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221  2121, 1221, 212 , 

इक ग़म में जब से मुब्तला रहने लगा हूँ मैं 
अपने वुजूद से खफा रहने लगा हूँ मैं...
देखा था बेनकाब किसी रोज़ चाँद को 
खिड़की के सामने खड़ा रहने लगा हूँ मैं ...
कागज़ पे इक रिसाले के छप कर मैं क्या करूँ 
अब तेरे दिल में दिलरुबा रहने लगा हूँ मैं .....
दिल को नहीं सुहाता है शोरे तरब ज़रा 
बज़्मे तरब में सहमा सा रहने लगा हूँ मैं....
पहले सी जिस्म में नहीं ताकत रही अजय 
पहले से ज्यादा चिड़चिड़ा रहने लगा हूँ मैं...

अजय अज्ञात 

मौलिक व अप्रकाशित ...

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Comment

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Comment by Anurag Singh "rishi" on April 14, 2014 at 7:21pm

वाह क्या कहने खूबसूरत अंदाजेबयां 

देखा था बेनकाब किसी रोज़ चाँद को 
खिड़की के सामने खड़ा रहने लगा हूँ मैं ..........ढेरों दाद

Comment by annapurna bajpai on April 10, 2014 at 1:58pm

सुंदर गजल , बधाई आपको । 

Comment by Shanno Aggarwal on April 10, 2014 at 1:43am

बहुत सुंदर गज़ल 

Comment by नादिर ख़ान on April 9, 2014 at 9:54pm

कागज़ पे इक रिसाले के छप कर मैं क्या करूँ 
अब तेरे दिल में दिलरुबा रहने लगा हूँ मैं .....वाह क्या बात है आदरणीय अजय जी उम्दा गज़ल हुयी है बधाई स्वीकारें ।

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