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सूर्य से जो लड़ा नहीं करता (ग़ज़ल)

२१२२ १२१२ २२

 

सूर्य से जो लड़ा नहीं करता

वक़्त उसको हरा नहीं करता

 

सड़ ही जाता है वो समर आख़िर

वक्त पर जो गिरा नहीं करता

 

जा के विस्फोट कीजिए उस पर

यूँ ही पर्वत झुका नहीं करता

 

लाख कोशिश करे दिमाग मगर

दिल किसी का बुरा नहीं करता

 

प्यार धरती का खींचता इसको

यूँ ही आँसू गिरा नहीं करता

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(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by narendrasinh chauhan on March 14, 2016 at 10:06am

खूब सुन्दर रचना

Comment by Rahul Dangi Panchal on March 13, 2016 at 10:34pm
जी अब समझ गया मैंनें शायद गलत पढ लिया क्षमा
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 13, 2016 at 9:59pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय राहुल जी। यहाँ ‘समर’ है अर्थात फल है। जो फल पक कर भी नहीं गिरता वो पेड़ में लगे लगे ही सड़ जाता है।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 13, 2016 at 9:58pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय धामी जी। यहाँ ‘समर’ है अर्थात फल है। जो फल पक कर भी नहीं गिरता वो पेड़ में लगे लगे ही सड़ जाता है।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 13, 2016 at 9:57pm

बहुत बहुत शुक्रिया जनाब समर साहब। आप ठीक कह रहे हैं। त्रुटि की तरफ ध्यान दिलाने के लिए आभारी हूँ।

Comment by Rahul Dangi Panchal on March 13, 2016 at 9:41pm
लाख कोशिश करे दिमाग मगर
दिल किसी का बुरा नहीं करता

बहुत सुन्दर भैया जी बस दूसरा शे'र में शजर का सडना पता नहीं क्यूं समझ नहीं पाया
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 13, 2016 at 7:15pm

आ0 भाई धर्मेद्र जी इस सुंदर गजल के लिए हार्दिक बधाई । दूसरे श्ेर में समर है या शजर समझ नहीं पाया । 

Comment by Samar kabeer on March 13, 2016 at 2:46pm
जनाब धर्मेंद्र कुमार जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल कही आपने दाद के साथ मुबारकबाद कुबूल फरमाएँ ।
तीसरा शैर,विस्फोट के बाद पर्वत बिखर सकता है झुकता नहीं ।

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