For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

जीने के बहाने आ गए

सामने आँखों के सारे दिन सुहाने आ गए 
याद हमको आज वह गुज़रे ज़माने आ गए 

आज क्यूँ उन को हमारी याद आयी क्या हुआ 
जो हमें ठुकरा चुके थे हक़ जताने आ गए 

दिल के कुछ अरमान मुश्किल से गए थे दिल से दूर 
ज़िन्दगी में फिर से वह हलचल मचाने आ गए 

ग़ैर से शिकवा नहीं अपनों का बस यह हाल है 
चैन से देखा हमें फ़ौरन सताने आ गए 

उम्र भर शामो सहर मुझ से रहे जो बेख़बर 
बाद मेरे क़ब्र पे आंसू बहाने आ गए 

हैं "सिया' के साथ उसके शेर और उसकी ग़ज़ल 
हाथ अब उसके भी जीने के बहाने आ गए

Views: 468

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 23, 2011 at 2:03pm

हर शे’र पर दाद कुबूल फरमायें सियाजी.

जिस संज़ीदग़ी से आपने हरेक शे’र में शब्द लगाये हैं वह आपकी व्यापक समझ और सुखन की काबिलियत की गवाही दे रहा है.

बहुत दिनों बाद इतनी संवेदनशील ग़ज़ल सामने आयी है.

हार्दिक बधाई और हृदय से धन्यवाद.

 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 23, 2011 at 10:08am

प्रिय वीनस,

आप बिलकुल दुरुस्त फरमा रहे है, मैंने पुनः एक एक शे'र को पढ़ा और लगा की आप की बात सोलहो आने सच है |

आभार आपका |

Comment by वीनस केसरी on September 23, 2011 at 2:02am

@ गणेश जी

सादर,
सिया जी की ग़ज़ल में केवल एक मिसरा ऐसा है जिसमें अतिरिक्त लघु लिया गया है 

दिल के कुछ अरमान मुश्किल से गए थे दिल से दूर

इसे अरूजियों द्वारा  ज़ाइज़ माना जाता है

 
एक ही काफिया को एक से अधिक बार प्रयोग, दोष नहीं है पर ग़ज़ल की खूबसूरती अवश्य प्रभावित होती है साथ ही हमारे शब्द कोष की दरिद्रता दिखता है
सहमत हूँ परन्तु इस ग़ज़ल के लिए यह बात कहना उचित प्रतीत नहीं होता ...

कृपया पुनः ध्यान दें
हर्फे काफिया बहाने को दो शेर में प्रयोग किया गया है परन्तु दोनों बार अलग अर्थ में प्रयोग हुआ है

 

आंसू बहाने आ गए  ( आंसू बहना  )

जीने के बहाने आ गए ( जीने का ढंग )

यह रचनाकार की शब्दकोशीय दरिद्रता नहीं वरन सुखनवरी के फ़न में माहिर होने का पुख्ता प्रमाण है 

आशा करता हूँ आप सहमत होंगे

 

एक और बात है कि मैं यह कहने को मजबूर हूँ कि सिया जी को ग़ज़ल के विज्ञान पर अच्छी पकड़ है 

और वह है, मक्ता का यह मिसरा

हैं "सिया' के साथ उसके शेर और उकी ग़ज़ल


जिस खूबसूरती से सिया जी ने अलिफ़ वस्ल करते हुए और को निभाया है वो काबिले तारीफ़ है, यदि चाहतीं तो और को  लिख कर भी बह्र का पालन करती,, मगर इन्हें पता था कि और लिखने से सुंदरता भी बढ़ेगी, अटकाव भी नहीं होगा और अलिफ़ वस्ल की स्थिति होने से बह्र का पालन भी होगा, इसलिए और ही लिखा

आभार

Comment by वीनस केसरी on September 23, 2011 at 1:42am

वाह वा,

 

सिया जी,
आपकी लेखनी ने पहले भी ध्यान आकर्षित किया है, और इस ग़ज़ल ने तो मन मोह लिया

हर एक शेर ग़ज़लियत  से भरपूर और कहन में लाजवाब है 

पूरी तरह से बह्र का पालन करती इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई,

 

आज क्यूँ उन को हमारी याद आयी क्या हुआ 
जो हमें ठुकरा चुके थे हक़ जताने आ गए 

इस शेर के लिए अलग से दाद कबूल करें

Comment by Shashi Mehra on September 22, 2011 at 7:48pm

बहुत अछि गजल लगी, दाद स्वीकारिये |

Comment by Vikram Srivastava on September 21, 2011 at 3:42pm

बड़े ही खूबसूरत शे'र लिखे हैं आपने...बधाई...:)


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 21, 2011 at 11:20am

//सामने आँखों के सारे दिन सुहाने आ गए 
याद हमको आज वह गुज़रे ज़माने आ गए//

खुबसूरत मतला, शानदार प्रारंभ |

//आज क्यूँ उन को हमारी याद आयी क्या हुआ 
जो हमें ठुकरा चुके थे हक़ जताने आ गए //

बहुत खूब, मिसरा उला और मिसरा सानी में गज़ब का तारतम्य, खुबसूरत शे'र |

//दिल के कुछ अरमान मुश्किल से गए थे दिल से दूर 
ज़िन्दगी में फिर से वह हलचल मचाने आ गए//

वाह वाह वाह, यह शे'र भी बहुत ही बुलंद ख्याल से लबरेज है |

//ग़ैर से शिकवा नहीं अपनों का बस यह हाल है 
चैन से देखा हमें फ़ौरन सताने आ गए//

वाह, दाद बटोरने में अकेले ही सामर्थ, खुबसूरत शे'र |

//उम्र भर शामो सहर मुझ से रहे जो बेख़बर 
बाद मेरे क़ब्र पे आंसू बहाने आ गए//

जमाने की सच्चाई जो सदियों से चली आ रही है, अभी भी सामयिक | बहुत खूब |

//हैं "सिया' के साथ उसके शेर और उसकी ग़ज़ल 
हाथ अब उसके भी जीने के बहाने आ गए//

मकता भी बढ़िया है,

 

सिया जी वैसे तो एक ही काफिया को एक से अधिक बार प्रयोग दोष नहीं है पर ग़ज़ल की खूबसूरती अवश्य प्रभावित होती है साथ ही हमारे शब्द कोष की दरिद्रता दिखता है, कई मिसरों में अंतिम रुक्न में मात्रा बढ़ा हुआ लगा, मीटर को और कसने की आवश्यकता जान पड़ती है, कहन बेजोड़ है, बड़े ही सादगी से इस ग़ज़ल को निभाई गई है |

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
Sunday
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
Saturday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Friday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
Friday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
Friday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"असमंजस (लघुकथा): हुआ यूॅं कि नयी सदी में 'सत्य' के साथ लिव-इन रिलेशनशिप के कड़वे अनुभव…"
Friday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब साथियो। त्योहारों की बेला की व्यस्तता के बाद अब है इंतज़ार लघुकथा गोष्ठी में विषय मुक्त सार्थक…"
Thursday
Jaihind Raipuri commented on Admin's group आंचलिक साहित्य
"गीत (छत्तीसगढ़ी ) जय छत्तीसगढ़ जय-जय छत्तीसगढ़ माटी म ओ तोर मंईया मया हे अब्बड़ जय छत्तीसगढ़ जय-जय…"
Thursday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service