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‘छी: कितने गंदे, कुत्सित और बदबूदार हो तुम I तुम्हें देखकर घिन आती है I’ नदी ने मुंह बनाते हुए नाले से कहा I

‘बुरा न मानना दीदी आजकल तुम्हारी दशा भी मुझसे अच्छी नहीं है I’ नाले ने मुस्कराते हए जवाब दिया I

(मौलिक ?अप्रकाशित )

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Comment by TEJ VEER SINGH on August 10, 2019 at 6:22pm

हार्दिक बधाई आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी।बेहतरीन कटाक्ष।

Comment by Sushil Sarna on August 10, 2019 at 5:33pm

वाह आदरणीय गोपाल जी बहुत ही कम शब्दों में सागर से गहरे अर्थ को आपने चित्रित किया है। विचारणीय प्रश्न है हम नदी को नाला करना चाहते हैं या उसे उसके मूल रूप में रहने देना चाहते हैं। आपके सृजन को दिल से सलाम।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on August 10, 2019 at 4:56pm

आदाब। गागर में सागर। वाक्यों के बाण। यथार्थ और मूल्यांकन। हार्दिक बधाई और आभार इस बेहतरीन विचारोत्तेजक सृजन के लिए आदरणीय डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव साहिब।

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 9, 2019 at 9:08pm

आदरणीय डा. गोपाल नारायण जी , चिंतनीय , सामाजिक समस्या का विचारणीय प्रश्न , सामाजिक दुर्व्यवस्था पर प्रहार करती पंक्तियों की प्रस्तुति के लिए बधाई। सादर।

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