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मापनी - २१२२ २१२२ २१२२ २१२ 

चुपके’ चुपके रात में यूँ आता’ जाता कौन है

रोज आकर ख्वाब में नींदें उड़ाता कौन है

था मुझे विश्वास जिस पर दे गया धोखा वही

एक आशा फिर नई दिल में जगाता कौन है

घाव मुझको ज़िन्दगी से कुछ मिले तो हैं, मगर

छेड़कर फिर दर्द इस दिल का बढाता कौन है

बाग में कारीगरी होती दिखी हमको नहीं

फिर वहाँ पर फूल कलियों को बनाता कौन है

जुल्फ की काली घटाएँ छा रहीं रुखसार पर

और उसमे चाँद सा चेहरा दिखाता कौन है

बंद हैं पलकें मगर यूँ खिड़कियों की ओट में  

हौले-हौले प्यार से ये मुस्कुराता कौन है

लग रही सुनसान सी हमको गली ये आपकी

फिर हमें आवाज देकर यूँ बुलाता कौन है

"मौलिक एवं अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on October 10, 2018 at 1:02pm

आदरणीय TEJ VEER SINGH जी शुभ प्रभातम , आपकी हौसलाफजाई का दिल से शुक्रिया 

Comment by Samar kabeer on October 10, 2018 at 11:50am

जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।

घाव मुझको ज़िन्दगी से कुछ मिले तो हैं, मगर

छेड़कर फिर दर्द इस दिल का बढाता कौन है

इस शैर के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है,देखियेगा ।

एक बात ये कि सात अशआर की ग़ज़ल में चार अशआर में "फिर" शब्द आया है,ये कोई दोष नहीं है,लेकिन एक ही तरकीब को बार बार दुहराने से ग़ज़ल का हुस्न बाक़ी नहीं रहता ।

Comment by Shyam Narain Verma on October 10, 2018 at 11:07am

आदरणीय बसंत कुमार जी प्रणाम , बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल ....हार्दिक बधाई  | सादर

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 10, 2018 at 6:35am

आ. भाई बसंत जी, सादर अभिवादन । बेहतरीन गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।

Comment by TEJ VEER SINGH on October 9, 2018 at 8:59pm

हार्दिक बधाई आदरणीय बसंत कुमार जी।बेहतरीन गज़ल।

लग रही सुनसान सी हमको गली ये आपकी

फिर हमें आवाज देकर यूँ बुलाता कौन है

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