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थप्पड़  -  लघुकथा –

थप्पड़  -  लघुकथा –

आज तीन साल बाद सतीश जेल से छूट रहा था। उसे सोसाइटी के मंदिर में चोरी के इल्ज़ाम में सज़ा हुई थी| घरवालों ने गुस्से में ढंग से केस की पैरवी भी नहीं की थी। । पिछले तीन साल के दौरान भी कोई उसे मिलने नहीं गया था। इसलिये घर में सब किसी अनहोनी  के डर से आशंकित  थे|

जेल से जैसे ही सतीश बाहर आया तो देखा कि उसे जेल पर लेने कोई नहीं आया । उसने कुछ दोस्तों को फोन किये, जो चोरी के माल में ऐश करते थे। लेकिन सब  बहाना बना कर टालमटोल कर गये।

घर पर पहुंच कर पता चला कि उसकी पत्नी उसके जेल जाते ही सदैव के लिये अपने घर वापस चली गयी।

सोसाइटी वालों के तानों से तंग आकर  पिता ने खुदकुशी कर ली ।

माँ अपने कमरे से बाहर भी नहीं आई। जबकि सतीश माँ का सबसे लाड़ला बेटा हुआ करता था। सतीश अंदर गया तो उसे देखकर माँ ने मुँह फ़ेर लिया।

"क्या हुआ माँ? क्या तू भी मुझसे नाराज़ है"?

"तू तो ऐसे पूछ रहा है जैसे युद्ध के मैदान से जंग जीत कर आया है|तूने तो अपनी माँ को भी विधवा बना दिया”|

"तो क्या जो कुछ हुआ, उसका गुनहगार मैं ही अकेला हूँ"?

"अच्छा, तो और लोग भी शामिल थे तेरे इन कुकर्मों में"?

"क्या तुम नहीं जानती कि सबसे अधिक गुनहगार कौन है"?

"मैं कैसे जानूंगी तेरी काली करतूतों के साझीदारों को"?

"माँ, सबसे पहली गुनहगार तो तुम खुद ही हो क्योंकि बचपन मैं जब अपने सहपाठियों की चीजें चुराकर लाता था, तुमने कभी रोका टोका नहीं। बड़े होने पर भी मेरी चोरी की कमाई तुम खुश होकर रख लेती थीं"।

माँ ने गुस्से में सतीश के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया।

"माँ,  बहुत देर कर दी तुमने। काश यह थप्पड़  बचपन में मारा होता “।

मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by TEJ VEER SINGH on July 3, 2018 at 11:59am

हार्दिक आभार आदरणीय शेख उस्मानी साहब जी।

Comment by Samar kabeer on July 3, 2018 at 11:56am

जनाब तेजवीर सिंह जी आदाब,बहुत उम्दा लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Shyam Narain Verma on July 3, 2018 at 10:36am
बहुत सुन्दर ... सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on July 3, 2018 at 12:27am

मुहतरम जनाब  MUZAFFAR IQBAL SIDDIQUI  साहिब, आपकी बढ़िया रचना शायद भूलवश.यहां रिप्लाई बॉक्स/ 'जवाबी टिप्पणी बक्से' में पोस्ट हो गई है। कृपया सही स्थानांतरित कर दीजिएगा।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on July 3, 2018 at 12:23am

एक चिर-परिचित कथानक पर बेहतरीन शैली में उम्दा विचारोत्तेजक लघुकथा के लिये. तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब तेजवीर सिंह साहिब।

Comment by MUZAFFAR IQBAL SIDDIQUI on July 2, 2018 at 11:29pm

 "असमर्थ "

  (  लघुकथा  )

इनआर्बिट माल से सागर ने आफिस के लिए फॉर्मल ड्रेसेस तो खरीद लीं थीं । अभी और ज़रूरी परचेसिंग बाकी थी ।

 तभी अनायास उसकी नज़र एक टॉय सेन्टर पर पड़ी ।

 एक बड़े से हाल में ,  एक रिमोट कंट्रोल्ड एयरोप्लेन गोल गोल चक्कर लगा रहा था । उसे देखते ही सागर को अपना बचपन याद आ गया ।

अपने होमटाउन के सिटिमार्केट से गुजरते वक़्त ऐसे ही एक खिलौने की दुकान से उसने चावी से चलने वाले हवाई जहाज को खरीदने की जिद की थी और अपनी जिद पूरी करवाने के लिए मचल भी गया था ।

पापा ने शुरू में तो कठोरता से डाँटा फिर प्यार से महीने के आखिरी तारीखों के कारण खरीद पाने में असमर्थता व्यक्त की थी । शायद 

इसके बाद तो कभी किसी चीज़ के लिए जिद करने की इच्छा ही नहीं हुई । 

" एक अजीब सा सब्र घर कर चुका था उसके अन्दर ।"

आज तो हिम्मत करके प्राइज भी पूँछ ही लिया । 

पूरे 800 रु ।

अरे , बहुत मंहगा है । 

अपना सिटी वाला तो उस समय मात्र 100 रु का ही था । सुन्दर पंक्तियाँ  बिल्कुल सही 

अब 20 वर्ष भी तो गुज़र गए हैं  ।

मन ही मन सोचने लगा । 

उसका दिल तो कर रहा था , तुरंत खरीद ले ।

लेकिन फिर पापा का चेहरा सामने आ गया ।

" जैसे बोल रहे हों बहुत मंहगा है ,  बेटा । "

डर लग रहा था , अब कहीं फिर कुछ समझाने न लग जाएं ।

फिर भी खरीदने के पहले एक बार कॉल करके पूँछ तो लूँ ही ।

हेलो पापा , 

हाँ , बेटे 

पापा ,  माल की एक शॉप पर  एक हवाई जहाज मिल रहा है ।

असली का नहीं ,  वही टॉय वाला । 

लेकिन मंहगा बहुत है । 

खरीद लूँ क्या ?

कितने का है ?,  बेटे ।

800 रु का ।

हाँ , बेटे 

अगर तुम्हें पसंद है तो खरीद लो ।

" अरे ,... ... ... 

 पापा ने तो हाँ कर दी । "

वो भी बिना कुछ तर्क वितर्क दिए ।

उन्हें पता है , " कॉलेज केम्पस के बाद मेरे प्लेसमेन्ट की पहली सैलरी मिली है न मुझे , पूरे एक लाख रु ।"

कहीं पापा को मेरे बचपन की हवाई जहाज खरिदने के लिए मचल जाने वाली घटना तो नहीं याद आ गई ।

परन्तु , आज पापा ... ?

  हाँ , लगता है आज पापा बहुत खुश हैं और ... ... ...

  और ...

 " शायद असमर्थता व्यक्त करने में गौरान्वित भी ।"

 - मुज़फ़्फ़र

 - भोपाल 

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