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आदरणीय काव्य-रसिको !

सादर अभिवादन !!

  

’चित्र से काव्य तक छन्दोत्सव का यह एक सौ एकहत्तरवाँ योजन है।

 .   

 

छंद का नाम  -  मुकरिया/ कहमुकरिया छंद  

आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ - 

20 सितंबर’ 25 दिन शनिवार से

21 सितंबर 25 दिन रविवार तक

केवल मौलिक एवं अप्रकाशित रचनाएँ ही स्वीकार की जाएँगीं.  

मुकरिया/ कहमुकरिया छंद के मूलभूत नियमों के लिए यहाँ क्लिक करें

जैसा कि विदित है, कई-एक छंद के विधानों की मूलभूत जानकारियाँ इसी पटल के  भारतीय छन्द विधान समूह में मिल सकती हैं.

***************************

आयोजन सम्बन्धी नोट 

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ - 20 सितंबर’ 25 दिन शनिवार से 21 सितंबर 25 दिन रविवार तक रचनाएँ तथा टिप्पणियाँ प्रस्तुत की जा सकती हैं। 

अति आवश्यक सूचना :

  1. रचना केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, अन्य सदस्य की रचना किसी और सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी.
  2. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये तथा बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकता है. यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
  3. सदस्यगण संशोधन हेतु अनुरोध  करें.
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  5. आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है. लेकिन बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति संवेदनशीलता आपेक्षित है.
  6. इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं.
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मंच संचालक
सौरभ पाण्डेय
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम  

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Replies to This Discussion

रात दिवस केवल भरमाए।

सपनों में भी खूब सताए।

उसके कारण पीड़ित मन।

क्या सखि साजन! नहीं उलझन।

सोच समझ सब पर छा जाए।

शांत चित्त को नजर लगाए।

वो छीने जीवन की सुविधा।

क्या सखि साजन! ना सखि दुविधा।

तरुणाई की चिंता भारी।

उसके पीछे खुशियाँ सारी।

मन को रहता जिसका डर।

क्या सखि साजन! नहीं फ्यूचर।

कर दे जो सपनों को पूरा।

उसके बिन सब लगे अधूरा।

भाग्य द्वार की जो है नॉब।

क्या सखि साजन? ना सखि जॉब।

बस उलझन या दुविधा लाता।

फ्यूचर में ना जॉब लगाता।

कभी सहे ना जीवन मंच।

क्या सखि साजन! नहीं प्रपंच।

(मौलिक व अप्रकाशित)

"आदरणीय मिथिलेश भाईजी, 

हार्दिक बधाई इन पाँच मुकरियों के लिए |

मेरी जानकारी के अनुसार सभी पदों में मात्रा १६ - १६ होना चाहिए।  

.... पीड़ित है मन 

तीन पंक्ति सुनने के बाद सखि को एहसास  होना चाहिए कि बात साजन की हो रही है। पांचवे मुकरियां में  ऐसा एहसास नहीं हो रहा है।

सही और विस्तार से विश्लेषण तो  आदरणीय सौरभ भाईजी ही  कर पायेंगे।

सादर 

 

   आदरणीय मिथिलेश जी सादर, प्रदत्त चित्रानुसार सुंदर मुकरियां रची हैं आपने. हार्दिक बधाई स्वीकारें.  अंतिम मुकरी बहुत स्पष्ट नहीं हो  पा रही है.  सादर 

  कह मुकरियां :

      (1)

क्या बढ़िया सुकून मिलता था

शायद  वो  मिजाज छनता था

लेकिन यकायक बदला स्वाद

क्यों सखि साजन? नहीं अवसाद !

          

            (2)

अमराई  सब  सूना - सूना

कब बैठता आकर पाहुना

शायद हो गई भारी भूल

क्यों सखि साजन? नहिं री बबूल!

 

     (3)

पात - पात वो ज़र्द  हुआ है

सुनसान  लो  मार्ग  हुआ है

जिधर देखो पसरा है मौन

क्यों सखि साजन? नहीं खग- मौन !

 

          (4)

खाली- खाली निर्जन सा वन

दर्पन  नहीं  सुहाता  अनशन 

अंसल  पाटी  ले  पड़  जाऊँ

क्यों सखि साजन? नहीं खड़ाऊँ

वन- उपवन में नाचता मोर

धड़कनों दिल पलता है शोर 

कहाँ गया वो रंगीला आज

क्यों सखि साजन? नहिं री बाज

मौलिक व अप्रकाशित 

मुकरियाँ

+++++++++

(१ )

जीवन में उलझन ही उलझन।

दिखता नहीं कहीं अपनापन॥

गया तभी से है सूनापन।

क्या सखि साजन,ना सखि बचपन॥

( २ )

अकेले चलना है दुश्वार॥

राह सैकड़ों मोड़ हजार॥

करती याद उसे मन ही मन।

क्या सखि साजन, ना सखि भगवन॥

( ३  )

विकल्प बीसों से है दुविधा।

साथ एक हो तो है सुविधा॥

एक वही है मेरा सहचर।

क्या सखि साजन, ना सखि गिरिधर॥

+++++++++++++++

मौलिक अप्रकाशित

 

 

आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव साहब सादर, प्रदत्त चित्रानुसार सुन्दर कह मुकरियाँ रचीं हैं आपने. फिर भी कहीं-कहीं पंक्तियों का प्रवाह बाधित प्रतीत हो रहा है. 

विकल्प बीसों से है दुविधा/ हों विकल्प बीसों तो दुविधा ....इसे इस तरह कर प्रवाह ठीक  किया जा सकता है. सादर 

आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव साहब सादर, प्रदत्त चित्रानुसार सुन्दर कह मुकरियाँ रचीं हैं आपने. फिर भी कहीं-कहीं पंक्तियों का प्रवाह बाधित प्रतीत हो रहा है. 

विकल्प बीसों से है दुविधा/ हों विकल्प बीसों तो दुविधा ....इसे इस तरह कर प्रवाह ठीक  किया जा सकता है. सादर 

कह मुकरियाँ ....

जीवन तो है अजब पहेली
सपनों से ये हरदम खेली
इसको कोई समझ न पाया
ऐ सखि साजन? ना सखि छाया
*
मन की उलझन समझ न आती
सुलझाऊँ तो सुलझ न पाती
रात झरोखे से वो आया
ऐ सखि साजन? ना सखि छाया
*
कभी सवालों सा वो आए
कभी जवाबों सा वो छाए
सपन  अजब ये समझ न  आया
ऐ सखि साजन? ना सखि छाया
*
सांझ ढले हौले से आता ।
भोर काल में वो खो जाता ।
अन्धकार में लगता प्यारा ।
ऐ सखि साजन ? ना सखि तारा ।
*
तारे गिन- गिन बीती रैना
हर आहट पर चौंके नैना
उसे देख कर धड़के छाती
ऐ सखि साजन ? ना सखि पाति

मौलिक एवं अप्रकाशित

आदरणीय सुशील भाईजी,

इन पाँच  सुंदर  मुकरियाँ के लिए हार्दिक बधाई।

अंतिम की अंतिम पंक्ति में मात्रा और तुकबंदी देख लीजिए। पाति का अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाया।

आदरणीय  अखिलेश जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार ।आदरणीय पाति अर्थात पत्र जिसे देखकर नायिका का दाल धड़का ।सादर 

   आदरणीय सुशील सरना जी सादर,  प्रदत्त चित्रानुसार अच्छी मुकरियाँ रचीं हैं आपने. हार्दिक बधाई स्वीकारें. फिर भी द्वितीय मुकरी में " रात झरोखे से वो आया" ... यह पंक्ति इसके पूर्व की पंक्तियों से किसी तरह मेल नहीं बैठा रही है. अंतिम मुकरी में छाती/ पाति की तुकांतता देख लें. सादर 

आदरणीय  अशोक जी सृजन के प्रयास की सराहना के लिए हार्दिक आभार । भविष्य के लिए  अवगत हुआ सर ।छाती  और पाति में मैंने स्वर को आधार लिया था।

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