैसे सूरज चढ़ता, लग़ती गर्मी भारी॥

छन्न पकैया छन्न पकैया, प्रेम पत्र है आया।

लिक्खा सावन में आयेंगे, पढ़कर मन हर्षाया॥

छन्न पकैया छन्न पकैया, अच्छे दिन आयेंगे।

पिता तुम्हारे घुँघरू  टोपी,  ढपली भी लायेंगे॥

छन्न पकैया छन्न पकैया, संसद की तैयारी।

पशुओं की हर बात रखेगी, बंदरिया महतारी॥

 

दोहा छन्द                                                                       

========

जंगल पर कब्जा किये, हैं मनु की संतान।

पहले देव समान थे, अब लगते शैतान॥

बेटा अंगद जान लो, तन मन हो बलवान।

साथ साथ तब जी सकें, पशु पक्षी इंसान॥

परम पिता हनुमान हैं, देते बल औ’ ज्ञान।

फिर भी सब में फेल हो, खेल कूद में ध्यान॥

बुद्धि तेज हो योग से, करो सुबह औ’ शाम।

मरकट आसन साथ में, करना प्राणायाम॥

(संशोधित)

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५. आदरणीया कान्ता राय जी
सार छंद
=========
छन्न पकैया छन्न पकैया, कहाँ से आई चिट्ठी
किसने भेजी प्रेम पत्र में , बातें मिठ्ठी - मिठ्ठी

छन्न पकैया छन्न पकैया, बंदर की बुधियारी
सुबह सवेरे उठकर देखो , करते है अखबारी

छन्न पकैया छन्न पकैया , बजरंगी तुम आओ
पर्यावरण की रक्षा शुभ-शुभ ,मानव को चेताओ

छन्न पकैया छन्न पकैया, जंगल किसने काटा
घर हमारा छीन हतभागा ,धरती- धरती पाटा

छन्न पकैया छन्न पकैया, लछुमन से थी यारी
अमरत्व पाकर घुम रहे है ,दीनन के हितकारी

छन्न पकैया छन्न पकैया, कैसी जोरा -जोरी
निर्बल पर जो जोर दिखाया ,उनकी थी कमजोरी

छन्न पकैया छन्न पकैया,बन्दर भैया आओ
कान फूंककर चपत लगा कर ,सबका हिस्सा खाओ

द्वितीय प्रस्तुति
दोहा छंद
======
बंदर को घर चाहिए ,ये उसका अधिकार
जंगल में मंगल रहे , सुख दुख हो उपकार

मान का सम्मान नहीं , समय काल विपरीत
पशु -पशुता पूज्यनीय , आदम भया पतीत

बंदरिया के हाथ में , किसका है नसीब
जीवन अब कागज भया ,राहू खड़ा करीब

अनुचित कर्म न कीजिये , होत धर्म का नाश
बंदरिया के खेल में , जीवन हुआ विनाश

हम है भक्त कबीर के ,सुनो बाल हनुमान
रहिमन के चित में सदा , चित्त राम के नाम

बगुला बन कर जो रहे , उससे रहिये दूर
गाँठ बाँधों बेटा जी , बात बड़ी मशहूर

कागज़ पर फरमान सुन ,क्यों बैठे असहाय
चार जने मिलकर चलो , पर्वत लेय उठाय
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६. आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी
(1) दोहा-छन्द
=========
जाए जंगल में कहाँ ,बन्दर आखिरकार ।
छोटे बच्चे के सिवा ,नहीं मकाँ घरबार ।

खर्च भला कैसे चले ,बैठा है बेकार ।
बन्दर रोज़ी के लिए ,पढता है अखबार ।

जब भी निकले काम पर ,मचे शहर में शोर ।
बन्दर को करना पड़ा ,रुख जंगल की ओर ।

कहता है धनवान यह ,कहता है यह रंक ।
मचा हुआ है हर तरफ ,बन्दर का आतंक ।

जंगल में पहुंचा दिया ,सबने पत्थर मार ।
बन्दर की तक़दीर में ,कहाँ लिखा घर बार ।

जंगल में बनवास को ,चले गए जब राम
बालाजी के भेष में ,बन्दर आया काम ।

कुंडलिया
====

बन्दर हाथों में लिए ,बैठा है अखबार
उसका कोई है मका , और न है घरबार
और न है घरबार ,पास ही बैठा बच्चा
मतलब से अंजान ,कौन है झूठा सच्चा
कहे यही तस्दीक ,बनाए कैसे यह घर
कब है यह इंसान, ज़ात है इसकी बन्दर................ (संशोधित)

 

जंगल में ढूंढा बहुत ,मिला न कोई यार
बैठ गया दीवार पर ,बन्दर आखिर कार
बन्दर आखिर कार ,बहुत ही सुन्दर मंज़र
पढता है अखबार ,हाथ में लेकर बन्दर
कहे यही तस्दीक, मनाये बन्दर मंगल
मोह नगर का छोड़ , ख़ुशी से आया जंगल

सार -छन्द
=======

छन्न पकैया छन्न पकैया ,कितना सुन्दर मंज़र
पढ़ करके अखबार सुनाए ,हाल जगत का बन्दर............ (संशोधित)

छन्न पकैया छन्न पकैया ,लगता है बेचारा ।
आखिर कहें किसे बन्दर को ,सबने पत्थर मारा ।
छन्न पकैया छन्न पकैया ,इन पर करो न शंका ।
रावण की फूंकी थी तन्हा,बालाजी ने लंका ।

छन्न पकैया छन्न पकैया ,आँख दिखाए बन्दर
लाज़िम है अब पकड़ो इसको ,छोडो वन के अन्दर। .........  (संशोधित)


छन्न पकैया छन्न पकैया ,जान अगर है प्यारी ।
दूर भाग जा बच्चा लेकर , ढूंढे तुझे मदारी ।
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७. आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी
दोहा गीत
=======
ख़त आया सरकार का ,बंदरिया के पास
छोटा बन्दर पूछता ,क्या है ख़त में ख़ास

क्यों भेजी सरकार ने ,पाती तेरे नाम
इतने बन्दर हैं वहां ,हमसे है क्या काम
मानव की तू बात का, मत करना विश्वास

हम कपियों के हाल सब ,लिख दे उनको आज
कपि सारे बेघर हुए ,कैसा जंगल राज
वन में घुस आये नगर ,लूटे हमसे वास

यहाँ वहां सब ओर हैं ,फैले विद्युत् तार
बेघर बन्दर बैठते ,होते नित्य शिकार
क्यों न करें उत्पात हम ,छूटी है सब आस

राम दूत ने था किया ,उड़ कर सागर पार
रावण के मद को किया ,चूर भरे दरबार
क्या कपियों की शान का ,भूल गए इतिहास

कुण्डलियाँ छंद
बेटे का परिणाम है ,बंदरिया के हाथ
डर कर चुप बैठा हुआ ,बेटा भी है साथ
बेटा भी है साथ ,गणित में नंबर जीरो
मोटर बाइक रेस, किया करता था हीरो
टीवी भी दिन रात, देखता लेटे लेटे
क्यों करते हैरान ,बताओ माँ को बेटे
***************************
८. आदरणीय कालीपद प्रसाद मण्डल जी
दोहे
===
शिक्षा में नयी नीति का, देश किया एलान
अशिक्षित जो शिक्षित हो, जनता सभी समान |1|
आरक्षण है स्कूल में, जिनके पिता गरीब
हम तो जमीन हीन हैं, भू नहीं इक जरीब |२|
बेटा हनु तू स्कूल जा, समाज देगा मान
मानव पूजेंगे तुझे, समझेंगे हनुमान |३|
फ़ीस माफ़ हो जायगा, मिलेगा यूनिफार्म
स्कूल बना लेंगे कभी, निजी एनिमल फॉर्म |४|
न वर्षा न पानी कहीं, ना मिटती है प्यास
अन्न मिलेगा स्कूल में, कर मुझको विश्वास |५|
पढ़ोगे लिखोगे तभी, होगे तुम इन्सान
पढ़ लिख कर होगे बड़े, होगा मेरा मान | ६|
फल फूल खाद्य अन्न से, जंगल है वीरान
इसे छोड़ जाना उधर, है जिधर खान पान |७|
नहीं चाहते छोड़ना, पर माने ना पेट
इन्सान के अतिक्रमण, जंगल लिया समेट |८|
कपि के वंशज हैं सभी, रक्खा न वंश मान
मानव का नव सभ्यता, करे हमें अपमान |९|
ना ही घमण्ड ज्ञान का, मन में नाहंकार
सज्जन करते सदा, औरों पर उपकार |१०|
********************************
९. आदरणीय डॉ. टीआर सुकुल जी
दोहा छंद
======
जब से माँ पढ़ने लगी, हमको दिया बिसार।
अपने में भूली रहे, करती नहीं दुलार।१।

कैसी आयी है हवा, दसों दिशा में शोर।
नर किन्नर को घेर अब, रुख वानर की ओर।२।

पढ़ लिख कर नर हो गये , नर के दुश्मन आज।
प्रेम भाव सब खो गया, ना लिहाज ना काज।३।

ऐंसे पढ़ने का भला, है भी कोई मोल।
काम काज के कुछ नहीं , व्यर्थ बजायें ढोल।४।

हम तो वानर ही भले, नर से है क्या काम।
सभी साथ में घूमते, वन में फिरें तमाम।
***********************************
१०. आदरणीय सचिन देव जी
कुंडलियाँ छंद
===========
पूरे मन से पढ़ रहे, पेपर वानर राज
देख नतीजा पुत्र का, समझाते हैं आज
समझाते हैं आज, लिये हाथों में पेपर
दिल में था अरमान, पुत्र तुम बनते टॉपर   ....(संशोधित)
कितने भी हों अंक, पिता के स्वप्न अधूरे
छपे पुत्र का चित्र, तभी अरमां हों पूरे

 

पापा तुम भी दे रहे, बे मतलब का ज्ञान
आती ये नौबत नही, पहले देते ध्यान
पहले देते ध्यान, बोर्ड में अड़ी फँसाते
ज्यादा मिलते अंक, टॉप हम भी कर जाते
हमको मिलती पोस्ट, सुधरता योर बुढापा
कहता ये इतिहास, आप टॉपर के पापा
****************************
११. आदरणीय केवल प्रसाद जी
कुण्डलिया
=======
बंदर पढ़ता पत्र जो, उसमें मर्कट के हाल.
दिल्ली से भेजा गया, पहुंचा बन भूचाल.
पहुंचा बन भूचाल, सभी बंदर घबराये.
रस छंद अलंकार, व्याकरण नाक चिढ़ाये.
हुये गांव बेहाल, शहर जंगल सब गिरधर.
लोकतंत्र के तात, मारते हैं अब बंदर.
**********************
१२. आदरणीय सतीश मापतपुरी जी
दोहे
===
पढ़कर के अखबार अब , पुरखे भी हैरान .
बढ़िया है बानर रहे , बने ना हम इंसान .
हत्या लूट खसोट की , ना कीजै अब बात .
अब टॉपर के खेल में , डाल दिये हैं हाथ .
अभी तलक तो कैद है , हर सीने में आग .
धधक गयी कुर्सी सहित , हो जाओगे खाक .
जिनके मत से आप हो . खाली उनके हाथ .
चार दिनों की चांदनी ,फिर तो काली रात .
छोटा बानर हँस रहा , देख मनुज का हाल .
नर से नारायण बड़ा, लिखता सबका भाल .
***************
१३. आदरणीय रमेश कुमार चौहान जी
कुण्डलिया
=======
बंदर दल वन छोड़ कर, घूम रहे हर गांव ।
छप्पर छप्पर कूद कर, तोड़ रहे हर ठांव ।
तोड़ रहे हर ठांव, परेशानी में मानव ।
रामा दल के मित्र, हमें लगते क्यों दानव ।।
अर्जी दिया ‘रमेंश‘, समेटे पीर समंदर ।
पढ़े वानरी पत्र, साथ में नन्हा बंदर ।।

पढ़ कर चिठ्ठी वानरी, दिये एक फरमान ।
अनाचार के ठौर को, गढ़ लंका तू जान ।
गढ़ लंका तू जान, जहां दिखते मनमानी ।
प्रकृति संतुलन तोड़, आदमी करते नादानी ।
काट रहें हैं पेड़, व्यपारी बन बढ़-चढ़ कर ।
किये न सम व्यवहार, आदमी इतने पढ़ कर ।।
*******************
१४. आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी
दोहे
=====
लेकर कागद हाथ में,ख़बर रहा हूँ बाँच
अब वंशज के कृत्य से,जी पर आई आँच।।

क्या-क्या करता जा रहा,भूला सोच-विचार
कागज़ संग्रह में लगा,रहा प्रकृति को मार।।

केवल वानर मान कर,मुझको कर ना भूल
अच्छे-अच्छों को कभी,ठीक चटाई धूल।।

इंसाँ पढ़ना भूल कर,फिरता चारों ओर 

अकल दिलाने को सही,लगा रहा हूँ जोर।।   .. . (संशोधित)
****************************
१५. आदरणीया वन्दना जी
सार छंद
=========
क्या मानव को सूझा फिर से कौतुक कोई न्यारा
या संदेसा लिखकर भेजा उसने कोई प्यारा

कैसा यह नोटिस है मम्मा मुझको भी बतलाओ
पढ़ना लिखना मुझको भाए थोड़ा तो सिखलाओ

चाहूँ तो बेटा मैं भी यह तुमको खूब पढाऊँ
लेकिन भूल मनुज की देखूँ सोच सोच घबराऊँ

काट काट कर जंगल नित-नित कागज ढ़ेर बनाये
ज्ञान बाँटने को फिर नारे नए नए लिखवाये

पेड़ बचाओ कहता फिरता इक दूजे से अक्सर
और फाड़ता बिन कारण ही बिन उत्सव बिन अवसर

पढ़ने लिखने का मतलब है जो सीखो अपनाओ
कथनी-करनी के अंतर से अब तो ना भरमाओ

भेज रही हूँ उन्हें निमंत्रण आकर देखें जंगल
पेड़ों की खुसफुस पंछी के कलरव सुनना मंगल

बातों से ना जी बहलाओ असली जोर लगाओ
छोटे से छोटे कागज़ को भैया जरा बचाओ
***********************
१६. आदरणीय अशोक शर्मा कठेरिया जी
कुण्डलिया छन्द
=============
बाप पढ़ रहा लब्धियाँ बेटा गढ़े भविष्य,
परम्परा इस सृष्टि की गुरु गुरुकुल औ शिष्य,,
गुरु गुरुकुल औ शिष्य किन्तु अब कैसी दीक्षा?
कोचिंग की है फीस और मैनेज्ड परीक्षा,,
कह ‘कटेठिया’ यार मीडिया ताप चढ़ रहा,
टॉपर का सब हाल यहाँ भी बाप पढ़ रहा,,

देखूँ तो कैसे हुआ मानव का मैं बाप?
इस दुनियाँ में वह बढ़ा, मैं क्यों झोलाछाप?
मैं क्यों झोला छाप? डोलता डाल - डाल पर,
सहता दुख संताप मौन सब इस सवाल पर,,
कह ‘कटेठिया’ यार भला किस पर मैं शेखूँ?
बिना पूँछ सब पूँछ, पूँछ, पर पूँछ न देखूँ,,

बापू तू भी पढ़ जरा,,,,,,, शिक्षा का है दौर,
बिना ज्ञान मिलता नहीं यहाँ किसी को ठौर,,
यहाँ किसी को ठौर,,,,, योजना सरकारी है,
तकनीकी हो ज्ञान ,,पढ़े दुनियाँ सारी है
कह ‘कटेठिया’ तात ! ज्ञान उन्नति का टापू,
टीचर मांगे प्रूफ ---- पढ़े हैं कितना बापू? .............  (संशोधित)


******************************
१७. आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी
कुण्डलिया-छंद :
===========

सेल्फ़ी बन्दर की छपी, कितनी अद्भुत बात।

हम भी बैठे आस में, देने सबको मात।।
देने सबको मात, पोज़ में बैठा बच्चा।
फोटो खींचे ख़ूब, पर्यटक कोई सच्चा।।
लेते तन की ख़ास, नहीं सेल्फ़ी अन्दर की।
ख़ूब मज़े के साथ, छपी सेल्फ़ी बन्दर की।।

(संशोधित)

*****************************

१८. आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी

दोहे 

===

बन्दर से नर हो गए, कहता है इतिहास

फिर हम क्यों बन्दर रहे, ये कैसा उपहास

 

मानव कैसे लूटता, जंगल के घर-बार

चल बेटा बस जान लें, पढ़कर यह अख़बार

 

खबरों में संत्रास है, आपस में है क्लेश

कैसे अपने लोग हैं, कैसा अपना देश?

 

कहता जंगल राज तो, शिक्षा है अंधेर

चुपके से पढ़ लूँ जरा, आ ना जाए शेर

 

माई पढ़ना छोड़कर, मुझसे कर लो प्यार

इसमें सब कुछ व्यर्थ है, क्या पढ़ना अखबार

 

पाती ये आदर्श की, अब तो है बेकार

बापू के बन्दर सदा, तीनों ही लाचार

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Replies to This Discussion

यथा निवेदित तथा संशोधित ..

सादर हार्दिक आभार सर।

मोहतरम जनाब सौरभ साहिब , ओ बी ओ चित्र से काव्य तक छन्दोत्सव अंक -62 की कामयाब निज़ामत और त्वरित संकलन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं । मेरे एक दोहे का मिसरा हरा , कुंडली के दो मिसरे लाल और सार छन्द के दो मिसरे लाल हैं , महरबानी करके उन्हें संशोधित करने की कृपा करें ।

(१)  दोहा ---6

     जंगल में बनवास को ,पहुंचे थे जब राम

   बालाजी के भेष में , बन्दर आया  काम ।

(२ ) कुंडली ---1

       बन्दर हाथों में लिए ,बैठा है अखबार  

   उसका कोई है मकाँ ,और न है घरबार   

  और न है घरबार ,पास ही बैठा बच्चा   

  मतलब से अंजान , कौन है झूठा सच्चा  

   कहे यही तस्दीक ,बनाए कैसे यह घर  

   कब है यह इंसान , ज़ात है इसकी बन्दर ।

(३ )  सार छन्द

(१ )   छन्न पकैया छन्न पकैया ,कितना सुन्दर  मन्ज़र 

     पढता है अखबार खोल कर ,हाल जगत का बन्दर

   (५ )  छन्न पकैया छन्न पकैया ,आँख दिखाए बन्दर  

        लाज़िम है अब पकड़ो इनको ,छोडो वन के अन्दर

         शुक्रिया। .........        

आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी, आपके उक्त दोहे का पहला पद (पंक्ति) भी भूलवश हरा होने से रह गया है. वैसे मैंने हरा किया था लेकिन लगता है कि वह सही ढंग से क्लिक नहीं हो पाया. 

अर्थात, जंगल में बनवास को ,पहुंचे थे जब राम  भी हरे रंग में है. 

सार छन्द में आप द्वारा संशोधित -  पढता है अखबार खोल कर ,हाल जगत का बन्दर .. यह पंक्ति भी अशुद्ध है

सादर

मोहतरम जनाब सौरभ  साहिब, महरबानी करके पहले दोहे को इस तरह संशोधित करने की कृपा करें

दोहा -१

जंगल में बनवास को ,चले गए जब राम

बालाजी के भेष में ,बन्दर आया  काम ।

मोहतरम सार छन्द की अशुद्धि समझ में नहीं आई , फिर भी उसे निम्न  तरह संशोधित कर दीजिये

छन्न पकैया छन्न पकैया ,कितना  सुन्दर मंज़र

पढ़ करके अखबार सुनाए ,हाल जगत का बन्दर

शुक्रिया। .........

आदरणीय तस्दीक अहमद साहब, 

वस्तुतः पहुंचे सही शब्द नहीं है. इस शब्द की सही वर्तनी होगी, पहुँचे. इसी कारण उक्त पंक्ति को हरा करने या होने की बात हो रही थी. चन्द्रविन्दु और अनुस्वार में बड़ा भारी फ़र्क़ होता है. इसे हमें रचनाकार होने के कारण विशेष तौर पर समझने और बरतने की आवश्यकता है.

सार छन्द के चरणों का अन्त रगण या नगण से नहीं होता. चरणान्त के लिए चार लघु, या दो लघु+एक गुरु, या एक गुरु+दो लघु या दो गुरु सही विकल्प हैं.  

जब आप  पढ़ता है अख़बार खोल कर  लिखते हैं तो खोल कर के कारण नगण (तीन लघु) से अन्त होने की सूरत बनती है. ऐसा होना ही दोष का कारण है. 

विश्वास है, आप मेरी बातों से संतुष्ट हो पाये हैं. 

सादर

मोहतरम जनाब सौरभ साहिब , इतनी अच्छी तरह जानकारी देने का बहुत बहुत शुक्रिया  सार छन्द नंबर ४ और कुंडली नंबर १ को संशोधित करने की कृपा करें । 

सार छन्द ---

 

     छन्न पकैया छन्न पकैया ,आँख दिखाए बन्दर

    लाज़िम है अब पकड़ो इसको  ,छोडो वन के अन्दर। 

    कुंडली -१

बन्दर हाथों में लिए ,बैठा है अखबार  

उसका कोई है मका  , और न है घरबार  

और न है घरबार ,पास ही बैठा बच्चा

  मतलब से अंजान ,कौन है झूठा सच्चा

  कहे यही तस्दीक ,बनाए कैसे यह घर

  कब है यह इंसान, ज़ात है इसकी बन्दर

 शुक्रिया

आदरणीय तस्दीक अहमद खान साहब, 

// इतनी अच्छी तरह जानकारी देने का बहुत बहुत शुक्रिया //

हार्दिक धन्यवाद भाई. 

लेकिन यह भी सही है कि यह कोई ऐसी जानकारी नहीं है जो व्यक्तिगत तौर पर आपसे साझा कर रहा हूँ. यदि भारतीय छन्द विधान समूह में सार छन्द पर उपलब्ध आलेख को आपने देखा होगा तो यह स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है और उन वाक्यों को बोल्ड भी किया हुआ है.

आपके निवेदन को प्रतिस्थापित किया गया, आदरणीय.. 

सादर

आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 62 की सफलता के लिए हार्दिक बधाई. मुझे खेद है कि  पिछले सप्ताह अतिव्यस्तता के कारण मैं छ्न्दोत्सव के लिए कोई रचना नहीं कर सका. शनिवार देरी से आयी रचनाओं के अतिरिक्त सभी रचनाओं को पढने का अवसर मिला. शेष रही रचनाओं को संकलन में पढ़ सका हूँ. इस चिन्हित त्वरित  संकलन के लिए भी आपको बधाई.सादर.

आप विश्वास करें, आदरणीय अशोक भाईजी, ऐसे आयोजनों में आपकी उपस्थिति बहुत ही सहयोगी हुआ करती है. कई विन्दुओं पर आपकी सचेष्ट सलाहें सटीक हुआ करती हैं. व्यस्तता ही है कि इस आयोजन केलिए हम भी कोई रचना प्रस्तुत न कर सके. लेकिन होना तो यह चाहिए कि नये सदस्य भी रचनाकर्म करते हुए नयी विधाओं के प्रति जागरुक बनें. 

सादर

आदरणीय सौरभ भाईजी

सफल आयोजन, संकलन, और साहित्य जगत के सिखाड़ियों, खिलाड़ियों को 48 घंटे तक सही मार्ग दर्शन देने के लिए आपका आभार और शुभकामनायें।

संकलित रचना को संशोधित पूरी रचना से प्रतिस्थापित करने की कृपा करें।......... सादर

द्वितीय प्रस्तुति .................

सार छन्द

....................................

 

छन्न पकैया छन्न पकैया, जंगल की हरियाली।

कोयल मैना भौंरा गाये, चिड़ियाँ डाली डाली॥

छन्न पकैया छन्न पकैया, बजरंगी अवतारी।

माँ बेटे की सुंदर जोड़ी, लगती कितनी प्यारी॥

छन्न पकैया छन्न पकैया, धूप गुनगुनी प्यारी।

जैसे जैसे सूरज चढ़ता, लग़ती गर्मी भारी॥

छन्न पकैया छन्न पकैया, प्रेम पत्र है आया।

लिक्खा सावन में आयेंगे, पढ़कर मन हर्षाया॥

छन्न पकैया छन्न पकैया, अच्छे दिन आयेंगे।

पिता तुम्हारे घुँघरू  टोपी,  ढपली भी लायेंगे॥

छन्न पकैया छन्न पकैया, संसद की तैयारी।

पशुओं की हर बात रखेगी, बंदरिया महतारी॥

.............................

दोहा छन्द                                                                       

..................

जंगल पर कब्जा किये, हैं मनु की संतान।

पहले देव समान थे, अब लगते शैतान॥

बेटा अंगद जान लो, तन मन हो बलवान।

साथ साथ तब जी सकें, पशु पक्षी इंसान॥

परम पिता हनुमान हैं, देते बल औ’ ज्ञान।

फिर भी सब में फेल हो, खेल कूद में ध्यान॥

बुद्धि तेज हो योग से, करो सुबह औ’ शाम।

मरकट आसन साथ में, करना प्राणायाम॥

................

.............................................................                                            

यथा निवेदित तथा संशोधित ..

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