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आदरणीय चंद्रेश जी आप की लघुकथा ने एक नए भाव को छुआ है. सुन्दर लघुकथा व भाव संप्रेषण . बधाई आप को
आदरणीय ओमप्रकाश क्षत्रिय जी सर, लघुकथा के इस प्रयास पर आपकी उपस्थिति और सकारात्मक टिप्पणी से मेरा बहुत उत्साहवर्धन हुआ है, आपका सादर आभार| कृपया ऐसे ही स्नेह बनाये रखें|
लघुकथा का यह प्रयास आपको ठीक लगा और आपने अपनी टिप्पणी द्वारा मेरा उत्साहवर्धन किया, इस हेतु सादर आभारी हूँ आदरणीया बबिता चौबे शक्ति जी |
लघुकथा के इस प्रयास पर अपनी स्नेहिल टिप्पणी द्वारा मेरा मनोबल उच्च करने हेतु हार्दिक आभारी हूँ आदरणीया अनीता जैन जी|
अच्छी रचना चंद्रेश जी।
न्याय बहुत ही जटिल प्रक्रिया है , इसकी जटिलता को आपने सही दर्शाया।
अमृता प्रीतम जी ने किसी जगह लिखा था { सही शब्द याद नहीं मगर भाव नहीं भूला ) अदालत को पूरा सच पता नहीं होता। पूरा सच पता चल जाए तो किसी को सज़ा ही न दे पाएं।
आपने अमृता जी की विरासत को संभाला ,बधाई
आदरणीय प्रदीप नील जी सर, रचना को पसंद करने और अपनी स्नेहिल टिप्पणी से मेरा उत्साहवर्धन करने हेतु आपका हृदय से आभारी हूँ| निवेदन है कि कृपया ऐसे ही स्नेह बनाये रखें|
भाई चंद्रेश कुमार छतलानी जी, मैं आपका शुमार उन लघुकथाकारों में करता हूँ जिनसे हमेशा उच्चस्तरीय रचनायों की आशा रहती है, मुझे प्रसन्नता है कि आपने अपनी उस छवि को बरकरार रखने में कोई कोर कसार नहीं छोड़ी है I इस विष में आपकी प्रगति देखकर दिल बाग़-बाग़ हो जाता है I आपकी यह लघुकथा कहीं अन्दर तक प्रभावित तो करती ही है, साथ में ही न्याय-व्यवस्था पर ढेरों प्रश्न-चिन्ह भी उठाती है ? इस रचना की जितनी तारीफ की जाए कम होगी I अत: आपको दिल से बधाई और प्रशास्तिवाद I
इस इस लघुकथा पर थोड़ा सा काम और करें I आखरी इच्छा के बारे में आ० डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी ने जो किन्तु किया है, उस पर अवश्य ध्यान दें I दूसरा, //एक कैंची का...// सुनने के बाद न्यायधीश का एक प्रश्नात्मक संवाद जोड़ें I बाकी बातें न्यायधीश के प्रश्न के बाद कही जाएँ तो लघुकथा में कसावट और भी बढ़ेगी I
आदरणीय योगराज प्रभाकर जी सर, रचना पर आपके आशीर्वाद के लिए नमन आपको| आपने हमेशा ही मुझे लघुकथा के क्षेत्र में भटकने से बचाया है, आज भी अपने महत्वपूर्ण सुझावों के द्वारा रचना को श्रेष्ठ कर दिया| आदेशानुसार रचना में परिवर्तन किया है, निवेदन है कि एक नज़र और डालें कि दिशा आपके बताये अनुसार ही है या नहीं :
"अंतिम इच्छा"
कई वर्षों से चलते आ रहे मुकदमे का निर्णय आज लगभग तय ही था| वो कटघरे में खड़ी एक व्यक्ति की तरफ इशारा कर न्यायाधीश से रोते हुए कह रही थी, "सर, इसी ने अपने दोस्त के साथ मिलकर मेरी लज्जा भंग करने की कोशिश की...... और उसी समय इसका वो दोस्त मेरे हाथों से..... मारा गया| इन लोगों के झूठ का विश्वास मत करिये..."
प्रभावशाली व्यक्ति के उस बेटे के विरुद्ध कोई गवाह और सबूत नहीं मिल पाया था, जबकि उसने एक निर्दोष व्यक्ति की हत्या कर दी थी, उसके कई प्रमाण थे| न्यायाधीश ने उसे मृत्युदण्ड दे दिया|
निर्णय सुनते ही उसकी आँखें पानी से भर गयीं, फिर भी खुदको संयत कर के उसने भर्राये गले से कहा, "सर.... अपनी आखिरी इच्छा आज यहीं बताना चाहती हूँ.."
"ठीक है बताएं?" न्यायाधीश ने अपनी सहमती दे दी|
"मैं न्यायालय को एक दान देना चाहती हूँ..."
"किस चीज़ का दान?"
"एक कैंची का.... “
“कैंची का? क्यों?” न्यायाधीश ने हैरानी से पूछा|
“ताकि न्याय की यह देवी अपने आँखों पर लगी पट्टी काट सके| अब इसे आवाज़ और आँसूंओं के स्पर्श की सच्चाई समझ में नहीं आती और तराज़ू के पलड़े भारी क्यों है वो भी इसे पता नहीं चल रहा|"
हार्दिक बधाई आदरणीय चंद्रेश जी!आप की रचनायें पढने को मैं सदैव आतुर रहता हूं क्यंकि आप की प्रस्तुति हमेशा लीक से हट कर होती है!यही विशेषता आपकी लघुकथाओं को एक नया मुक़ाम देती हैं!लघुकथा के विषय और प्रस्तुतिकरण में तो आप लाज़वाब हैं!आप की यह रचना भी निःसन्देह बेहतरीन है!न्यायपालिका की मज़बूरी और न्याय याचिका की बेचैनी को समुचित तरीके से वर्णित किया है!अति सुंदर !पुनः बधाई!
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लघुकथा का यह प्रयास आपको ठीक लगा और आपने अपनी टिप्पणी द्वारा मेरा उत्साहवर्धन किया, इस हेतु सादर आभारी हूँ आदरणीया नयना (आरती) कानिटकर जी |