मैं प्रेम हूँ
तुम भी तो प्रेम ही हो
प्रेम से हट कर
क्या नाम दूँ
तुम्हें भी और मुझे भी ...
कितनी सदियों से
और जन्मो से भी
हम साथ है
जुड़े हुए एक-दूसरे के
प्रेम में
हर जन्म में तुमसे
मिलना हुआ
लेकिन मिल के भी मेल
ना हो सका
प्रेम फिर भी रहा
तुम में और मुझ में भी
चलते जा रहें है
समानांतर रेखाओं की तरह
साथ हो कर भी साथ नहीं
दिखावे की है लेकिन ये
समानांतर रेखाए
प्रेम ने तो अब भी बांधा
हुआ है
तुम्हें भी और मुझे भी
क्यूंकि तुम प्रेम हो और
प्रेम मैं भी हूँ .......
( अप्रकाशित और मौलिक )
Comment
आदरणीया उपासना जी:
प्रेम की इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बधाई।
विजय निकोर
prem par ek sundar w gahree rachna ,, bahut sundar dear Upasana ji
बहुत खूब सुन्दर लाजबाब अभिव्यक्ति।।।।।।
मेरी नई रचना
आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
बहुत सुन्दर।
संतुतित रूप में लाजबाब अभिव्यक्ति ! बधाई :)
सादर वेदिका
वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह क्या बात है सुन्दर,,,,,,,,,,,बधाई,,,,,,,,,,,,
क्या बात है प्रेम पर बहुत सुन्दर रचना................बहुत बहुत बधाई स्वीकार कीजिये
प्रेम निर्बाध नदी के दो किनारों की तरह भी है जो दूर् होकर भी हमेशा नदी के साथ रहते हैं और अपनी परछाई की तरह भी जो हमारे साथ रहती है अपना ही दूसरा रुप है| प्रेम ही शक्ति प्रेम ही पूजा है ,बहुत सुंदर प्रस्तुति उपासना जी हार्दिक बधाई आपको|
आदरणीया उपासना जी , बहुत सरल शब्दों में गहन रचना . अनुभूति के धरातल पर सफल और पगी हुई . हार्दिक बधाई !!
सुन्दर आभिव्यक्ति के लिए बधाई, सही है हम सब एक दुसरे से प्रेम के डोर से ही बंधे होते है, सने रखते है
प्रेम पर आपका द्रष्टिकोण सुंदर है बधाई
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