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ग़ज़ल नूर की -कब है फ़ुर्सत कि तेरी राहनुमाई देखूँ?

कब है फ़ुर्सत कि तेरी राहनुमाई देखूँ?
मुझ को भेजा है जहाँ में कि सचाई देखूँ.
.
ये अजब ख़ब्त है मज़हब की दुकानों में यहाँ
चाहती हैं कि मैं ग़ैरों में बुराई देखूँ.
.
उन की कोशिश है कि मानूँ मैं सभी को दुश्मन
ये मेरी सोच कि दुश्मन को भी भाई देखूँ.
.
इन किताबों पे भरोसा ही नहीं अब मुझ को,   
मुस्कुराहट में फ़क़त उस की लिखाई देखूँ.
.
दर्द ख़ुद के कभी गिनता ही नहीं पीर मेरा  
मुझ पे लाज़िम है फ़क़त पीर-पराई देखूँ.
.
अब कि बरसात में ऐ काश कि बन जाऊँ किसान   
और फिर धरती की मैं गोद भराई देखूँ.  
.
दोस्त निकले थे मेरे, शह्र में कल ले के जुलूस
अब मैं निकला हूँ.. कहाँ आग लगाई.. देखूँ.      
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Samar kabeer on May 11, 2018 at 11:54am

जनाब निलेश 'नूर' साहिब आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

मतले के सानी मिसरे में 'सच्चाई' को "सचाई" लेना उचित है क्या?

'इन किताबों पे भरोसा ही नहीं अब मुझको

मुस्कुराहट में फ़क़त उसकी लिखाई देखूँ'

इस शैर में शुतरगुर्बा की सूरत बन रही है,सानी मिसरा यूँ कर लें :-

'मुस्कुराकर मैं फ़क़त उनकी लिखाई देखूँ'

'दोस्त निकले थे मेरे,शह्र में कल लेके जुलूस'

इस मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर देखें,मिसरा यूँ किया जा सकता है:-

'दोस्त निकले थे मेरे,शह्र में फिर लेके जुलूस'


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Comment by rajesh kumari on May 11, 2018 at 11:53am

वाह्ह्ह वाह्ह्ह नीलेश भैया बहुत उम्दा ग़ज़ल कही है दिल से मुबारकबाद

इन किताबों पे भरोसा ही नहीं अब मुझ को,   
मुस्कुराहट में फ़क़त उस की लिखाई देखूँ.---वाह्ह्ह्हह्ह्ह 


.दोस्त निकले थे मेरे, शह्र में कल ले के जुलूस 
अब मैं निकला हूँ.. कहाँ आग लगाई.. देखूँ. -----क्या कहने    

  
.ये मेरी सोच कि दुश्मन को भी भाई देखूँ.----में भी भाई देखूँ     करना ज्यादा सही रहेगा ----दुश्मन को भी के साथ भाई समझूँ आना चाहिए किन्तु रदीफ़ के अनुसार में ठीक लगेगा  ...ये मेरा मानना है भैया 

अब कि बरसात में ऐ काश कि बन जाऊँ किसान   
और फिर धरती की मैं गोद भराई देखूँ. ------कमाल का शेर हुआ 

ऊला को यदि इस तरह लिखें तो कैसा रहे भैया 

  
.अब कि बरसात में ऐ काश कि बन जाऊँ किसान   ---काश इस बार की  बरसात मे  बन जाऊँ किसान     

बहुत बहुत बधाई  
.

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