For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

गीतिका ... ८+८+६ २२-२२-२२-२२-२२-२

आहत युग का दर्द चुराने आया हूं

बेकल जग को गीत सुनाने आया हूं

 

कोमल करुणा भूल गये पाषाण हुये

दिल में सोये देव जगाने आया हूं

 

आँगन आँगन वृक्ष उजाले का पनपे

दहली दहली दीप जलाने आया हूं

 

ग़ालिब तुलसी मीर कबीरा का वंशज

मैं भी अपना दौर सजाने आया हूं

 

दिल्ली बतला गाँव अभावों में क्यूं है

नीयत पर फिर प्रश्न उठाने आया हूं

 

सिस्टम इतना भ्रष्ट हुआ, जिंदा होकर

इसके दस्तावेज़ जुटाने आया हूं

 

सावन हारे जिस दावानल के आगे

अश्कों से वो आग बुझाने आया हूं

 

आज़ादी के उत्सव में क्यूं लगता है

बरबादी का जश्न मनाने आया हूं

 

दिल की बस्ती तुझ बिन उजड़ी लगती है

यादों का इक गाँव बसाने आया हूं

 

भावों के इस उजड़े मरुथल में फिर से

ग़ज़लों का इक बाग़ लगाने आया हूं

 

मैं ‘खुरशीद’ गगन के माथे पर छितरा  

शब का काला जाल हटाने आया हूं 

मौलिक व अप्रकाशित 

Views: 687

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Neeraj Neer on February 27, 2015 at 8:49pm

बहुत बहुत सुंदर निः शब्द हूँ ... 

Comment by Samar kabeer on February 26, 2015 at 10:33pm
जनाब ख़ुर्शीद जी,आदाब,आरम्भिका से लेकर अन्तिका तक गीतिका सुन्दर से सुन्दर होती गई है,आपकी रवानी देखते ही बनती है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |
Comment by Hari Prakash Dubey on February 26, 2015 at 9:11pm

आदरणीय खुर्शीद साहब ,फिर से कमाल की रचना ,बहुत बढ़िया ,हार्दिक बधाई आपको !

सावन हारे जिस दावानल के आगे

अश्कों से वो आग बुझाने आया हूं....गज़ब 

Comment by umesh katara on February 26, 2015 at 8:33pm

सावन हारे जिस दावानल के आगे

अश्कों से वो आग बुझाने आया हूं

 

आज़ादी के उत्सव में क्यूं लगता है

बरबादी का जश्न मनाने आया हूं

वाहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहहह


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 26, 2015 at 8:03pm

बहुत खूबसूरत उम्दा ,लाजबाब ..जितनी तारीफ करूँ कम होगी 

ग़ालिब तुलसी मीर कबीरा का वंशज

मैं भी अपना दौर सजाने आया हूं------शानदार 

सावन हारे जिस दावानल के आगे

अश्कों से वो आग बुझाने आया हूं-----क्या कहने 

 

आज़ादी के उत्सव में क्यूं लगता है

बरबादी का जश्न मनाने आया हूं----सच में विचारणीय 

 

दिल की बस्ती तुझ बिन उजड़ी लगती है

यादों का इक गाँव बसाने आया हूं------उत्कृष्ट शेर 

ये शेर तो विशेष दाद के हक़दार हैं 

इस लाजबाब गीतिका के लिए हार्दिक बधाई आ० खुर्शीद भैय्या. 

 

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 26, 2015 at 7:33pm

आदरणीय खुर्शीद सर, जब आपकी ग़ज़लों से गुजरता हूँ तो लगता माँ सरस्वती की पूजा कर रहा हूँ. ग़ज़ल कैसे होती है, और क्यों कहते है ग़ज़ल, ये आपकी ग़ज़लों से गुजरते हुए समझ आता है. आदरणीय सौरभ सर, ने आपकी एक ग़ज़ल पर टिप्पणी की थी ये है आज की ग़ज़ल. आपकी इस ग़ज़ल के लिए मैं उसी टिप्पणी को दोहराता हूँ. मतले से लेकर मकते तक ग़ज़ल कमाल है, एक जादू सा है, लफ़्ज़ों का जादू, अचंभित और चमत्कृत हो जाता हूँ आपके अशआर पढ़कर. एक एक अशआर दिल में उतर गया. अशआर इतने उम्दा है कि कोट किसे करूं, समझ नहीं पा रहा हूँ. एक को कोट करना दुसरे से अन्याय वाली स्थिति है. इसलिए पूरी ग़ज़ल कोट कर रहा हूँ-

आहत युग का दर्द चुराने आया हूं

बेकल जग को गीत सुनाने आया हूं.......... शानदार मतला... सकारात्मक.... आशावादी...और प्रेरणास्पद 

 

कोमल करुणा भूल गये पाषाण हुये

दिल में सोये देव जगाने आया हूं......... वाह वाह इस पुण्य कर्म में हम भी आपके साथ है.

 

आँगन आँगन वृक्ष उजाले का पनपे

दहली दहली दीप जलाने आया हूं............ वाह वाह ....आशावादी...और प्रेरणास्पद 

 

ग़ालिब तुलसी मीर कबीरा का वंशज

मैं भी अपना दौर सजाने आया हूं......... ये तो दिल ही उड़ा ले गया. वाकई में आप अपना दौर सजा 

 

दिल्ली बतला गाँव अभावों में क्यूं है

नीयत पर फिर प्रश्न उठाने आया हूं....... वाह वाह क्या प्रश्न उठाया है ....जवाब देते न बनेगा दिल्ली से 

 

सिस्टम इतना भ्रष्ट हुआ, जिंदा होकर

इसके दस्तावेज़ जुटाने आया हूं.............. वाह वाह बहुत बेहतरीन 

 

सावन हारे जिस दावानल के आगे

अश्कों से वो आग बुझाने आया हूं

 

आज़ादी के उत्सव में क्यूं लगता है

बरबादी का जश्न मनाने आया हूं............. वो सत्य जो जान कर भी नहीं मानते 

 

दिल की बस्ती तुझ बिन उजड़ी लगती है

यादों का इक गाँव बसाने आया हूं............. सुन्दर परिकल्पना 

 

भावों के इस उजड़े मरुथल में फिर से

ग़ज़लों का इक बाग़ लगाने आया हूं............ सुन्दर 

 

मैं ‘खुरशीद’ गगन के माथे पर छितरा  

शब का काला जाल हटाने आया हूं ............... वाह वाह क्या खूब मक्ता हुआ है 

पूरी ग़ज़ल पर दिल से दाद कुबूल फरमाए. ये आपकी कलम का कमाल दीवाना कर देता है बस झूम जाता हूँ. पढ़कर भावविभोर हूँ, आपको बस नमन ही कह पा रहा हूँ.

Comment by gumnaam pithoragarhi on February 26, 2015 at 6:26pm

कोमल करुणा भूल गये पाषाण हुये

दिल में सोये देव जगाने आया हूं

भावों के इस उजड़े मरुथल में फिर से

ग़ज़लों का इक बाग़ लगाने आया हूं

वाह सर जी खूब गीतिका कही बधाई

Comment by maharshi tripathi on February 26, 2015 at 5:09pm

भावों के इस उजड़े मरुथल में फिर से

ग़ज़लों का इक बाग़ लगाने आया हूं,,,,,,,,लाजवाब पंक्तियाँ ,,,,आपकी अच्छी रचना पर आपको दिली बधाई आ.खुर्शीद जी |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 26, 2015 at 3:20pm

आदरणीय खुर्शीद जी

लाजवाब  i  निशब्द करती रचना  i  आपको ढेरों बधाई i  सादर i

Comment by Nirmal Nadeem on February 26, 2015 at 3:09pm

bahut khoob. waaah waaah waaaah waaah bahut khoob

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
19 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
yesterday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
yesterday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"असमंजस (लघुकथा): हुआ यूॅं कि नयी सदी में 'सत्य' के साथ लिव-इन रिलेशनशिप के कड़वे अनुभव…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब साथियो। त्योहारों की बेला की व्यस्तता के बाद अब है इंतज़ार लघुकथा गोष्ठी में विषय मुक्त सार्थक…"
Thursday
Jaihind Raipuri commented on Admin's group आंचलिक साहित्य
"गीत (छत्तीसगढ़ी ) जय छत्तीसगढ़ जय-जय छत्तीसगढ़ माटी म ओ तोर मंईया मया हे अब्बड़ जय छत्तीसगढ़ जय-जय…"
Thursday
LEKHRAJ MEENA is now a member of Open Books Online
Wednesday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service