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थपथपाये हैं हवा ने द्वार मेरे

मित्रों के अवलोकनार्थ एवं अभिमत के लिए प्रस्तुत एक ताज़ा नवगीत

"मौलिक व अप्रकाशित"  -जगदीश पंकज

थपथपाये हैं हवा ने द्वार मेरे
क्या किसी बदलाव के
संकेत हैं ये

फुसफुसाहट,
खिड़कियों के कान में भी
क्या कोई षड़यंत्र
पलता जा रहा है
या हमारी
शुद्ध निजता के हनन को
फिर नियोजित तंत्र
ढलता जा रहा है

मैं चकित गुमसुम गगन की बेबसी से
क्या किसी ठहराव के
संकेत हैं ये

चुभ रहा है सत्य
जिनकी हर नज़र को
वे उड़ाना चाहते हैं
आँधियों से
या कोई निर्जीव सुविधा
फेंक मुझको
बाँध देना चाहते हैं
संधियों से

जब असह उनको हमारा हर कदम तो
क्या सभी बहलाव के
संकेत हैं ये

धूल ,धूँआँ ,धुंध
फैले आँगनों में
जो दिवस की रोशनी को
ढक रहे हैं
पर सदा प्रतिबद्ध
रहते देख मुझको
चाल अपनी व्यर्थ पाकर
थक रहे हैं

लग रहा है अब मुझे हर पल निरन्तर
बस बदलते दांव के
संकेत हैं ये

-जगदीश पंकज
31/07/2015

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Comment

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Comment by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on August 13, 2015 at 9:47pm

भाई सौरभ जी ,आपने जिस प्रकार मेरे नवगीत पर शब्द -दर-शब्द और पंक्ति-दर-पंक्ति व्याख्या की है उससे मैं मन की गहराई तक अभिभूत हूँ। मेरे आशय को समझा और उसे अन्य साथियों को उस रूप में समझने के लिए मार्ग बनाया वह भी सराहनीय है। जहां तक धूँआँ शब्द के प्रयोग का प्रश्न है मेरा मानना है की अँधेरा तो एक स्वाभाविक एवं नैसर्गिक प्रक्रिया के अंतर्गत आता ही है और वह उसी प्रक्रिया के अंतर्गत अपने समय पर चला भी जाता है उसका मुकाबला तो प्रकाश के अनेक माध्यमों से किया जा सकता है किन्तु जो धूल ,धुंध और धुँआँ के द्वारा अँधेरे का आवरण कृत्रिम रूप से बनाया जाता है, असली लड़ाई उसी से है । यहां धूँआँ के विकल्प के तौर पर कोई अन्य समानार्थक मस्तिष्क में नहीं आया। मैं मानता हूँ यह शाब्दिक दोष है किन्तु यदि धुँआँ का प्रयोग होता है तो मात्रा-पतन  द्वारा लय भंग होकर प्रवाह बाधित हो जाता है ,अतः इसी रूप में रख दिया।इस मुद्दे पर मेरा कोई किसी प्रकार का आग्रह या दुराग्रह नहीं है तथा फिर भी मित्रों से सार्थक सुझावों का स्वागत है। -जगदीश पंकज  

Comment by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on August 13, 2015 at 9:29pm

प्रिय पवन कुमार जी प्रोत्साहन के लिए हार्दिक आभार !


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 13, 2015 at 7:35pm

नवगीत जिन मंतव्यों की अभिव्यक्ति का विधाजन्य प्रयास है उसका सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत हुआ है. व्यष्टि की भावनाओं को समष्टि के सापेक्ष रख रचनाकर्म करने का दायित्व बिना आवश्यक प्रयास के संभव नहीं. आदरणीय जगदीश पंकजजी, आपने रचनात्मक तौर पर वैयक्तिक लगते क्षोभ, मानसिक असंतुलन और कचोटते एकाकीपन को कुशलता से समस्त पीड़ित वर्ग की आवाज़ बना डाला है.

थपथपाये हैं हवा ने द्वार मेरे
क्या किसी बदलाव के
संकेत हैं ये ....................... इस मुखड़े ने जहाँ सहज भाव से परिवर्तन की दशा को शाब्दिक किया है, वहीं पाठक को सकारात्मकता का भी भान होने लगता है. यदि हवा ने द्वार खटखटाये होते तो सचेत मन अवश्य किसी अनहोनी की अपेक्षा कर बैठता. यही किसी जागरुक कवि की सफलता है कि वह पाठक को किसी ’वहीवहीपन’ के वातावरण से दूर रखता है. यदि ऐसा न हुआ होता तो हो सकता है पाठक का पूर्वाभास रचना से विचलित भी कर सकता था.
आदरणीय जगदीश भाईजी, मैं आपके इस कौशल को सादर स्वीकार करता हूँ.

फुसफुसाहट,
खिड़कियों के कान में भी
क्या कोई षड़यंत्र
पलता जा रहा है........ क्या गहरी बात अभिव्यक्त हुई है ! मुखड़े से निस्सृत द्वंद्व एक झटके समाप्त करता हुआ नवगीत सीधे मुद्दे पर आ जाता है. घर-समाज के व्यवहार कनफुसकियों से ही बहाव पाते हैं. द्वार पर ’हवा’ की मौज़ूदग़ी का मतलब अब मुखर हुआ है --

या हमारी 

शुद्ध निजता के हनन को
फिर नियोजित तंत्र
ढलता जा रहा है..

मैं चकित गुमसुम गगन की बेबसी से
क्या किसी ठहराव के
संकेत हैं ये................... लेकिन जो वरिष्ठ समाज सबकुछ देख कर, जान-समझ कर भी अनजान बना है, या मौन साधे है, उसका क्या किया जाय ? सक्षमों और वरिष्ठों की इस निर्लिप्तता ने अपने समाज के एक बड़े वर्ग को हाशिये पर रखने का काम किया है. इस जघन्य अपराध की सज़ा अब समुच्चय में सारी मानव जाति भोग रही है.

चुभ रहा है सत्य
जिनकी हर नज़र को
वे उड़ाना चाहते हैं
आँधियों से
या कोई निर्जीव सुविधा
फेंक मुझको
बाँध देना चाहते हैं
संधियों से..................... आज की घृणित सच्चाई इन प्ंक्तियों से बहती हुई मानो मन-प्राण को आप्लावित कर देती है. पीड़ितों, शोषितों के सामने एकतरह से फेंकी गयी ’निर्जीव सुविधा’ को नकारता हुआ कवि वस्तुतः इस वर्ग को भी इनकी निस्सारता से सचेत करता है.

जब असह उनको हमारा हर कदम तो
क्या सभी बहलाव के
संकेत हैं ये.................. वाह ! .. प्रतिकार में उठते कदम के सामने फेंकी गयी सुविधाओं की बोटियाँ या टुकड़े ! बहुत खूब इंगित है !

धूल ,धूँआँ ,धुंध
फैले आँगनों में
जो दिवस की रोशनी को
ढक रहे हैं
पर सदा प्रतिबद्ध
रहते देख मुझको
चाल अपनी व्यर्थ पाकर
थक रहे हैं......................... वर्गभेद को नकारने के प्रयासों को इतने सधे ढंग से प्रस्तुत होता हुआ देख, यह विधा भी मानों सजीव हो उठी है ! पीढ़ियों हाशिये पर पड़े वर्ग की प्रतिबद्धता कैसे क्लिष्ट आचरणों तथा षडयंत्रों के विरुद्ध थमी है, यह जानना एक तरह का सकारात्मक रोमांच पैदा करता है.

लग रहा है अब मुझे हर पल निरन्तर
बस बदलते दांव के
संकेत हैं ये... .............. अवश्य अवश्य ! पाला, पलड़ा तथा पाँसा अब किसी वैशिष्ट्य के मुँहताज़ नहीं हैं.

बहुत ही सार्थक, समृद्ध तथा स्पष्ट नवगीत से लाभान्वित किया है आपने, आदरणीय जगदीश भाईजी. इस हेतु हार्दिक बधाइयाँ

इतने सधी हुई अभिव्यक्ति में धूँआँ शब्द का आना तनिक खटकता है. लेकिन आपको एक रचनाकार के तौर पर अभिव्यक्ति की अपेक्षाओं को पूरा करना अधिक आवश्यक लगा होगा. किन्तु, मैं सहज नहीं हो पा रहा हूँ.
विश्वास है, आपके नवगीत इस मंच केलिए आदत बनने वाले हैं.
शुभ-शुभ

Comment by Pawan Kumar on August 11, 2015 at 10:59am

आदरणीय, बहुत ही सुन्दर नवगीत हुआ है, हल लाइन लाजवाब है!
सुन्दर प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई!

Comment by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on August 11, 2015 at 10:48am

प्रोत्साहन से भरी टिप्पणी के लिए ह्रदय-तल से आभार भाई Sulabh Agnihotri जी! मिथिलेश वामनकर जी! Ravi Shukla जी!    भाई गिरिराज भंडारी जी!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 11, 2015 at 9:30am

आदरणीय जगदीश भाई , बहुत सुन्दर ! पढ के आनन्द आया । अंतिम बन्द लाजवाब है -

धूल ,धूँआँ ,धुंध
फैले आँगनों में
जो दिवस की रोशनी को
ढक रहे हैं
पर सदा प्रतिबद्ध
रहते देख मुझको
चाल अपनी व्यर्थ पाकर
थक रहे हैं

लग रहा है अब मुझे हर पल निरन्तर
बस बदलते दांव के
संकेत हैं ये   ---  हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by Ravi Shukla on August 10, 2015 at 1:18pm

आदरणीय जगदीश पंकज जी

आपका गीत पहली बार ही पढ़ रहे है

आदरणीय मिथिलेश जी की बात बिल्‍कुल सही है लयात्‍मकता मुगध करने वाली है साथ ही भाव भी अति सुंदर । आपके अनुभव को नमस्‍कार । इस विधा से अभी तक अनभिज्ञ है किन्‍तु आपके नव गीत पढ़कर नवगीत के प्रति उत्‍सुकता जाग उठी है । आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 10, 2015 at 11:59am

आदरणीय जगदीश पंकज जी, बहुत ही शानदार नवगीत हुआ है, इसकी लयात्मकता पर मुग्ध हो गया. इन पंक्तियों ने आरम्भ में ही बाँध लिया -

थपथपाये हैं हवा ने द्वार मेरे 
क्या किसी बदलाव के 
संकेत हैं ये

.............. कितने सुन्दर भाव उभरे है जैसे प्रश्न साक्षात हो गया. इसके बाद हर एक बंद में बह बह गया हूँ. बहुत ही सुन्दर. आपको इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई. सादर 

Comment by Sulabh Agnihotri on August 8, 2015 at 12:52pm

थपथपाये हैं हवा ने द्वार मेरे 
क्या किसी बदलाव के 
संकेत हैं ये

वाह ! वाह !!
बहुत सुन्दर नवगीत हुआ है आदरणीय बधाई स्वीकार करें।

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