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रंगों से सराबोर गीली साड़ियों से लिपटी कुछ ग्रामीण मज़दूर महिलायें टोली में गली से गुजरीं।


"उधर देखो और बताओ कि उनके अंग-अंग रंगीन हैं या वस्त्र?" एक रंगीन मिज़ाज पुरुष ने अपने साथी से कहा।


"वस्त्र गीले और रंगीन हैं और अंग सूखे और रंगहीन! समझ में नहीं आता तुम्हें?" साथी ने उसकी आंखों के सामने चुटकी बजाते हुए कहा।


(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on February 21, 2018 at 4:05pm

 मेरी इस नवीन लघुकथा पर समय देकर अनुमोदन और विचार साझा करते हुए हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब मोहम्मद आरिफ़ साहिब,  जनाब शरद सिंह ' विनोद' साहिब और जनाब विजय निकोरे साहिब।

Comment by vijay nikore on February 21, 2018 at 2:25pm

वाह। कुछ ही शब्दों में इतनी सच्चाई कह दी.... रचना बहुत ही अच्छी लगी।

दिल से बधाई आपको भाई शेख शहज़ाद उस्मानी जी ।

Comment by SHARAD SINGH "VINOD" on February 21, 2018 at 2:07pm

आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी सादर बधाई...

           आपने दो अलग व्यक्तित्व का दो पंक्तियों में ही सार्थक विश्लेषण किया ........ गागर में सागर ..पुन: बधाई!!

Comment by Mohammed Arif on February 21, 2018 at 10:17am

आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,

                          लोगों की दृष्टि ख़राब होती है तो फिर वे बेबसी या लाचारी से सिकुड़े बदन को नहीं देखते । वासना के भेड़िये किसी की मज़दूर की ग़ुर्बत नहीं जानते । बहुत ही कम शब्दों में बहुत कुछ कह दिया आपने । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

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