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"ओ.बी.ओ. लाइव महा उत्सव" अंक-67 की स्वीकृत रचनाओं का संकलन

श्रद्धेय सुधीजनो !

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-67, जोकि दिनांक 14 मई 2016 को समाप्त हुआ, के दौरान प्रस्तुत एवं स्वीकृत हुई रचनाओं को संकलित कर प्रस्तुत किया जा रहा है. इस बार के आयोजन का विषय था – “प्रकाश/उजाला/रौशनी”.

 

पूरा प्रयास किया गया है, कि रचनाकारों की स्वीकृत रचनाएँ सम्मिलित हो जायँ. इसके बावज़ूद किन्हीं की स्वीकृत रचना प्रस्तुत होने से रह गयी हो तो वे अवश्य सूचित करेंगे.

 

सादर

मिथिलेश वामनकर

मंच संचालक

(सदस्य कार्यकारिणी)

 

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1. आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी

 तुम, तुम्हारी रौशनी (अतुकांत)

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बन्द आँखों में कोई अँधेरा नहीं होता

उच्छृंखल उजालों की

मनाही होती है..

 

मेरी आँखों में आ जाओ..

दीपक की उस लौ की तरह

जिसके चारों ओर

आशान्वित अँधेरा

रौशनी को चुपचाप जीता रहता है

 

मैं बन्द आँखों में

तुम्हें महसूस करना चाहता हूँ

 

तुम्हारे लिए उत्कट चाहत की मुलायम उम्मीद

पलकों की कोर से ढलक

उतर आयी है..

और रुकी है

तुम्हारे थरथराते होठों के उज्ज्वल स्पर्श के लिए..

 

तुम्हारे होंठों को जीना चाहता हूँ

 

आओ

जितनी कि तुम मेरी हो,

जितनी.. तुम मेरे लिए हो जाती हो..

बस उतनी ही.. एक रत्ती अधिक नहीं

अपनी औकात पर, वर्ना शक होने लगता है

 

तुमने भी

कब चाहा है

मैं तुमसे मिलूँ किसी उपकृत-सा ?

 

आओ...

मैं चाँद नहीं

किरन-छुआ महसूस करना चाहता हूँ..

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2. आदरणीय समर कबीर जी

(ग़ज़ल)

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सब के किरदार हो गये रोशन

देखो बाज़ार हो गये रोशन

 

रात बस्ती जली ग़रीबों की

सुब्ह अख़बार हो गये रोशन

 

उसने क्या कह दिया कि चहरे पर

ग़म के आसार हो गये रोशन

 

ज़िक्र उनका ग़ज़ल में क्या आया

सारे अशआर हो गये रोशन

 

बुझ गये थे जो मेरे अश्कों से

फिर वो अंगार हो गये रोशन

 

मुझ को ज्यूँ ही "समर" शिकस्त हुई

सारे ग़द्दार हो गये रोशन

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3. आदरणीय डॉo विजय शंकर जी

अंधेरों से प्रेम (अतुकांत)

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अँधा युग ,

या युगों अंधे हम ,

इतिहास या सिर्फ डार्क-एजेस का पुलिंदा।

अंधेरों में क्या खोजते रहे हम ,

या जो था उसे छुपाते , गुमाते और खोते रहे हम।

अंधेरों में रहते-रहते अंधेरों के होके रह गए हम ,

इतने कि हर रौशनी-उजाले से डरने लगे हम ,

हर रौशनी को दूर भगाने लगे ,

हर रौशनी से दूर भागने लगे हम ,

महाभारत तो कब का खत्म हो गया ,

धृतराष्ट्र को जिंदा रखे हैं हम।

धृतराष्ट्र कितने भी

पर संतुष्ट नहीं होते हम ,

अंधेरों से इतना प्रेम करते हैं हम

अंधेरों से इतना प्रेम करते हैं हम।

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4. आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी

शब्द उजाला बनते हैं (गीत)   (संशोधित)

==========================

 

तमस मिटाने अन्तस् का
शब्द उजाला बनते हैं

प्राण-वायु घटती जाए
नज़र कहाँ कुछ भी आए
धूम-कणों से व्याप्त हुआ
वात मलिन होता जाए

शुद्ध हवा ना हो रौशन
वासर-निशा गहनते हैं|

नर प्रकृति संग खेला है
अब कष्टों की बेला है
आँख मूँद उन्नति करना
कुदरत संग झमेला है

तमस हटे लालच का तब
नए उजाले छनते हैं।

सही दिशा में हो सपने
कर्म ठीक हों फिर अपने
सोचें पूरी आगे की
लक्ष्य सधे तब सब अपने

ऐसे ही तप में तपकर
मानुष कुंदन बनते हैं ||             (संशोधित)

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5. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी

(दोहा छंद)

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एक ओर सूरज उगा, उजियाला हर छोर।

ऐसा ही गुरु तेज है, पहुँचे चारो ओर॥

 

भीतर का तम दूर हो, कर लो आँखें बंद।

ध्यायें परमानंद को, दे असीम आनंद॥

 

रौशन बेटी से हुआ, मैका औ’ ससुराल।

खुशियाँ बांटे बेटियाँ, जहाँ रहे जिस हाल॥

 

जीवन में तम हो घना, तन मन हो बेचैन।

गुरुवर के आलोक से, मिल जाये सुख चैन॥

 

बेटा कुल का दीप है, आस और विश्वास।

ब्याह बाद इतना जला, तेल बचा न कपास॥

 

प्यार मिला ससुराल से, किंतु एक है खास।

रात अमावस हैं सभी, साली चंद्र प्रकाश॥

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6. आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय

(गीत)

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थे मशाल बन राह दिखाते

धूमिल उन रिश्तों का मान

दौड़ लगी  जुगनू के पीछे ,भूले सब प्रकाश की खान

 

माँ की गोद लगा करती थी

राहत से इक पगा  बिछोना

घर बेटे के जगह नहीं अब

माँ की  खटीया  ढूँढे कोना

सीले जर्जर से कमरे में

,पड़ी हुई जैसे सामान

दौड़ लगी जुगनूं के पीछे ,भूले सब प्रकाश की खान

 

मन लगते वन कंक्रीट के

सोंधापन सब बिछड़ गया है

स्वार्थ की इस जमा घटा में

प्रेम लाभ से पिछड़ गया है

गुलदस्तों संदेशों में पिस

,नहीं बची रिश्तों में जान

दौड़ लगी  जुगनू के पीछे .भूले सब प्रकाश की खान

 

सूखे पड़े कहीं सारे घट

बिन पानी के जीवन भारी

कहीं खेल मस्ती पानी में

तरण ताल में उत्सव जारी

क्यों हरदम कुटीया की किस्मत

,सोती रहती लम्बी तान

दौड़ लगी जुगनू के पीछे ,भूले सब प्रकाश की खान

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7. आदरणीय पंकज कुमार मिश्र “वात्सायन”

(छंदमुक्त)

============================================

अद्भुत मनोरम

लगता आकाश।

स्याही पे बिखरा

स्वर्णिम प्रकाश।।

 

"मानो नीली साड़ी पर हुई स्वर्णिम कढ़ाई"

 

है शांत नदिया का

निर्जन सा ये तट।

इतनी जटाएं!

है, प्राचीन ये वट।

 

"मानो सूर्यातप से बचने को झोपड़ी बनाई"

 

पर्वत का जितना

है ऊँचा शिखर।

उतनी ही ज़्यादा

हिम है वहां पर।।

 

"मानो बर्फीली संवेदना, बताती ऊँचाई"

 

चिट चिट की आवाज़

करती चिता।

कहती है माटी ही

अंतिम पता।।

 

"मानो उजाला करने को ही ये आग लगाई"

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8. आदरणीय नादिर खान जी

रोशनी (क्षणिकाएँ)

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(एक)

 

बावजूद रोशनी के

दिखाई नहीं देती.... चीज़ें

जब तक हटाया न जाए

आँखों से पर्दा ….

 

अपने सही होने का यकीन

आत्म विश्वास तो बढ़ाता है

मगर मै ही सही हूँ

सिर्फ  और सिर्फ मै ...

यह अंधापन

बाहर की रोशनी को

ज्ञान के श्रोत को

बाहर ही रोक देता है

आने नहीं देता अपने अंदर

 

फिर रोशनी के बावजूद

कुछ दिखाई नहीं देता

इंसान असमर्थ और असहाय हो जाता है

यहाँ तक की मानसिक रूप से बीमार भी .......

 

 (दो)

 

कितनी ही बड़ी हो असफलता

चारों ओर अंधेरा ही अँधेरा हो

सफलता का एक दरवाज़ा

अवश्य होता है

जो मन के अंदर से खुलता है।

और बाहर रोशनी तक जाता है।

 

(तीन)

 

तेजी से फैलता है प्रकाश

चारों तरफ....

एक साथ ....

मगर कुछ भी दिखाई नहीं देता

किसी भी दिशा में

जब बंद हो आँखें .....

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9. आदरणीय चौथमल जैन जी

(छंदमुक्त)

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न सूरज की रोशनी, में है कोई मजाल। 

न चन्दा की चाँदनी, में है कोई मलाल॥

न तारों ओ न दिपक, का कोई धमाल।

ये तो है केवल आँखों, का ही कमाल ॥ 

पूछों दृष्टिहीनों से है कहाँ, रोशनी का पता। 

कह दे दिनकर से उन्हें ,जाकर रोशनी बता॥ 

जिसने दुनियाँ में आकर ,की है कोई खता। 

या कर तू ही नेत्रदान  ,दे दुनियाँ उन्हें बता॥

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10. आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी

(अतुकांत)

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आग, दीपक, लालटेन से

एल.ई.डी. होती ज़िन्दगी।

नीली-पीली, नारंगी से

सफ़ेद, झक्क सफ़ेद होती ज़िन्दगी।

काले की माया छिपाती

धन-दौलत की ज़िन्दगी।

 

आग, अलाव और मशाल से

शीत भगाती, तपती, भय हटाती

तम हरती जोशीली ज़िन्दगी।

 

जुगनुओं के पीछे, मशाल, टॉर्च लिये

ख़ुद या दूसरों के लिए

बीहड़ जंगलों में भटकती

कुछ नस्लों की ज़िन्दगी।

 

चूल्हे की ज्वाला में सिंकती रोटी जैसी

अपनों के लिए धुआँ सहती

नेत्र-ज्योति मिटाती ज़िन्दगी।

 

दीपक, लालटेन, स्ट्रीट लाइट में

अध्ययन कर, नाम कमाती

रौशनी फ़ैलाती ज़िन्दगी।

 

रंग-बिरंगी झालरों से जगमग

आतिशबाज़ी कर, कराकर

जश्न, दीवाली रोज़ मनाती ज़िन्दगी।

 

दौड़-भाग की जीवनशैली में

बिज़ली से चलती या फिर

सूर्य-ऊर्जा भरोसे ज़िन्दगी।

 

दिन के उजाले में सरेआम

ज़िन्दा जलाकर इन्सानों को

अंधकार फ़ैलाती ज़िन्दगी।

 

धर्म के व्यापार में

आतंक के अंधकार में

बस मोमबत्तियां जलाकर

शोक मनाती ज़िन्दगी।

 

विकास की चकाचौंध में

ज्ञान-विज्ञान की रौशनी से

वंचित कितनी, कितनी सिंचित ज़िन्दगी।

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11. आदरणीय डॉ. टी. आर. शुक्ल जी

प्रकाश (अतुकांत)

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यथार्थ को छिपाने की प्रवृत्ति,

मनुष्यों में है बहुत पुरानी।

अंधकार को कहेंगे- ‘‘ प्रकाश  की अनुपस्थिति‘‘ ,

परंतु अंधकार है कहाॅ?

कास्मिक किरणों से रेडियो तरंगों तक विस्तारित

विकिरण के अत्यन्त सूक्ष्म भाग ,

जिसके प्रति हमारी आॅंखें रहती हैं ‘‘उन्मत्त‘‘ उसे,

लोगों ने प्रकाश  कहकर अन्य को अंधकार माना,

उतने को ही सर्वस्व जाना,

शेष सबको कर दिया अनुपस्थित।

 

नेत्र बंद कर लेने पर भी, प्रकाश पुंज दिखता है स्पष्ट

इसी के सहारे अज्ञात भी होता है ज्ञात,

फिर भी  वे करेंगे अंधेरे की बात।

सब जानते हैं कि जलते हैं केवल,

बाती और तेल,

पर ! कहते हैं सब,

कि जलता है दीपक।

विसंगतियों का अजीब है रुख, 

इन्हीं को समेटे अनेक आडम्बर

ओढ़ता है ये मन,

और भरता है दम्भ....

ज्ञान का विज्ञान का, मान का सम्मान का!!

अमावश्या  में निहित प्रकाश--

को पाने का हो प्रयास,

तभी होगा --

अनन्त यात्रा के बीच विश्राम का आभास।

कृष्ण, महावीर और दयानन्द ने

कार्तिक के अंध को ,

सुना, बुना और गुना ,

परंतु उसमें व्याप्त प्रकाश  को ही चुना।

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12. आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी

(ग़ज़ल)

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मेरा तारीक दिल कब ख़ुद बख़ुद ही जगमगाया है।

तसव्वुर में मेरे कोई उजाला बन के आया है।

 

उजाला होने वाला है ज़रुरत क्या चरागों की

गुमां होता है कोई बज़्म में तशरीफ़ लाया है।

 

यही है ग़म कभी आया नहीं है रोशनी में वह

नज़र का तीर जब भी उसने इस दिल पर चलाया है।

 

छुपा लेती है तारीकी ज़माने के गुनाहों को

मगर नेकी का रस्ता तो उजालों ने दिखाया है।

 

हो हासिल इक किरण भी कैसे मुफ़लिस को उजाले की

अमीरों ने क़मर और शम्स को घर में छुपाया है।

 

नज़र मिलते ही जा कर छुप गया फ़ौरन घटाओं में

क़मर की रौशनी में क्या ग़ज़ब दिलबर ने ढाया है।

 

अँधेरा ही नहीं, हासिल हो आलम  को उजाला भी

ख़ुदा ने सोच कर ही चाँद सूरज को बनाया है।

 

बढ़ा दी किस ने लौ यारो तअस्सुब के चरागों की

उजाला हो गया है कम बढ़ा ज़ुल्मत का साया है।

 

हक़ीक़त है यही वह  रौशनी है उनकी यादों की

कि जिसने आशिके बेजान को जीना सिखाया है।

 

उजाला कुछ तो हो तस्दीक़ इस तारीक गुलशन में

फ़क़त यह सोच के हम ने नशेमन को जलाया है।

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13. आदरणीय मनन कुमार सिंह जी

(ग़ज़ल)

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है सबेरा की घड़ी पर रात फिर है

भोर बेघूँघट खड़ी पर रात फिर है।

 

है अँधेरों का सफर यह तय हुआ कब?

रोशनी पल्ले पड़ी पर रात फिर है।

 

गर चले होते गगन तो मिल गया था

पाँव की टूटी कड़ी पर रात फिर है।

 

श़ृंखला निर्मित हुई थी जब जुड़े दिल

ग्यान की सबको पड़ी पर रात फिर है।

 

बागवाँ खुश थे लुटाते चाहतें तब

लग रही घर-घर झड़ी पर रात फिर है।

 

रह गये उत्सव मनाते रोशनी का

राह है लहकी पड़ी पर रात फिर है।

 

मुश्किलों का सामना करते पथिक हम

आँख है फिर से लड़ी पर रात फिर है।

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14. आदरणीय कांता रॉय जी

अतुकांत

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कजरौटा भर काजल लगाये

गोरी ,कुँवारी , कजरारी आँखें

हिरणी -सी ,भरती कुलाचें

दिन -भर ,इत - उत ,डोला करती थी

 

काजल -सी स्याही रातों में

जाने कैसे ,किस रंग  में

मंदिर की दीप -सी

चुप-चुप जला करती थी

 

उम्मीद के पंख पर सवार

रंग लिए सपने बे-हिसाब

इंद्रधनुषी झरोखे पर बैठ

ख्वाब बुनने -गुनने लगी

 

क्या -क्या गणित लगाती

सपनों को नजर-बट्टू नहीं लगाती

 

सोचा ,

काजल भरी आँखों में

नजरबट्टू का क्या काम !

 

बचपन में काजल लगाते हुए

माँ ने काजल को

नजर-बट्टू दिया था नाम

 

अपनेपन में ,

काजल ने धोखा किया

सपनों को नजरा गया

नजरों ने नजर पर पहरा दिया

सुख भरे नैन में ,दुःख बिखरा गया

 

गोधूलि बेला में , सूरज की किरणों तले

दूर सागर के छोर जाकर

इंद्रधनुष विलीन हुआ

सातो -रंग लील गया

 

सौत की कजरारी आँखियाँ लहक गई

मतवाली नैनों में जा ,काजल भी बहक गई

पिया बौराये महुआ के गंध मे

प्रीत बिसराये जाने किस अंध में

बेला महक गई , दिल में चटक गई

 

बहती हुई आँखें होकर बेरंग

अब डगर - डगर फिरा करती है

 

भूरी ,सूनी -सी , आँखें लिये

कहीं बहुत दूर , उड़ती धूलों में ,

अनंत से उस शुन्य में

अपने प्रियतम को ढूंढा करती है

 

गोरी ,कुँवारी ,कजरारी आँखें

कजरौटा रहित ,उदास-सी आँखें

दिन - रात ,उनकी आस लिये

अब चिता-सी जला करती है

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15. आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी

गीत (सार छंद आधारित)

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सभी दिशाएं रौशन होंगी, फैलेगा उजियारा

जब तक होगा शेष जगत में, मानव भाईचारा,

 

खुले ह्रदय से स्वागत होगा, गैरों का भी जबतक,

बंद रखेगा बैर वहां मुँह, सचमुच मानव तबतक,

गली-गली हर नगर प्रेम की, बहती होगी धारा.

 

अपनेपन का भाव रहेगा, हर नारी हर नर में,

वृद्धों को सम्मान मिलेगा, तब मानव घर-घर में,

फैलाना सन्देश रहेगा, यह कर्तव्य हमारा.

 

मजहब की दीवार गिराएं, नयी निकालें राहें,

हो सकता है मानव सबकुछ, हम सारे यदि चाहें,

मानव हैं मानव का जग में, बनकर रहें सहारा.

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16. आदरणीय डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी

गीत

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तुम्हीं से जगत के हैं सारे उजाले

यदि कोई चाहे तो जीवन सजा ले

 

मैं चंद्रमा हूँ तू सूरज हमारा

मेरे हृदय का अनमोल तारा

मेरा वदन-चंद्र तुझसे प्रकशित

तुझ पर निछावर सुधा-सार सारा

     

रग-रग वपुष अपना मुझ से पुजा ले

तुम्ही से-------

 

मैं देखता हूँ प्रकृति के नज़ारे

हैं दीप्त सब रश्मि-कण से तुम्हारे

तुम्हारा ही सौन्दर्य बिखरा सभी में

धरती हो आकाश या हो सितारे

 

प्रणत को उठा आज तेरी भुजा ले

तुम्ही से-------

 

विभाकर प्रभाकर हैं तेरे खिलौने

सभी देवता आज दिखते हैं बौने

प्रवाहित है यदि प्रेम की दिव्य धारा 

प्रकृति प्रांगण ही हमारे बिछौने

 

न होंगे नयन में कभी भ्रान्ति जाले

तुम्ही से-------

 

अपनी प्रकृति में स्वयं तुम विचरते

अनुरूप युग के सदा रूप धरते

पाता नया ज्ञान तब लोक-जीवन

लीला नही,  मात्र कर्तव्य करते

 

वही कान्त प्रिय वेणु फिर से बजा ले

तुम्ही से-------

 

जिसे भा गयी त्तेरी दिलकश खुदायी

उसे कुछ असुंदर न देता दिखायी

कई रंग से तूने दुनिया लिखी है

है कितनी मुकद्दस तेरी रोशनाई

 

वही तेरी उल्फत का सच्चा मजा ले

तुम्ही से-------

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17. आदरणीय लक्ष्मण धामी जी

(दोहा छंद)

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एक तरफ नित रौशनी, तिमिर दूसरी ओर।

माँ जब खोले आँख तब, होती जग में भोर।।

 

अँधियारे के द्वार जब, माँ रखती है पाँव।

सदा खुशी  से  नाचता, उजियारे का गाँव।।

 

माँ के  हाथों  आ बढ़े,  दीपक का विश्वास।

तमस नया घर ढूँढता, घर में देख उजास।।

 

प्रकाश, दीप व रौशनी, कुछ गीतों की धार।

तम से लड़ने  को रहे, माँ  के ये  औजार।।

 

दीपक बाती ज्योति को, माँ का मिलता साथ

सत्य उजाला कब रहा, जग में भला अनाथ।।

 

ढले साँझ तो माँ रखे, गौ धूली का दीप

यही सूर्य का वंशधर, तम में रहे समीप।।

 

दे कर नित आशीष ये,‘लेना हर तम जीत’

माँ बिटिया को  सौंपती,  उजियारे की रीत।।

 

यह चन्दन का पेड़ है, मत समझो तुम दूब

पढ़ लिख कर बेटी करे, जग  उजियारा खूब।।

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18. आदरणीया राजेश कुमारी जी

(ग़ज़ल)

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मैंने  कहा वो  घर  जला उसने कहा छोड़ो मियाँ

अच्छा नहीं इतना नशा उसने कहा छोड़ो मियाँ

 

उस तीरगी के दरमियाँ घर बार उनके गुम हुए  

आ चल उजाला दें नया उसने कहा छोड़ो मियाँ

 

माचिस छुपाकर जेब में चुपचाप घर से वो चला

बारूद से क्या क्या उड़ा? उसने कहा छोड़ो मियाँ

 

यूँ छीनकर उनके उजाले खुद निगल कर रौशनी

क्या घर तेरा रोशन हुआ? उसने कहा छोड़ो मियाँ

 

यूँ जुगनुओं को मार कर खुद को समझता सूरमा

खुर्शीद क्या तुझसे मिटा उसने कहा छोड़ो मियाँ

 

अपनी अदालत में कभी  तुझसे अगर पूछे खुदा    

इंसान बन कर क्या किया? उसने कहा छोड़ो मियाँ

 

खुद की जलाई आग में खुद के उजाले जल गए   

यमराज से फिर गिडगिड़ा उसने कहा छोड़ो मियाँ

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19. आदरणीय सुशील सरना जी

खला में रोशनी की (अतुकांत)

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ये घास फूस की छत भी

कितनी गरीब होती है

यहां कभी

मौसम नहीं आते

पर हर मौसम की

बात होती है

बर्बाद कर देती हैं आंधियां

जब आशियाने को

तब यहां बरसात होती है

तप जाता है नंगा बदन

जब भानु से

रोशनी की गागर ले

रश्मियाँ आज़ाद होती है

थक जाते हैं जुगनू

अंधेरों से लड़ते लड़ते

भला चुटकी भर रोशनी से

कब स्याह रात में सहर होती है

कभी ज़िंदगी इस छत के नीचे

तिलभर रोशनी को तरसती है

तो कभी बरसती रोशनी की

आतिश में झुलसती है

ये घास पूस की छत

सच ,बहुत गरीब होती है

बिखरते तिनकों की छत में

बारिश रुक नहीं पाती

और पैबंदों में कभी

गरीबी छुप नहीं पाती

मुट्ठी भर सुकून की रोशनी के लिए

ज़िंदगी का कशकोल

खाली ही रहता है

और धीरे धीरे

खला में रौशनी की

इंसान खो जाता है

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20. आदरणीय विजय निकोर जी

फूलों-सी हँसती रहो (अतुकांत)

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कई दिनों से तुम

टूटी कलम से  लिखी कविता-सी

बिखरी-बिखरी

स्वयं में  टूटी,  स्वयं  में  सिमटी

अनास्क्त

अलग-अलग-सी रहती हो

कि जैसे हर साँझ की बहुत पुरानी

लम्बी रूआँसी कहानी हो तुम

दिन के उजाले पर जिसका

अब अधिकार न हो

और अनाश्रित रात की शय्या भी जैसे

उसके लिए हो गोद सौतेली 

              

सुना है तुम  रातों  सो  नहीं पाती हो

रखती  हो  कदम,  पेड़ों से छन कर आते

चाँदनी  की रोशनी के  टुकड़ों   पर

कि  जैसे पतझर  में सूखे पीले पत्ते

बिखरे हों  आँगन  में,  और तुम

व्यथित,  संतापी

झुक-झुक  कर  बटोरना  चाहती  हो  उनको

अपनी  परिवेदना  को  उनसे

संगति  देने             

 

पर  वह  सूखे  पीले  पत्ते  नहीं  हैं प्रिय

उखड़ी-उखड़ी-ही सही, रोशनी  के  धब्बे हैं  वह

जो  पकड़  में  नहीं आते,  और

तुम उदास, निराश,  असंतुलित

लौट  आती  हो  कमरे  में

अब भी सो नहीं पाती हो

और ऐंठन में

पुराने फटे अख़बार-सी अरूचिकर

अनाहूत, अनिमंत्रित अवशेष रात को

सुबह  होने  तक  ख़यालों  में

                                                    

मरोड़ती  हो स्वयं  को  मसोसती  हो

             

शायद जानता  हूँ  मैं चुपचाप तुम्हारी

इस अपरिमित अन्यमनस्क्ता का कारण

फिर  भी   सोचता हूँ,  और सोचता हूँ

तुम  टूटी  कलम से  लिखी  कविता-सी

इतनी  बिखरी-बिखरी-सी  क्यूँ  रहती  हो      

 

हर अन्धेरे की सरहद के पार प्रिय

आत्मोत्पन्न सत्य का उजाला है बहुत

मेरा  मन  चाहता  है  तुम

मन-प्राण-हृदय में रवि-रश्मि लिए

हमेशा  फूलों-सी  हँसती  रहो

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समाप्त 

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हार्दिक आभार आपका 

आदरणीय मंच संचालक जी सादर, "ओ.बी.ओ. लाइव महा उत्सव" अंक-67  की सफलता और सभी सम्मिलित रचनाओं के त्वरित संकलन के लिए हार्दिक बधाई.  कुछ रचनओं को महा उत्सव समाप्ति पश्चात पढ़ सका.इसलिए प्रतिक्रियाएं भी नहीं दे सका.उन रचनाओं के  रचनाकार क्षमा करें. सादर.

हार्दिक आभार आपका 

मोहतरम जनाब मिथिलेश साहिब ,ओ बी ओ लाइव महोत्सव अंक 67 की कामयाब निज़ामत और त्वरित संकलन के लिए दिल से मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं

हार्दिक आभार आपका 

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी "ओ.बी. ओ. लाइव महा उत्सव" अंक-67 के सफल आयोजन, संचालन व त्वरित संकलन घोषित करने के लिए आपको बहुत बहुत बधाई एवं संकलन में मेरी रचना को स्थान देने के लिया आपका हार्दिक आभार। 

आदरणीय सुशील सरना सर, इस प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार आपका. सादर 

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