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अपनी पीठ थपथपाना ---डॉo विजय शंकर

कठिन है
बहुत ही कठिन है
हाथ पीछे कर अपनी ही पीठ थपथपाना,
लेकिन....
कुछ लोग थपथपा लेते हैं,
बार बार थपथपाते हैं ,
लगातार थपथपाते हैं ,
खुद, खुश भी हो लेते हैं,
किन्तु भूल जाते हैं कि...
हाथ का प्रयोजन केवल यही नहीं है,
जिंदगी बीत जाती है,
किन्तु नहीं जान पाते,
और न ही कर पाते हैं
हाथों का सही इस्तेमाल,
बस अपनी पीठ थपथपा
खुश होते जाते हैं |
कभी कभी तो सौगातें आती हैं,
और सामने से निकल जाती है,
किन्तु, उनकें हाथ
अपनी ही पीठ थपथपाते रह जाते हैं |
सौगात पकड़ नहीं पाते,
बस इसी में खुश हो लेते हैं कि ...
लो, अपनी तारीफ़ हो गयी,
जन - सम्पर्क सफल हुआ ।

फायदे और भी हैं ,
शरीर-सौष्ठव बना रहता है,
नियमित व्यायाम होता है,
आदमी अपनी तारीफ़ के लिए
किसी का मोहताज नहीं होता,
यह काम वह खुद कर लेता है.
दूसरे का भरोसा बिलकुल नहीं करता,
जन -जीवन में यह काम नियमित जरूरी है,
सर्वोच्च प्राथमिकता पर किया जाता है ||

आदमी का अस्तित्व,
उसका भविष्य,
बल्कि सबकुछ....
बस इसी पर तो टिका है ॥
( जन -जीवन का प्रयोग public life के लिए किया गया है )

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on February 7, 2015 at 12:20pm
आदरणीय खुर्शीद खैरादी जी, रचना आपको पसंद आई , आभार, आपकी बधाई के लिए धन्यवाद , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 7, 2015 at 11:51am

आदरणीय विजय भाई , बहुत सही बात कही आदरणीय , एक और  अच्छी रचना के लिये आपको बधाइयाँ ।

Comment by khursheed khairadi on February 7, 2015 at 11:20am

आदरणीय विजयशंकर सर , बहुत सही फ़रमाया आपने ...

आदमी अपनी तारीफ़ के लिए
किसी का मोहताज नहीं होता ,
यह काम वह खुद कर लिया करता है.

सुन्दर प्रस्तुति है |सादर अभिनन्दन |

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 7, 2015 at 5:58am
आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए एवं बधाई के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय डॉ o उषा चौधरी जी , सादर।
Comment by Usha Choudhary Sawhney on February 6, 2015 at 8:58pm

आदरणीय विजय शंकर सर आपने इन पंक्तियों में आत्म प्रशंसा करने वालो को अच्छा दर्पण दिखाया है, यदि वे ध्यान दे तो उनका भी भला होगा और ओरो का भी भला होगा। बहुत बहुत बधाई, सादर।  

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 6, 2015 at 8:23pm
प्रिय जीतेन्द्र जी , रचना के मूल भाव को इंगित करने के लिए बहुत बहुत आभार ,आपकी बधाई के लिए धन्यवाद , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 6, 2015 at 8:20pm
प्रिय मिथिलेश जी, आपकी नज़र मुख्य बिंदु पर ही ठहरती है, सुन्दर , रचना के मूल भाव को इंगित करने के लिए बहुत बहुत आभार , बधाई के लिए धन्यवाद , सादर।
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 6, 2015 at 7:57pm

आदरणीय डा. विजय जी. कमाल की प्रस्तुति, आपकी कविताओं का दृष्टिकोण बड़ा अजीब सा होता है.किन्तु अंत की सकारात्मक सोच, निरंतरता बनाए रखती है. ह्रदय से बधाई लीजिये ,सर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 6, 2015 at 7:08pm

आदरणीय डॉ विजय शंकर सर, बेहतरीन प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई 

फायदे और भी हैं इसके ,
शरीर-सौष्ठव बना रहता है ,
नियमित व्यायाम होता रहता है,
आदमी अपनी तारीफ़ के लिए
किसी का मोहताज नहीं होता ,
यह काम वह खुद कर लिया करता है.
जन -जीवन में यह काम बहुत जरूरी है ,
सर्वोच्च प्राथमिकता पर किया जाता है ||
बल्कि आदमी का अस्तित्व ,
उसका सबकुछ , उसका भविष्य ,
इसी पर टिका पाया जाता है ॥

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