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122 122 122 122


मैं जब भी चला छोड़ने मैकशी को ।
अदाएं जगाने लगीं तिश्नगी को ।।1

लिए साथ मैं जी रहा बेखुदी को ।
सजाता रहा होंठ पर बाँसुरी को ।।2

अमीरों की महफ़िल में सज धज के जाना ।
वो देते नहीं अहमियत सादगी को ।।3

है मिलता उसे ही जो रो करके माँगे ।
बिना रोये कब हक़ मिला आदमी को ।।4

पकड़ कर उँगलियों को चलना था सीखा।
दिखाते हैं जो रास्ता अब हमी को ।।5

मुहब्बत हुई इस तरह आप से क्यूँ ।
अभी तक न हम जोड़ पाये कड़ी को ।।6

बयाँ हो गयी आज उनकी कहानी ।
छुपाते रहे जो यहां दुश्मनी को ।।7

मेरे कत्ल का कर गए फ़तवा जारी ।
जो कल दे रहे थे दुआ जिंदगी को ।।8

अदब काफिया बह्र सब हैं नदारद ।
जनाजे पे वो रख रहे शायरी को ।।9

नहीं कर सका एक हसरत भी पूरी ।
मैं तरसा बहुत उम्र भर इक ख़ुशी को ।।10

नवीन 

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 6, 2018 at 5:38pm

आ. भाई नवीन जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Samar kabeer on May 5, 2018 at 4:06pm

जनाब नवीन जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल है, बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Shyam Narain Verma on May 5, 2018 at 11:38am
सुन्दर भावों से सजी इस गज़ल के लिए आपको बहुत बधाई।

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