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जिनकी ज़बाँ से सुनते हैं गहना ज़मीर है
हमको उन्हीं की आँखों में पढ़ना ज़मीर है।१।
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जब सच कहे तो काँप उठे झूठ का नगर
हमको तो सच का ऐसे ही गढ़ना ज़मीर है।२।
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सत्ता के साथ बैठ के लिखते हैं फ़ैसले,
जिनकी कलम है सोने की, मरना ज़मीर है।३।
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ये शौक निर्धनों का है, पर आप तो धनी,
किसने कहा है आप को, रखना ज़मीर है।४।
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चलने लगी हैं गाँव में, बाज़ार की हवा,
पनपेंगे ज़र के शौक, तो घुटना ज़मीर है।५।
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कुछ लोग बिक गये तो कहीं खो गये हैं कुछ
जो शेष साथ सबने ही पहना ज़मीर है।६।
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करते कहाँ से सत्य की, बोलो, तो पैरवी,
लौटा सफ़र से आज ही, अपना ज़मीर है।७।
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उनको लड़ा सका है "मुसाफिर" कोई कहाँ
हिस्से में ज्ञात जिनको भी बँटना ज़मीर है।८।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।
विलम्ब से उत्तर के लिए खेद है।
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई, भाई लक्ष्मण सिंह 'मुसाफिर' साहब! हार्दिक बधाई आपको !
आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति,उत्साहवर्धन और स्नेह के लिए आभार।
आपका मार्गदर्शन मिलता रहे यही कामना है।
आदरणीय लक्ष्मण भाई , खूब सूरत मतल्ले के साथ , अच्छी ग़ज़ल कही है , हार्दिक बधाई स्वीकार करें
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