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अरे बाप रे बाप इ जिए ना दी कादून ,
दमवा बढावले बाटे फिरू इ बढाई ,
हमनी गरिबवान के आसू ना दिखाई ,
इ ता बरका लोग से मॉल पुआ खाई ,
अबकिर भोटवा में बढ़नी बहारे पारी कादून ,
अरे बाप रे बाप इ जिए ना दी कादून ,
सोचले रहनी जाईब हाथ के साथ हो ,
भोटवा ता देनी कुछ का के बिस्वास हो ,
हमरा का मालूम इ होहिहे बिस्वासघाती,
जेके समझनी सुनी दुखरा हमार हो ,
इ ता सब बरका हो गईले साप हो ,
हमारा बुझात बा अन्तिमे मोका कादून,
अरे बाप रे बाप इ जिए ना दी कादून ,
हमनी के सोचा ना ता नोचाबा कापर हो ,
आई भोटवा ता होखाबा बेजार हो ,
जाईसे हमनी के आज परेशानी बा ,
कह के तू गइल रहल झूठे उ कहानी बा ,
बरकन के तलवा ना चाटल छोरबा कादून ,
अरे बाप रे बाप इ जिए ना दी कादून ,

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Replies to This Discussion

वाह गुरु जी वाह , रौवा कवनो बिषय पर एतना बेहतरीन लिखेनी की पढे वाला बार बार पढे पर मजबूर हो जाला, हाथ जब हाथ से रोटी छिने लागी , हाथी सबकर रोटी समेट के अपने खाये लागी, कोई लालटेन जरावे पर मजबूर कर दी ,कोई खाली फूल सुंघा सुंघा के पेट भर दी, तब कैसे लोग जिही आ का बिकल्प के साथ जिही ई सोचे के बात बा, बहुत सुंदर अभिव्यक्ति बा राउर आ इ कविता इ भी बतावत बा की राउर पकड़ सम samaiki पर बहुत अच्छा बा, जय हो
भाई रविकुमारगिरि (गुरुजी), रचना सामयिक आ बेलाग बा.
रवा ’कादून’ के भरसक बेजोड़ उपयोग कइले बानी. .. बधाई.
कवनो रचना के धार आ प्रवाह अगर मात्रा आ गिनती पर कसल होखे त ओकर गेयता बढ़ि जाला. आगा से जौन एह प ध्यान राखब त राउर रचना के मोल बढ़ि जाई.
धन्यवाद.

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