वो नदी जो गिरि
कन्दराओं से निकल
पत्थरों के बीच से
बनाती राह
कितनो की मैल धोते
कितने शव आँचल मे लपेटे
अन्दर कोलाहल समेटे
अपने पथ पर,
कोई पत्थर मार
सीना चीर देता
कोई भारी चप्पुओं से
छाती पर करता प्रहार
लगातार,
सब सहती हुई
राह दिखाती राही को
तृप्त करती तृषा सब की
अग्रसर रहती अनवरत
तब तक, जब तक खो न दे
आस्तित्व,अपने
प्रियतम से मिल कर ||
मीना पाठक
मैलिक अप्रकाशित
Comment
उत्सर्ग के भाव को यथोचित बिम्ब और आवश्यक शब्द मिले हैं.
प्रस्तुति हेतु शुभकामनाएँ, आदरणीया
सब सहती हुई
राह दिखाती राही को
तृप्त करती तृषा सब की
अग्रसर रहती अनवरत
तब तक, जब तक खो न दे
आस्तित्व,अपने
प्रियतम से मिल कर ||---नदी के स्वरुप उसके निःस्वार्थ प्रेम ,उपकार ,बलिदान को कितनी सुन्दरता से पिरोया है शब्दों में बहुत सुन्दर ,हार्दिक बधाई आपको आ० मीना जी
आदरणीय Sharadindu सर जी ..आप की उत्साहवर्धन करती टिप्पणी हेतु हृदयतल से आभार | सादर नमन
आदरणीय आशुतोष जी बहुत बहुत आभार | सादर
आदरणीया मीना जी ...नदी पर आपने बहुत ही बेहतरीन चितन किया है ,,,रचना नदी की ही तरह बहती हुई ..इस शानदार रचना पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें ..सादर
बहुत बहुत आभार आदरणीय भ्रमर जी | सादर
बहुत सुन्दर रचना सुन्दर भाव। तभी तो याद आता है नदी न संचै नीर परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर
भमर ५
प्रिय गीतिका बहुत बहुत आभार | सस्नेह
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