तोड़ धैर्य के बाँध को, उफन गया सैलाब।
कुछ से उम्मीदें बढ़ीं, कुछ के टूटे ख़्वाब।।
लाँघी सीमा क्रोध की, ऐसा क्या आक्रोश।
भला बुरा सोचा नहीं, अंधा सारा जोश।।
श्रम भी काम न आ सका, काम न आया अर्थ।
बुरे कर्म की कालिमा, यत्न हुआ सब व्यर्थ।।
राग द्वेष का हो मुखर, जिनके मुख से राग।
शक्ति उन्हें मिल ही गई, जो-जो उगलें आग।।
ज्यों बिल्ली के भाग से, छींका फूटा आज।
दण्ड एक को यों मिला, दूजा पाये राज।।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय सौरभ सर आपका हार्दिक आभार
हर दोहे के लिए अलग-अलग बधाई, शिज्जू भाईजी.
बहुत खूब !
आदरणीय बृजेश जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय जवाहरलाल जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय सुरेन्द्र जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया
आदरणीय गिरिराज सर आपका आभार
बहुत सुन्दर दोहे! आपको हार्दिक बधाई!
अजब गजब दोहे कहे, करें नहीं अब राग
विद्वानों ने भी गाये, मिला राग में राग!
सादर श्री शिज्जू शकूर जी
श्रम भी काम न आ सका, काम न आया अर्थ।
बुरे कर्म की कालिमा, यत्न हुआ सब व्यर्थ।।
सुन्दर भाव ...अच्छी रचना ....सुन्दर सन्देश देते हुए
भ्रमर ५
आदरणीय शिज्जू भाई , सुन्दर दोहो की रचना की है , इशारा साफ है , सार्थक दोहों के लिये आपको बधाई ॥
हार जीत के खेल मे , इक की होती जीत
अब चाहे नफरत करो , चाहे उससे प्रीत
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