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भीतर-बाहर

हाँफती धुमैली साँसों की धड़कन

लगता है यह गाड़ी अचानक

किन्हीं अनजान अपरिचित

दो स्टेशनों के बीच

ज़बर्दस्ती

रोक दी गई है, कब से

अमावस की रा्त ...

भीतर-बाहर

बिजली

बुझा दी गई है

इतना भयंकर आकारहीन सुनसान

(भीतर-बाहर)

भविष्यवाणी न कोई सिगनल

हरी झंडी नहीं

लाल झंडी भी नहीं, बस

हाहाकार करता कठिन संग्राम

अर्थहीन अधबना-पन

भीतर-बाहर

पूछूँ किससे, क्या पूछूँ, या न पूछूँ

बन्द कमरे में बन्द 

खिड़की की सलाखों के बीच से चीखूँ ?

माथा ... बन्द दरवाज़े पर पटकूँ ?

है दर्द भरी गहरी तड़फड़ाती अकुलाहट

भीतर-बाहर

शैश्वावस्था में जब कभी था गिरा

अनुरोध करती-सी कहती थी माँ

"चुप" ... "अच्छे बच्चे नहीं रोते"

"मैं हूँ न !"

अब कुलबुलाता शून्य

मानो फैलते अन्धकार की गति की लय

छा गई है भीतर-बाहर

अनवरत भयावनी खामोशी

पथरायी ज़िंदगी को कब से

बुखार-सा चढ़ा है

अनुताप का प्रच्छन्न प्रवाह ...

"कहाँ हो, माँ ?"

      ----------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Samar kabeer on February 1, 2018 at 2:36pm

जनाब भाई विजय निकोर जी आदाब,हमेशा की तरह एक शानदार और प्रभावशाली रचना,इस बहतरीन प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।

Comment by vijay nikore on January 28, 2018 at 9:12am

//हालात, अनुभव, संवेदनहीनता, आहत संवेदनाओं को सांकेतिक रूप से अभिव्यक्त करती बेहतरीन विचारोत्तेजक रचना//

 इस रचना को आपसे मान  मिला,  आपका हार्दिक आभार, आ. शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on January 26, 2018 at 5:52am

हालात, अनुभव, संवेदनहीनता, आहत संवेदनाओं को सांकेतिक रूप से अभिव्यक्त करती बेहतरीन विचारोत्तेजक रचना के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब विजय निकोरे साहिब।

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