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चुप हो जाते हैं ...

चुप हो जाते हैं.....

मन ही मन
हम कितना बतियाते हैं
जब अक्सर
हम चुप हो जाते हैं//

कभी आँखें बोलती हैं
कभी लब थरथराते हैं
रुके हुए पाँव
मील का पत्थर हो जाते है
जब अचानक
हम चुप हो जाते हैं//

तारीकियों के कैनवास पे
रिश्तों की सिसकती रेखाओं से
अपनी तूलिका में
दर्द का रंग भरकर
उसमें सिमट जाते हैं
अक्सर जब
हम चुप हो जाते हैं//

तपती राहों पर
सूखे होते शज़र से लिपट
अपने पीले पत्तों से अरमानों की
व्यथा दोहराते हैं
जब बेबसी के आलम में
हम चुप हो जाते हैं//

देखकर
ज़िंदगी के अंजाम को
हर उलझन के आराम को
देह के अवसान को
विलाप करते जहान को
खामोश नीले आसमान को
राख और शमशान को
हर चलते इंसान को
पत्थर बने भगवान को
हम बेज़ुबान हो जाते हैं
शब्द अंतर को कचोटते हैं
ख्वाब बिलबिलाते हैं
यथार्थ मुस्कुराते हैं
बंद मुट्ठी किये जब अक्सर
हम चुप हो जाते हैं//

सुशील सरना 

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on February 23, 2016 at 1:22pm

आदरणीया राहिला जी प्रस्तुति में निहित भावों को इतना सम्मान देने का मैं दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ। 

Comment by Rahila on February 23, 2016 at 11:40am
बहुत अच्छी प्रस्तुति आदरणीय सर जी! आपकी रचनायें तो मुझे भी प्रेरित करने लगी है कि मैं भी इस विधा में हाथ आजमाऊं।बहुत बधाई ।सादर

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