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तरही मुशायरा / इवेंट्स से जुड़े प्रश्नोत्तर

कुछ मित्रों ने मुझे संपर्क किया तरही मुशायरे के बारे में जानने के लिए| तो मैने सोचा कुछ और मित्र भी होंगे जो इस बारे में जानना चाहते हों| खुद मुझे भी कुछ बातें पता नहीं हैं| इसलिए सोचा क्यूँ न एक चर्चा शुरू कर दी जाए| हम सब एक दूसरे से कुछ न कुछ सीखते रहेंगे| अपनी जानकारी सभी के साथ साझा कर रहा हूँ| इस में जो त्रुटि हो, अन्य मित्र साधिकार सुधार दें| चर्चा सकारात्मक रूप से चलती रहनी चाहिए|

मुशायरा - हम जानते ही हैं|

तरही मुशायरा -

एक ऐसा मुशायरा जहाँ पहले से ही कोई एक पंक्ति बता दी जाए और सभी शाइर अपनी अपनी ग़ज़ल्स उसी पंक्ति को ले कर लिखें| इस पंक्ति को ही तरही का मिसरा कहते हैं|

ग़ज़ल - हम जानते ही हैं|

शे'र - दो मिसरों / पंक्तियों का जोड़|

मिसरा - शे'र की कोई एक पंक्ति|

मिसरा ए ऊला - शे'र की पहली लाइन|

मिसरा ए सानी - शे'र की दूसरी लाइन|

मतला - ग़ज़ल का पहला शे'र| यहाँ दोनो पंक्ति में रद्दिफ / काफ़िए का पालन होता है|

मकता -

ग़ज़ल का वो शे'र जिसमें शायर अपना उपनाम या तखल्लुस लिखता है| ग़ालिब साहब का ये शे'र देखिए:-
बन के शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता|
वरना, 'ग़ालिब' की शहर में आबरू क्या है||
यहाँ शायर का नाम आने से ये शे'र मकते का शे'र हुआ| कुछ लोग ग़ज़ल के अंतिम शे'र को भी मकता मानते हैं| ये सही या ग़लत है, बाकी मित्र बताने की कृपा करें|


रद्दीफ / काफिया
हवा करती है सरगोशी, बदन ये काँप जाता है|

ये पिछले मुशायरे का तरही मिसरा था| इस में 'है' चूँकि हर पंक्ति के अंत में आ रहा है, इस लिए रद्दिफ हुआ| और 'जाता' काफिया हुआ| आप पिछले मुशायरे की पोस्ट्स को रेफर करें, तो बाकी की सारी बातें आप लोग अपने आप समझ जाएँगे| सलिल जी ने तो 'जाता है' को रद्दिफ माना और 'काँप' को काफिया बनाया| मैने एक जगह 'आ' को काफिया माना है|

फिर भी यदि किसी को कोई शंका हो, तो कृपया आगे बढ़ कर पूछने में संकोच न करें| यहाँ हम सब एक दूसरे से सीख रहे हैं| अगर मेरी लिखी किसी बात में त्रुटि हो, तो अन्य मित्र कृपया साधिकार उसे सुधारने की कृपा करें|

बहर / तकतीह / वज्ञ -

इस बारे में मुझे ज़्यादा जानकारी नहीं है| सिर्फ़ इतना जानता हूँ 'बहर' यानि 'छंद'| तकतीह या वज्ञ यानि विधान| मात्राओं के साथ-साथ गेयता और यति का ख़याल रखना ग़ज़ल को खूबसूरत बनाता है| इस के लिए रियाज़ / प्रेक्टिस ही सबसे सुगम / सुलभ और सर्वोत्तम मार्ग है| यानि मुशायरे और इवेंट्स में विद्यार्थी बन कर भी भाग लेते रहना| इन की शुरुआत का उद्देश्य ही है लोगों में सीखने / सिखाने की प्रवृत्ति को मुखर करना|

वर्तमान तरही मुशायरे का मिसरा:-

खुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत|

वज्ञ:- फऊलन फऊलन फऊलन फऊलन

मात्रा :- १२११  १२११  १२११  १२११
संकेत:-    - = - -     - = - -     - = - -     - = - -

मैने जैसे सीखा वो आप से साझा करता हूँ| कुछ मंतर हैं इस तरह की बहर के, उन का २०-२० बार जाप करने से भक्तों को अवश्य वांछित फल की प्राप्ति होती है|
 :)

मंत्र १ :- चलाचल / चलाचल / चलाचल / चलाचल
मंत्र २ :- उठा दे / गिरा दे / "जो" चाहे / सज़ा दे
मंत्र ३ :- सितमगर / कहाँ है / न अब तू / सता दिल
वर्तमान तरही का मिसरा:- खुदा की / "है" ये दस / त कारी / मुहब्बत
यहाँ 'जो' और 'है' में हर्फ को गिराया गया है| हर्फ गिराने का मतलब है २ मात्रा वाले शब्द को १ मात्रा वाले शब्द की तरह बोलना| हर्फ यानि अक्षर|

तो आप ने देखा मात्राओं को हम अपनी सुविधा अनुसार फिट कर सकते हैं| उच्चारण पर ज़्यादा ध्यान देना चाहिए, मात्रा गिनने के बनिस्बत| भाई मैं तो ऐसे ही सीखा हूँ| हाँ, उपलब्ध रियायतों के अति उपयोग से बचना श्रेयस्कर रहता है|

फिर भी विद्यार्थी काल में, सभी मित्रों से प्रार्थना है कि "चढ़ जा प्यारे छत पे, भली करेंगे राम"

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Replies to This Discussion

सार्थक विचार है अरुण भाई ...

वन्दे मातरम दोस्तों,
जैसा चल रहा है वैसा ही चलने देना ज्यादा बेहतर है , अंतर्जाल पर वैसे ही लोग विशिष्ट गुरुपों में बंटे हुए है, OBO पर उन्हें बांटना ठीक नही है, कोई बाध्य नही है की हर पोस्ट पर कम्मेन्ट्स करे ही.......अभी कम से कम इतना तो है की हम लगभग सभी की पोस्ट पड़ते तो हैं ......... दूसरी हालत में ये होगा की मैं यदि सलिल या प्रभाकर जी नवीन या बागी जी अरूण या भास्कर भाई आदि को ही पड़ना चाहता हूँ तो निश्चित ही अन्य रचनाकारों की अच्छी रचनाओं पर भी मेरी नजर जाएगी नही..........

मेरी व्यक्तिगत राय भी यही है कि पूर्व का फोर्मेट ज्यादा सुविधाजनक है.........

सही बात कही भाई राकेश जी !!!

आपकी बातों से पूर्णतया सहमत हूँ राकेश भाई |

आप सभी सदस्यों का धन्यवाद, जो अपना मत देते हुये वर्तमान मे चल रहे फोर्मेट को पसंद किया, अब उदाहरण के लिये जो ग्रुप बनाया गया था उसे मैं हटा दे रहा हूँ |

आइये कुछ बात करते हैं ग़ज़ल के दोषों के बारे में| मुझे जो भी ज्ञान अपने
गुरुवों आदरणीय श्री योगराज प्रभाकर, गुरुदेव पंकज सुबीर जी (उनके ब्लॉग
सुबीर संवाद सेवा से) और डाक्टर कुंवर बेचैन की पुस्तक (ग़ज़ल का व्याकरण)
से प्राप्त हुआ है उसे आपके समक्ष रखना अपना फ़र्ज़ समझता हूँ| आशा है आप सभी
लाभान्वित होंगे|

सबसे पहले बात करते हैं काफिये के दोष की| अक्सर हम देखते हैं कि लोग काफियों के दोष में अक्सर फंस जाते हैं| यह बात पूरी तरह से स्पष्ट है कि
जो काफिया हमने ग़ज़ल के मतले में ले लिया उसे पूरी ग़ज़ल में निभाना हमारा
फ़र्ज़ बन जाता है| नीचे के कुछ उदहारण बात को और भी स्पष्ट कर सकेंगे|

१. मात्राओं का काफिया-

-जैसे अगर हमने जीता और सीखा काफिये ग़ज़ल के मतले में ले लिए हैं तो हमें ऐसे काफिये लेने होंगे जिसमे
की मात्रा आये जैसे गाया, निभाया, सताया आदि|


उदाहरण देखिये
तूने ये फूल जो ज़ुल्फ़ों में लगा रखा है 
इक दिया है जो अँधेरों में जला रखा है 
(यहाँ पर रखा है तो रदीफ़ हो गया और लगा और जला में की मात्रा सामान है इसलिए नीचे के शेर में भी की मात्रा का ही काफिया चलेगा)

इम्तेहाँ और मेरी ज़ब्त का तुम क्या लोगे 
मैं ने धड़कन को भी सीने में छुपा रखा है

दिल था एक शोला मगर बीत गये दिन वो क़तील, 
अब क़ुरेदो ना इसे राख़ में क्या रखा है 


-जैसे अगर हमने जीती और सीखी काफिये ग़ज़ल के मतले में ले लिए हैं तो हमें ऐसे काफिये लेने होंगे जिसमे की मात्रा आये जैसे गयी , निभायी, सताई
आदि|

यहीं नियम अन्य मात्राओं के लिए भी लागू होता है|

२. अक्षरों का काफिया

-जैसे हमने मतले में जीता और पीता काफिये ले लिए अगर आप गौर से देखें तो यहाँ भी आ की मात्रा ही है परन्तु ईता दोनों काफिये में सामान है इसलिए हमें बाकी के शेरों में भी ऐसे ही काफिये लेने होंगे जिसमे अंत में ईता आये जैसे रीता| अगर मतले में जीता के साथ खाता लिया होता तो बाकी के काफियों में ता होता जैसे की रोता|

उदाहरण देखिये (कतील शिफाई)

अपने होंठों पर सजाना चाहता हूँ 
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ 
(यहाँ पर चाहता हूँ  तो रदीफ़ हो गया और सजाना और गुनगुनाना में आना  समान है इसलिए नीचे के शेर में भी आना वाले ही काफिये चलेंगे)


कोई आँसू तेरे दामन पर गिराकर 
बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ 

थक गया मैं करते-करते याद तुझको 
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ

छा रहा है सारी बस्ती में अँधेरा 
रोशनी हो, घर जलाना चाहता हूँ 

आख़री हिचकी तेरे ज़ानों पे आये 
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ




३. अनुनासिकता

-हिंदी के कई शब्दों में बिंदी होती है, तो वही कानून यहाँ भी लागू होता है की अगर मतले के दोनों काफियों में बिंदी
है तो बाकी के हर शेरों के काफियों में भी बिंदी होगी| नहीं, कहीं के साथ यहीं और वहीँ जैसे ही काफिये चलेंगे सही नहीं|

उदाहरण देखिये


रची है रतजगो की चाँदनी जिन की जबीनों में
"क़तील" एक उम्र गुज़री है हमारी उन हसीनों में

वो जिन के आँचलों से ज़िन्दगी तख़लीक होती है
धड़कता है हमारा दिल अभी तक उन हसीनों में

ज़माना पारसाई की हदों से हम को ले आया
मगर हम आज तक रुस्वा हैं अपने हमनशीनों में

तलाश उनको हमारी तो नहीं पूछ ज़रा उनसे
वो क़ातिल जो लिये फिरते हैं ख़ंज़र आस्तीनों में



आगे भी इस विषय में चर्चा जारी रहेगी| उस्तादों से कान पकड़ कर माफ़ी चाहिए और आप सबका सहयोग चाहिए|

राणा जी एक बेहतरीन शुरुआत है यह, पिछले मुशायरे मे भी देखा गया था कि काफिया और रदीफ़ के बारे मे बहुत लोगों को समस्या थी, आप की इस पोस्ट को पढ़ने के बाद बहुत सारी बाते साफ़ हो जायेगी | 

बहुत बहुत धन्यवाद इस जानकारी पूर्ण लेख के लिये |

नविन भाई आपने जैसा कहा "अगर मतले के दोनो मिसरों में 'आना' और 'जाना' लिए जाएँ, तो बाकी के मिसरों में भी क्या वही काफ़िए लेने चाहिए जहाँ अंत में 'ना' आए? मसलन 'गाना' 'रहना' आदि! या फिर 'साया' सीखा' बोला' की तरह के काफ़िए भी ले सकते हैं?"

 

मेरे जानकारी के अनुसार काफिया तय करने हेतु मतले का दोनों मिसरा जरूरी है यदि पहले मिसरा मे "आना" आ रहा हो और दुसरे मे "जाना" तो दोनों मे जो common है वो है "आ की मात्रा + ना" मतलब काफिया निर्धारित हो गया जिसमे आ की मात्रा और ना हो जैसे नहाना, बनाना, खाना, गाना किन्तु रहना, साया , सिखा , बोला नहीं होगा |

 

आप ने कहा "इसी तरह 'जाता', 'पाया', 'बच्चा' और 'करता' जैसे शब्द अगर मतले में लिए जाएँ तो ऐसे मामलों में क्या होगा?"

नविन भाई जैसा मैने ऊपर लिखा कि काफिया निर्धारण हेतु मतले का दोनों मिसरा आवश्यक है अतः इस प्रश्न का जबाब संभव नहीं होगा |

जितना सिखा हूँ वो आप सब के साथ बाट रहा हूँ यदि कुछ गलत होगा तो राणा जी, योगराज सर और अन्य फनकार सहयोग करेंगे कृपया |

प्रिय नवीन भाई / गणेश बाग़ी भाई,

आपने काफिये के बारे में एक बहुत ही अहम् सवाल पूछा है ! मैंने कुछ समय
पहले इस विषय में अपनी जानकारी के अनुसार कुछ लिखा भी था ! काफिये पर पूछे
गए आपके इस सवाल पर मैं अपनी राय देना चाहूँगा ! "आना", "जाना", या "खाना"
इत्यादि काफियों में व्यंजन "न" को इल्म-ए-अरूज़ में "हर्फ़-ए-रवी" कहा गया
है ! "न" को "हर्फ़-ए-रवी" लेकर ये बंदिशनुमा स्वीकृति दे दी जाती है कि ग़ज़ल
के आईंदा मिसरों में व्यंजन "न" ही काफिये का "हर्फ़-ए-रवी" रहेगा ! लेकिन
इसके बर-अक्स यदि मतले में "आना" के साथ "पाया", खाया" "गया"
"रोका","पीता", "टूटा" इत्यादि को प्रयोग किया गया हो तब "हर्फ़-ए-रवी"
(व्यंजन "न") की बंदिश बाकी नहीं रहेगी ! मगर एक दफा किसी व्यंजन विशेष को
"हर्फ़-ए-रवी" मुक़र्रर करने के बाद उस में किसी प्रकार की भी तबदीली मेरे नज़दीक जायज़ नहीं मानी जाएगी ! सादर !

नवीन भैया

ऊपर दिए गए काफिये बिलकुल जायज़ हैं| स्थिति बिलकुल स्पष्ट है की मतले से काफियों का निर्धारण हो जाता है बस इतना ही ख़याल रखना है की काफिये दिए गए वजन में हो और मतले के कानून का पालन करते हो|

 

उदहारण के लिए आपका लिया गया काफिया बच्चा और देखा, इनमे केवल की मात्रा सामान है इसे अलिफ़ का काफिया कहते हैं इसलिए बाकि के काफियों में हमें केवल अंत में की मात्रा ही देखनी है इसलिए बाकि के काफिये लाया, उगता, का आदि सटीक हैं पर यहाँ पर हंसा का काफिया नहीं चल सकेगा यद्यपि इसमे भी अंत में की ही मात्रा है  पर ये गौरतलब है की मतले में वज्न २२ का आ रहा है तो बाकि के काफिये में भी वजन २२ का ही आये....  खैर ये तो बाद की बात है वज्न की चर्चा हम बाद में करेंगे|

नवीन भैया मैं हँसा(laugh) की बात कर रहा था, हँसा(laugh) की मात्रा १२ है जबकि बाकियों की २२ है|
आप लोगों की चर्चा से मैं भी काफी लाभान्वित हो रहा हूँ !!!

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