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एक ग़ज़ल मनोज अहसास इस्लाह के लिए

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मुझे पीसते हैं जो हर घड़ी,न वो दर्द मुझसे लिखे गए
किसी बेजुबान ख्याल में कई शेर यूं ही कहे गए

भरी रात में तेरी याद के जो चिराग बुझ के महकते हैं,
उन्हें जिंदा रखने की चाह में कई जाम हमसे पिये गये

जिसे हम समझते थे अपना घर वो जहान हमसे था बेखबर

कई रास्ते तो मकान के मुझे तोड़कर भी बुने गए

मुझे ढूंढ लाने की चाह में ,मेरे दोस्तों के वो मशवरे
मेरी जिंदगी का अज़ाब थे सो इसीलिए न सुने गए

कहीं सर छुपाने का आसरा, कोई प्यार पाने का रास्ता
यें सवाल इतने अजीब थे जो बसर से हल न किए गए

चली जब सितम की घनी हवा,उड़े फूल मेरे दयार के
वो जो रह गए तो तेरे रहे,जो चले गए वो तेरे गए

कोई वादा कर तो ये सोच ले,तेरी हद भी तेरे लहू में है
कई वादे तूने किए थे जो तेरी सोच से भी चले गए

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by मनोज अहसास on September 21, 2019 at 4:09pm

बहुमूल्य इस्लाह के लिए हार्दिक आभार आदरणीय समर कबीर साहब

आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत है

 आशीर्वाद बनाएं रखिये 

सादर

Comment by Samar kabeer on September 19, 2019 at 12:00pm

जनाब मनोज कुमार अहसास जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'उन्हें जिंदा रखने की चाह में कई जाम हमसे पिये गये'

इस मिसरे में 'हमसे' की जगह "देखो" कर लें ।
'यें सवाल इतने अजीब थे जो बसर से हल न किए गए'

इस मिसरे में 'येँ' को ये और 'बसर' को "बशर" कर लें ।

'चली जब सितम की घनी हवा,उड़े फूल मेरे दयार के'

इस मिसरे में हवा के लिए 'घनी' शब्द उचित नहीं है,देखियेगा । 

Comment by बसंत कुमार शर्मा on September 13, 2019 at 8:38pm

आदरणीय मनोज अहसास जी सादर नमस्कार, बधाई हो आपको खूबसूरत ग़ज़ल के क लिए 

कृपया ध्यान दे...

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